केरल में वायनाड के ग़रीबी से त्रस्त गांवों को, बाँस के हस्तशिल्प और उपयोग की वस्तुओं के रूप में हरा सोना प्राप्त हुआ है, जिसने गरीबी समाप्त करने में मदद की है और उन्हें नियमित आय का स्रोत प्रदान किया है।
‘उरावू’ एक
गैर-लाभकारी पहल है, जिसका लक्ष्य टिकाऊ समाधानों के माध्यम
से ग्रामीणों का सशक्तिकरण करना है। ‘उरावू’ के अध्यक्ष, अब्दुल्लाकुट्टी कहते हैं – “हम बाँस की संभावनाओं को टैप करने की कोशिश कर रहे
हैं। यह कई स्थानों पर,
विशेष रूप से त्रिकाइपेट्टा गांव में, सामाजिक-आर्थिक
स्थिति को सुधारने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।“ दि उरावू स्वदेशी
विज्ञान और प्रौद्योगिकी केंद्र, जिसे सामान्य रूप से ‘उरावू’ के रूप में जाना जाता है, त्रिकाइपेट्टा और कुछ अन्य गाँवों के लोगों, विशेष रूप से महिलाओं, की आजीविका के साधन के रूप में, बाँस-हस्तशिल्प और सामान्य उपयोग के उत्पादों को बढ़ावा देता है।
इस गाँव के और उसके आसपास के
लोग, शराब
के नशे और गरीबी से त्रस्त थे। हस्तशिल्प, फर्नीचर और
निर्माण-कार्यों में बाँस के उपयोग और बाँस के सामान
की निरंतर मांग के कारण, सामाजिक
और वित्तीय सशक्तिकरण के साथ-साथ, ग्रामीणों के लिए
टिकाऊ आजीविका सुनिश्चित हुई।
गरीबी उन्मूलन
वर्षों पहले, वायनाड जिले के कलपेट्टा प्रशासनिक ब्लॉक का
त्रिकाइपेट्टा ग़रीबी से त्रस्त एक साधारण गाँव था। आज इसे ‘बाँस गाँव’ के नाम से जाना जाता है। त्रिकाइपेट्टा को केरल का ‘बाँस-मुख्यालय’ भी कहा जाने लगा है। केरल की एकमात्र
बाँस कला-दीर्घा (बाँस आर्ट गैलरी) भी यहीं पर है। जब 1996 में उरावू ने काम करना शुरू किया, तो केवल आठ परिवार बाँस के काम से जुड़े थे, जबकि अब लगभग 200 परिवार बाँस-सम्बंधी कार्यों में लगे
हैं।
फलों की टोकरियाँ बनाने वाली
महिलाओं का एक समूह गत वर्षों को याद करते हुए चर्चा करते हैं। महिला श्रमिकों में से
एक ने कहा – “देसी दारू (स्थानीय शराब), गरीबी, नशीली दवाएँ, भूख, घरेलू हिंसा और बीमारियाँ हमारे जीवन का एक अभिन्न
अंग थीं। लेकिन अब हालात बेहतर हो गए
हैं।”
महिलाओं के लिए आजीविका
इस समय 15 से अधिक महिला स्वयं-सहायता समूह और क्लस्टर, अब उरावू के अंतर्गत
काम कर रहे हैं, जिनसे 100 से अधिक ग्रामीण
महिला कारीगर जुड़ी हैं। 5,000 से अधिक महिलाओं ने बाँस की
वस्तुएँ बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त किया है। स्वयं सहायता समूहों के अंतर्गत महिलाएं, 500 से अधिक प्रकार की बाँस की वस्तुएँ बनाती हैं।
जहाँ स्वयं-सहायता समूहों में
से पांच त्रिकाइपेट्टा में कार्य कर रहे हैं, बाकी त्रिकाइपेट्टा के आसपास के
गांवों में फैले हुए हैं। बाँस की वस्तुओं का निर्माण इन सब गाँवों की महिलाओं के
लिए आजीविका बन गया है। महिला कारीगरों में से एक कहती हैं – “बाँस की वस्तुओं के निर्माण ने हमें आजीविका, भोजन, गरिमा और
सशक्तिकरण प्रदान किया है।”
हस्तशिल्प के साथ-साथ महिलाएं
घरेलू उपयोग की वस्तुएं, जीवनशैली से जुड़ी वस्तुएँ और
उनका सामान बनाती हैं। महिलाएं अनेक प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करती हैं, जिनमें मुखौटे
(मास्क), लैंपशेड, पेन, टोकरियाँ, पर्दे, घड़ियां, बोतल-होल्डर और नोटपैड-होल्डर शामिल हैं।
बाँस-आधारित आजीविकाएँ
जहां महिलाएं बाँस से संबंधित
कला और शिल्प कार्यों में लगी होती हैं, वहीं पुरुष
फर्नीचर और बाँस-आधारित निर्माण कार्य करते हैं। उरावू की एक शाखा, ‘उरावू इको-लिंक’ के माध्यम से, कारीगरों ने कई घरों, सरायों और कार्यालयों
का निर्माण किया है,
जिनमें बाँस का मुख्य रूप से उपयोग होता है।
निर्माण और भवन के अंदरूनी
हिस्सों में बांस का उपयोग, उरावू के
लक्ष्य को आगे बढ़ाता है, क्योंकि 1996 में उरावू की स्थापना, पारंपरिक ज्ञान और उन कार्यविधियों
को संजोते हुए ग्रामीण गरीबों को सहयोग करने के लिए की गई थी, जो पर्यावरण के अनुकूल हों और ग्रामीण आजीविकाओं का सृजन करें।
ग्लोबल वार्मिंग के इस समय में, घरों और कार्यालयों के निर्माण में उपयोग किए गए बाँस, अंदर के तापमान
को कम रखने में मदद करते हैं। ये कारीगर इनकी रखरखाव की जिम्मेदारी भी लेते हैं।
एक कारीगर और प्रशिक्षक, राकेश के अनुसार, इन प्रयासों ने राज्य के बाँस-आधारित कार्यों को
मुख्यधारा में ला दिया है।
मांग में निरंतरता
त्रिकाइपेट्टा की बाँस-कार्यशाला
के अलावा, कलिक्कुनी, परथोड और मेप्पडी में भी एक-एक कार्यशाला है। मांग को
ध्यान में रखते हुए, पड़ोसी राज्यों से भी बाँस की
खरीद कर ली जाती है। बाँस को आवश्यकता के अनुसार रासायनिक प्रक्रिया से गुजारा, काटा और आकार
में ढाला जाता है।
जिन भारी कामों में यंत्रों का
आंशिक प्रयोग होता है, उनके
अतिरिक्त, अधिकांश कार्य हाथ से किए जाते हैं। इससे न केवल
कारीगरों को बाँस की वस्तुएं बनाने से आजीविका प्राप्त होती है, बल्कि उन्हें इन उत्पादों में अपने कौशल को ढालने और प्रदर्शित करने में
भी सहायता मिलती है। हाथ से तैयार होने के कारण, इन वस्तुओं की त्रिकाइपेट्टा और कलपेट्टा कस्बों की
दुकानों पर भारी माँग है, क्योंकि वायनाड में स्थानीय पर्यटकों
के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय पर्यटक भी आते हैं।
यहाँ केवल उत्पादों के लिए ही मांग नहीं है, बल्कि दक्षता-प्रशिक्षण के लिए भी है। उरावू में ‘कार्यों एवं विक्रय’ की प्रमुख, हेन्ना पॉल ने VillageSquare.in को बताया – “हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के एक कार्यक्रम के अंतर्गत हमारे कारीगर, कारीगरों को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए श्रीलंका गए थे।”
पर्यावरण-परक बाँस
उरावू द्वारा हर साल बाँस की 12,000 पौद्ध तैयार की जाती हैं और उन्हें अपने परिसर में
लगाने के लिए ग्रामीणों के बीच वितरित किया जाता है। बाँस के तने के लिए कारीगर
सिर्फ पूरे पक चुके पेड़ों को ही काटते हैं। इससे बाँस अपना जीवनकाल पूरा कर पाता
है और इससे पर्यावरण के संरक्षण में भी मदद मिलती है।
अब्दुल्लाकुट्टी ने VillageSquare.in को बताया – “बाँस की खेती के अपने पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ हैं। बाँस संकटग्रस्त वर्षा-वनों की कठोर लकड़ी का एक महत्वपूर्ण विकल्प हैं। यह तेजी से बढ़ते गैर-इमारती वन-उपज के रूप में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड को सोखता है और अधिक ऑक्सीजन छोड़ता है।”
अब्दुल्लाकुट्टी के अनुसार, बाँस एक ऐसा पेड़ है, जो भूमि-कटाव को रोकने में प्रभावी
है। हालांकि बाँस के जंगल घने होते हैं, लेकिन वर्षा का
पानी उनमें से स्वतंत्र रूप से बहता है, जबकि बाँस की रेशेदार जड़ें बारिश के
दौरान मिट्टी के कटाव को रोकती है। वह बताते हैं – “हम बाँस के उपयोग को प्लास्टिक, लोहा और दूसरी कठोर लकड़ी के विकल्प के रूप में प्रचारित-प्रसारित
कर सकते हैं।” बाँस की आर्थिक और पर्यावरण क्षमता को बढ़ावा देने के लिए बाँस
की 50 से अधिक किस्मों की नर्सरी
स्थापित की गई थी।
सामाजिक विकास
राकेश ने VillageSquare.in को बताया – “बाँस-आधारित आजीविकाओं के कारण हमारे जीवन में भारी बदलाव आया है। हमारे गाँव में अब कोई गरीबी नहीं है। बहुत से बाँस-कारीगर, जिनमें महिलाएँ भी शामिल हैं, प्रशिक्षण कार्यशालाओं और सम्मेलनों में भाग लेने के लिए दूर-दूर तक जाते हैं।“ बाँस को एक आदिवासी मुखौटे का रूप देते हुए, जया कहती हैं – “मैं यहां तब से काम कर रही हूं जब इसे शुरू किया गया था। मुझे बाँस शिल्प पसंद है और मैंने जो प्रशिक्षण प्राप्त किया, उससे मुझे काफी आत्म-विश्वास प्राप्त हुआ।”
पड़ोस में एक चाय बेचने वाले
चोयी VillageSquare.in
को बताते हैं – “हालाँकि इस पहल
के शुरू करने के समय हमारे मन में शंका थी, लेकिन फिर हमें इसके सकारात्मक
प्रभाव दिखने लगे। सैकड़ों महिलाओं ने यहां काम करना शुरू किया। हम देख सकते हैं
कि आर्थिक सुधार से घर में माहौल बेहतर बन सकता है। ”
राकेश के अनुसार, “कारीगरों में 90%
महिला होने के कारण, जेंडर-आधारित
संवेदनशीलता में वृद्धि हुई है। पुरुष लैंगिक समानता के बारे में जागरूक हो रहे
हैं। हमारे काम ने जाति-आधारित धारणाओं को मिटाकर बाँस-कारीगरों की सामाजिक स्थिति
में सुधार किया है।”
अब्दुल्लाकुट्टी के अनुसार – “अब बाँस
उनके लिए आजीविका का प्राथमिक स्रोत है। मैं गर्व के साथ कह सकता हूं कि गरीबी,
शराब-नशे और ताड़ी बनाने के अवैध काम के दिनों से निकलकर, ग्रामीणों ने आजीविका की सुरक्षा और नियमित आय का आनंद लेना शुरू कर दिया
है।”
चित्रा अजीत कोझिकोड, केरल में स्थित पत्रकार हैं। विचार
व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?