मुर्गी का मांस खाने से कोरोना वायरस फैलने की अफवाह के चलते, उन दस हजार से अधिक आदिवासी और दलित छोटे मुर्गीपालक किसानों को अपनी मुर्गियों को मारने के लिए मजबूर होना पड़ा है, जिन्होंने सफलतापूर्वक सहकारी उद्यमों का निर्माण करते हुए गरीबी से मुक्ति पाई थी
कुंती धुर्वे, मध्य
प्रदेश में होशंगाबाद जिले के केसला प्रशासनिक ब्लॉक के जामुंडोल गांव की एक लघु
स्तरीय मुर्गी-उत्पादक हैं। केसला के कुल 15,000 परिवारों
में से, लगभग 9,000 आदिवासी परिवार
हैं। लगभग 13% अनुसूचित जाति से सम्बन्ध रखते हैं।
कुंती धुर्वे 2001 में
गठित एक सहकारी समिति, केसला पोल्ट्री सोसाइटी की अध्यक्ष भी
हैं। मध्य प्रदेश के होशंगाबाद और बैतूल जिले के 47 गाँवों
के आदिवासी और दलित समुदायों की लगभग 1,300 लघु-स्तरीय
मुर्गीपालक महिलाएँ इस सोसाइटी की शेयरधारक-सदस्य हैं।
मध्यप्रदेश के इस हिस्से में, सड़कों
की दशा बहुत अच्छी नहीं है और केवल एक चौथाई से कुछ अधिक गांव ही टिकाऊ सड़कों से
जुड़े हैं। कृषि ज्यादातर वर्षा आधारित है, जिसमें किसान
मूलभूत तरीके से खेती करते हैं। ऐसे परिस्थितियों में, महिलाएं
मुर्गी पालन करके आर्थिक सफलता हासिल करती रही हैं।
लघु-स्तरीय मुर्गी पालन
पोल्ट्री क्षेत्र में छोटे मुर्गीपालक
किसानों के बारे में ज्यादा लोगों को जानकारी नहीं है। बेशक बड़ी संख्या में घरों
के पिछवाड़े में देसी नस्ल की मुर्गियां पालने का चलन रहा है।
पिछले 20 वर्षों
में, पोल्ट्री किसानों के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए
हैं, जिनके पास थोड़ी संख्या में ही सही, लेकिन कीमती मुर्गियां रही हैं। यह उन बड़े, केंद्रीकृत,
बड़ी पूंजी वाले पोल्ट्री फार्मों से अलग है, जहां
किसी भी समय मुर्गियों की संख्या एक लाख से लेकर दस लाख तक होती है।
इस तरह के पोल्ट्री फार्म पंजाब, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कई अन्य राज्यों में पाए
जाते हैं। यह लेख उन फार्मों के बारे में नहीं है, बल्कि
महिलाओं द्वारा चलाए जा रही उन मुर्गीपालन ईकाइयों के बारे में है, जिनमें वे औसतन 500 मुर्गियां पालती हैं।
महिला मुर्गीपालकों का व्यावसायिक-मॉडल
नेशनल स्मॉलहोल्डर पोल्ट्री डेवलपमेंट
ट्रस्ट (NSPDT) महिलाओं की एक सहकारी
संस्था गठित करता है, जिसमें प्रत्येक महिला अपने घर के
प्रांगण में ही लगभग 400 से 600 ब्रायलर
मुर्गे पालती है। इसके लिए उसे अपने खुद की या पट्टे की केवल एक प्रतिशत भूमि (500
वर्ग फुट) की आवश्यकता होती है।
प्रत्येक महिला परिसर को साफ करने,
मुर्गियों को चारा खिलाने, पानी देने और बाद
में उन्हें भेजने के लिए दो से तीन घंटे खर्च करती है।
सहकारी समिति सदस्यों को, एक
दिन के चूज़े (DOC) और पोल्ट्री-फ़ीड, दवाइयों
एवं टीकों जैसे जरूरी सामान के साथ-साथ, उत्पादन और
मार्केटिंग सम्बन्धी सेवाएं भी प्रदान करती है। मुर्गियां 35 से 40 दिनों के चक्र के अंत में बिक्री के लिए तैयार
होती हैं। एक महिला किसान साल भर में कम से कम छह बैच या चक्र प्राप्त कर सकती है।
सहकारी व्यवस्था इस तरह से डिज़ाइन की
गई है कि गैर-उत्पादक महिलाएं (जिन के पास ब्रायलर पोल्ट्री का पूर्व अनुभव नहीं
है) सहज रूप से स्वयं के छोटे व्यवसाय की ऐसी मालिक बनें, जो
बड़े मुर्गी-फार्मों से प्रतिस्पर्धा कर सकें और खुद को व्यापारिक-बाजार में बनाए
रख सकें।
आज मध्य प्रदेश, झारखंड,
ओडिशा, असम और महाराष्ट्र के 24 जिलों के 456 गाँवों में फैले 27 उत्पादक-समूहों (सहकारी समितियों/ उत्पादक कंपनियों) के रूप में 14,000
से अधिक पोल्ट्री उत्पादक संगठित हुए हैं।
वित्तीय और सामाजिक फ़ायदे
इस कार्यक्रम से एक महिला को घर के
प्रांगण में ही ब्रायलर मुर्गीपालन के लिए कौशल, बुनियादी ढांचे, आवश्यक सामान और
बिक्री-व्यवस्था प्राप्त होती है, जिससे प्रति वर्ष 40,000
से 60,000 रुपये, यानी
साल भर में न्यूनतम 200 दिनों के लिए 200 से 300 रुपये प्रति दिन की आय होती है।
महिलाओं को मुर्गीपालन के माध्यम से
गरीबी से मुक्त होने में मदद मिली है। 2019 के अंत तक, मुर्गीपालन के
छह चक्रों से, धुर्वे हर साल 50,000 रुपये
से अधिक कमा रही थी । यह उनकी आय में लगभग 100% की वृद्धि
थी। यह कुछ ही घंटे काम होता था और इससे साल में 200 से 250
दिन का काम मिल जाता था।
अब जब उसे यह आय होने लगी है, तो धुर्वे को जीवन यापन के लिए हताशा
में दूरदराज के स्थानों की यात्रा करने की जरूरत नहीं है,जिस
कारण उसके तीन बच्चे स्कूल नहीं जा पाते थे। अब वे एक स्थानीय स्कूल में पढ़ते
हैं। अब उसे साहूकार से पैसा उधार नहीं लेना पड़ता।
इस व्यावसायिक गतिविधि से न केवल धुर्वे
की आय में वृद्धि हुई है, बल्कि उसके और सहकारी
समिति की सभी महिला सदस्यों के आत्मसम्मान और भलाई में भी बढ़ोत्तरी हुई है।
कोरोनावायरस सम्बन्धी भ्रांतियां
सहकारी समिति और इसके सदस्यों के लिए 2020 की शुरुआत बुरी खबर लेकर आई।
जनवरी में, बाजार में कोरोनोवायरस और चिकन खाने को जोड़ने
वाली अफवाहों और झूठे समाचार शुरू हो गए। असल में, स्वास्थ्य
सम्बन्धी किसी भी आपात स्थिति के समय में स्वस्थ भोजन और आहार आवश्यक होते हैं।
भ्रांतियों और अफवाहों के कारण मांग में
भारी गिरावट आई और इस तरह छोटे मुर्गीपालक किसानों को बहुत बड़ा झटका लगा और इससे
उनका लगभग पूरा कारोबार ही ध्वस्त हो गया। कुछ शरारती लोगों की निराधार आशंकाओं के
कारण पूरे कारोबारी माहौल में एक नाटकीय गिरावट आ गई।
चिकन की मांग में भारी गिरावट आ गई।
कीमतें गिर गईं। वे थोक मूल्य, जो 2019 में 70 से 80 रुपये प्रति किलोग्राम थे, तेजी से गिरकर 5 से 10 रुपये
प्रति किलोग्राम रह गए। लेकिन उत्पादन लागत 75 रुपये बनी
रही।
यह हालात इतने निराशाजनक थे, कि
महिलाएं कौड़ियों के भाव पर भी मुश्किल से कुछ ही मुर्गियों को बेचने का प्रबंध कर
सकी। उन्हें मजबूरन बाकी मुर्गियों को मारना पड़ा। एक सपना, जिसे
बनने में 10 से अधिक साल लगे, वह
रातों-रात बिखर गया।
दिसंबर 2019 तक, 27 उत्पादक समूहों का कारोबार 508.65 करोड़ रुपये का था, जिससे यह आदिवासी और दलित
महिलाओं का सबसे बड़ा उद्यम बन गया। लेकिन COVID-19 की
भ्रांतियों के चलते हुए नुकसान के कारण, महिलाएं सहयोग के
लिए सरकार और परोपकारी संस्थाओं की ओर देख रही हैं।
मंडराता डर
हालांकि सूक्ष्म-स्तर का यह प्रभाव
स्पष्ट है, लेकिन पिछले 20 वर्षों में बड़ी तन्मयता के साथ खड़ी की गई संस्था NSPDT को भी बड़ा भारी नुकसान हुआ है, जो एक ऐसी
मूल्य-श्रृंखला (value-chain) है, जिसके
केंद्र में छोटे मुर्गीपालकों के हित रहे। उस पूरी मूल्य-श्रृंखला को बहुत बड़ा
झटका लगा है।
धुर्वे और दूसरी महिलाओं के लिए, गरीबी
के उसी जाल में वापस पहुँच जाने का खतरा है, जिससे वे आज़ाद
हुई थी। क्या इसका मतलब यह होगा कि वे अब वापिस उन्हीं कमर-तोड़ मेहनत वाले शुरुआती
दिनों में पहुँच जाएंगी, जब स्थानीय रेत की खदानों में रेत
ढोने से नियमित आय के नाम पर उसे 100 रुपये प्रतिदिन थे?
उसे पूरा दिन बच्चों की उपेक्षा करके
दूर रहना पड़ेगा और आय में कमी को पूरा करने के लिए स्थानीय साहूकार से 10% महीना या उससे भी अधिक के ब्याज पर ऋण लेना पड़ेगा। यही हालत समूह की
अधिकांश महिला मुर्गीपालक किसानों की होगी।
दीपक तुषीर ने
दिल्ली यूनिवर्सिटी से जूलॉजी में ग्रेजुएशन किया और 2011
में अमृता यूनिवर्सिटी, कोयम्बटूर से एमबीए की
पढ़ाई पूरी की। तब से वह नेशनल स्मॉलहोल्डर पोल्ट्री डेवलपमेंट ट्रस्ट, भोपाल से जुड़े हुए हैं।
अजीत कानितकर
विकास अण्वेश फाउंडेशन, पुणे में शोध टीम के
वरिष्ठ सलाहकार हैं। इससे पहले, उन्होंने फोर्ड फाउंडेशन और
स्विस एजेंसी फॉर डेवलपमेंट एंड कोऑपरेशन (दोनों नई दिल्ली में) में काम किया।
उन्होंने 1992-1995 के दौरान इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट,
आणंद में पढ़ाया। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?