दूरदराज के गांवों में रहने वाले पहली पीढ़ी के छात्रों के लिए, सरकार द्वारा कार्यान्वित लॉकडाउन के दौरान, घर पर रह कर पढ़ाई के लिए ऑनलाइन और सामुदायिक संसाधनों की कमी है। इस समय के नुकसान की भरपाई के लिए उन्हें दोबारा वही पढ़ाई करने की ज़रूरत होगी|
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की भामरागढ़ तालुक, छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे, महाराष्ट्र
के दूरदराज, पूर्वी इलाके में स्थित है| इस क्षेत्र में मादिया गोंड जनजाति के लोग रहते हैं। मूल रूप से शिकार और
भोजन संग्रह करने और वन में रहने वाले इन लोगों में से अधिकतर ने खेती करना शुरू
कर दिया है।
माड़िआ गोंड समुदाय की अपनी अलग भाषा और संस्कृति है। इस क्षेत्र के
लोगों का 1980 तक बाहरी दुनिया के साथ
बहुत कम संपर्क था। इस मुख्य रूप से वन क्षेत्र के ग्रामीणों के लिए आजीविका
मुख्यतः मौसमी खेती, बांस काटने, तेंदू-पत्ते
इकट्ठे करने और कभी-कभार मनरेगा के काम पर आधारित है।
आवासीय आश्रम विद्यालय, जिसकी स्थापना 1976
में हुई, स्वर्गीय बाबा आम्टे द्वारा 1973
स्थापित, लोक बिरादरी प्रकल्प (एलबीपी) की
गतिविधियों में से एक है। इस आवासीय विद्यालय, जिसमें 650
छात्र पढ़ते हैं, को सरकार से आर्थिक सहायता
मिलती है और इसका प्रबंधन प्राइवेट है। एलबीपी समुदाय द्वारा संचालित, दिन में लगने वाले दो स्कूल भी चलाता है, जहां 200
छात्रों को दाखिला मिला है।
अच्छी शिक्षा
जब 1976 में इस आवासीय विद्यालय
की शुरुआत हुई थी, तो कई वर्षों तक यह पूरे क्षेत्र का अकेला
विद्यालय था। हेमलकसा गाँव के स्कूल से कई डॉक्टर, इंजीनियर,
वकील, अफसर, किसान और
उद्यमी निकले| ये सभी अपने समुदाय में इस तरह के व्यवसायों
में अपने-अपने क्षेत्र के पहले थे।
सौ से अधिक गांवों के बच्चे छात्रावास में रहते हैं और स्कूल जाते
हैं। स्कूल कक्षा 12 तक आर्ट्स की शिक्षा
प्रदान करता है। स्कूल में लगभग 30 शिक्षक और 20 गैर-शिक्षण कर्मचारी हैं| ये सभी परिसर में ही रहते
हैं, ताकि छात्रों को ज्यादा से ज्यादा सहायता और देखभाल
प्राप्त हो सके।
विद्यालय में शैक्षणिक के साथ-साथ गैर-पाठ्यक्रम गतिविधियों पर जोर
दिया जाता है। यहां के छात्रों ने राज्य और राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताओं
में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है। स्कूल में छात्रों के लिए सभी जरूरी सहूलियतों
के अलावा, इंटरनेट कनेक्शन के साथ एक
अत्याधुनिक कंप्यूटर लैब है और पूरी तरह इस्तेमाल होने वाला पुस्तकालय भी है।
स्कूलों का बंद होना
राज्य भर में COVID-19 रोगियों की संख्या
बढ़ने के बावजूद, गढ़चिरौली आज तक एक भी संक्रमण का मामला न
आने के कारण ग्रीन जोन बना हुआ है। फिर भी, एहतियात के तौर
पर, सरकार ने 15 मार्च से सभी स्कूलों
को बंद करने का आदेश दिया, हालांकि नए शैक्षणिक सत्र की
शुरुआत की तारीख को लेकर अनिश्चितता है।
जब स्कूल बंद हुआ, तो छात्रों ने कहा कि वे
दो सप्ताह में वापस आ जाएंगे। जैसे-जैसे अनिश्चितता बढ़ी, तो
शिक्षकों ने आस-पास के गांवों का दौरा करके और पत्र लिखकर छात्रों को यह सूचना दी,
कि उन्हें स्कूल तभी आना है, जब उन्हें इसके
लिए कहा जाए।
लॉकडाउन के दौरान, शिक्षकों ने कॉलेज में
सीखे शैक्षणिक सिद्धांतों पर अपनी समझ दुरुस्त की, अगले सत्र
के लिए पठन-पाठन सामग्री तैयार की, कक्षाओं के कमरों को
तैयार किया, पाठ्य पुस्तकों को व्यवस्थित किया और जहां संभव
हो, वहां स्टेशनरी रिसाइकल (दोबारा इस्तेमाल लायक) की। इस सब
का उद्देश्य सार्थक रूप से व्यस्त रहना था।
संवाद का अभाव
कोरोनोवायरस से पहले और बाद के जीवन को लेकर बहुत सारी चर्चाएँ होती
रही हैं। ऑनलाइन सीखने और सिखाने के अवसरों में एक बढ़ोत्तरी हो रही है। हालांकि इस
उत्साह और COVID-19 के बाद एक रामबाण
की जरूरत के अपने कारण हैं, लेकिन ज्यादातर यह पहले से
इच्छित या मान ली गई धारणाओं पर आधारित होता है।
इस तरह की, आदिवासी और ग्रामीण लोगों
के जीवन और संस्कृति को लेकर, एक पूर्व-गढ़ित रोमांटिक धारणा
यह है, कि उनकी अर्थव्यवस्था और जीवन का तरीका बड़ा ही टिकाऊ
है और उनपर कोरोनोवायरस संक्रमण का सबसे कम प्रभाव पड़ रहा है।
वास्तव में यही लोग हैं, जिन्हें शिक्षा, सूचना, आने वाले संकट के बारे में जानकारी-समझ और उन
हालात में बदलाव की जानकारी की सबसे ज्यादा जरूरत है, जिनका
उनके जीवन पर असर पड़ता है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण से, अविश्वसनीय
मोबाइल संचार, अनियमित बिजली सप्लाई और सड़कों की कमी के
कारण ऐसा हो नहीं रहा है। हेमलकसा भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं है।
ऑनलाइन शिक्षा
राज्य सरकार की अधिसूचना के निर्देशानुसार, सभी प्रकार के शैक्षणिक संस्थानों को बंद रहना था।
फिर भी सरकार ने स्कूलों को ऑनलाइन और दूरदर्शन के माध्यम से शैक्षणिक कार्यक्रम
जारी रखने के निर्देश दिए। हमें विश्वास नहीं कि यह हमारे क्षेत्र में संभव होगा।
कितने दलित, आदिवासी और अन्य कमजोर
समुदायों से आने वाले माता-पिता, मोबाइल मैसेजिंग ऐप पर ग्रुप
बना पाएंगे और उस ऑनलाइन शिक्षण पाठ्यक्रमों की बाढ़ से लाभ ले पाएंगे, जो आजकल शहरों में प्रचलित हैं? मैं विश्वास से कह
सकती हूं, कि पूरे भामरागढ़ तालुक में इनकी संख्या 20 से कम होगी।
भामरागढ़ तालुक के स्कूलों और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं में लगभग 10,000 बच्चे पढ़ते हैं। वर्तमान स्थिति को देखते हुए
फिलहाल उनकी शिक्षा पाने की आशा बेहद कम है। हमारे कई छात्र, 12वीं पास करने के बाद, तालुक छोड़ कर चले गए थे और
पुणे और औरंगाबाद जैसे शहरों में पढ़ाई कर रहे थे।
वे सभी, जो मेडिकल और इंजीनियरिंग
की पढ़ाई करना चाहते थे, और दूसरी प्रवेश-परीक्षाओं की तैयारी
कर रहे थे (जिनके लिए व्यवस्था पहले ही प्रतिकूल है), अपने गांव
लौट आए हैं। जहां उनके शहरी सहपाठी ऑनलाइन ट्यूशन और वीडियो से अध्ययन जारी रखे
हुए हैं और फल-फूल रहे हैं, वहीं यह हालात हमारे छात्रों को
पढ़ाई से दूर रखे हुए हैं।
शैक्षणिक संसाधनों की कमी
जहां शहरों में बच्चे विभिन्न कलाओं के बारे में सीखने और खुद को गतिविधियों
के माध्यम से व्यस्त रखने के लिए वीडियो शेयरिंग प्लेटफॉर्म और क्लाउड-आधारित फोन
ऐप का उपयोग कर रहे हैं, वहीं भामरागढ़ में बच्चे
अपने माता-पिता के साथ खेत में और जानवरों की देखभाल करके घर में मदद कर रहे हैं।
उनमें से कुछ जंगल से महुआ और तेंदू पत्ता इकठ्ठा करते हैं। सबसे बड़ी
दिक्कत यह है, जब तक वे दूरदराज के गांव
के माहौल में फंसे हैं, तब तक उन्हें छपा हुआ एक शब्द भी
नहीं मिलेगा। हमारे स्कूल के बच्चों के लिए इस तरह की लम्बी छुट्टियां, उनकी साल भर की पढ़ाई के लिए बहुत बड़ा धक्का हैं।
उनके लिए यह असामान्य बात नहीं है, क्योंकि हमारे ये अधिकांश छात्र पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी हैं। उनके घरों
में ऐसा अनुकूल वातावरण नहीं है, जो स्कूल से पाई उनकी
औपचारिक शिक्षा को मजबूती प्रदान करे। उनमें से किसी के पास भी, उनकी शिक्षा में सक्रियता और निरंतरता बनाए रखने के लिए, समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, नक्शों,
एटलस, प्रयोग-सामग्री, डिक्शनरी,
बाल-पुस्तकों, आदि तक पहुँच नहीं है।
बचे हुए कोर्स के साथ दोबारा पढ़ाई
घर पर बिताई छुट्टियों और स्कूल में बड़ा अंतराल होने पर वे कई गुणा
तेजी से भूलते हैं। परिणामस्वरूप, अपनी उम्र के बच्चों के
बराबर ज्ञान का स्तर न होने के कारण, उनकी सीखने की गति और
क्षमता पर इसका प्रभाव पड़ेगा।
कोई यह तर्क दे सकता है कि उन्हें औपचारिक स्कूलों में पढ़ने की कोई
जरूरत नहीं है। और यह तर्क भी दे सकते हैं कि प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व आदिवासी
जीवनशैली रही है, उनके पास हमेशा अपने जंगल,
परम्परागत ज्ञान, भोजन और पोषण की बुद्धिमत्ता
रही है।
COVID-19 की अनिश्चितता के दौरान, सबसे ज्यादा प्रभावित वे लोग हैं, जिनके पास संसाधन,
जानकारी और शिक्षा सबसे कम हैं। यह अज्ञानता, कि
वर्षों और पीढ़ियों की उपेक्षा और आर्थिक एवं विकास-सम्बन्धी बैकलॉग का सामना
उन्होंने कैसे किया है, उनकी मुसीबतों को बढ़ा रहा है।
हमें याद रखने की जरूरत है कि लॉकडाउन-पश्चात्, उनके स्तर के अनुसार जितना बच्चों को सीख लेना चाहिए
था, वहां तक पहुँचने के लिए, उन्हें
अतिरिक्त सहयोग और समय की आवश्यकता होगी। हमारी टीम ने निर्णय लिया है, कि कुछ छुट्टियां कम की जाएं और विभिन्न सामग्रियों एवं व्यावहारिक
गतिविधियों के माध्यम से शिक्षण पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
सूचना-अभाव
आदिवासी लोगों के लिए जो असली नुकसान का कारण रहा है और अभी भी है, वह है विश्वसनीय और उपयोगी जानकारी का अभाव।
दुर्भाग्य से कोरोनोवायरस के इस समय में, स्थिति बदली नहीं
है, बल्कि और अधिक खराब हो गई है। उनमें से बहुत कम लोग इस
महामारी, इन हालात के कारण और इससे बाहर निकलने के बारे में
सही सही समझ बना पाए हैं।
हालाँकि स्थानीय प्रशासन बुनियादी जानकारी देने के लिए कड़ी मेहनत
करता रहा है, लेकिन उनमें से बहुतों के
लिए तस्वीर साफ नहीं है। पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा से पहले, जब
मैंने गांवों का दौरा किया, तो मैंने सुना कि कैसे स्थानीय
पुजारी और झाड़-फूंक करने वाले ओझा और ग्रामीण इस बीमारी की व्याख्या करके भ्रम में
बढ़ोत्तरी कर रहे हैं।
दुनिया से अलग-थलग, इन दूरदराज के आदिवासी
गांवों के निवासी टेलीविजन चैनलों और अखबारों से वंचित हैं। उचित जानकारी के
साधनों का अभाव इनकी वास्तविक गरीबी है और हमेशा से रही है।
इन हालात में, अक्सर यह खयाल आता है कि यह एक बुरा विचार नहीं होगा, यदि उन सभी को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) से मिलने वाले राशन में से, 2 किलो गेहूं (जिसे यहाँ हमारे लोग शायद ही खाते हैं, वह सिर्फ जानवरों के लिए है) के बदले, एक अखबार या पत्रिका दे दी जाए। आखिरकार, दिन में दो बार के भोजन के अलावा, हम में से प्रत्येक को, बुद्धि और मन के लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है।
समीक्षा गोडसे ने पुणे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर किया है। वह आदिवासी बच्चों के लिए घर और स्कूल के बीच की खाई को पाटने के लिए, बहुभाषी शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करके, आजीविका और शिक्षा के क्षेत्र में, पिछले 11 वर्षों से ‘लोक बिरादरी प्रकल्प’ के साथ काम कर रही हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?