एक समुद्रीय वैज्ञानिक ने तट के पास रहने वाले समुदायों को, मैंग्रोव और समुद्री घास के वातावरण सम्बन्धी तंत्र के बारे में जागरूकता और उससे अतिरिक्त आय के माध्यम से, संरक्षण के प्रयास में शामिल किया
मछुआरे राजेंद्रन (54) ने
तमिलनाडु के उत्तर पल्क खाड़ी के किजातोट्टम गांव में लगाए गए मैंग्रोव के पौधों की
विभिन्न प्रजातियों के बारे में आसानी से बता दिया| पल्क बे
भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर 15,000 वर्ग किमी का
जैव-विविधता का केंद्र है। राजेंद्रन जानते हैं कि कौन सी मैंग्रोव प्रजाति तूफान
के सामने टिक सकती है| वह यह भी जानते हैं, कि किसी मैंग्रोव जंगल में कौन सी मछलियां और स्क्विड पनपती हैं।
दूसरी ओर, मुरुगन
आदैकथावन गांव में अपने द्वारा लगाए गए, समुद्री घास के बारे
बताते हैं, कि कौन सी मछलियाँ इस वातावरण में प्रजनन करती
हैं और कौन सी भोजन के लिए आती हैं| यह भी कि क्यों समुद्री
घास के मैदानों को बचाना जरूरी है।
इन लोगों को और उत्तरी पल्क खाड़ी के दूसरे मछुआरों को, मैंग्रोव और समुद्री घास जैसे समुद्री वातावरण के
तंत्र की और इससे उनके जीवन और आजीविका पर पड़ने वाले प्रभाव की अच्छी समझ है।
वेदराजन बालाजी के पिछले एक दशक के निर्बाध प्रयासों ने इस क्षेत्र के मछुआरों को
जमीनी स्तर के संरक्षणवादी बना दिया है।
तटवर्ती जीवन को समझना
बालाजी का पानी के नीचे की दुनिया से 18 साल
की उम्र में पहली बार वास्ता पड़ा था। कुछ पारंपरिक मछुआरे उन्हें तंजावुर जिले के
सोमनाथपटीना में पानी के नीचे के दृश्य दिखाने के लिए ले गए। छात्र बालाजी ने,
समुद्री जीवन का दस्तावेजीकरण करने के लिए, एक
टिन बॉक्स और एक छोटे मछली टैंक की मदद से पानी के नीचे काम कर सकने वाला कैमरा भी
बनाया।
अपने कॉलेज के दिनों में, बालाजी
ने एक स्थानीय गैर-सरकारी संगठन के साथ वालंटियर के तौर पर काम किया, जहाँ उन्होंने तटीय समुदायों के साथ नजदीकी से बातचीत की। इससे उन्हें
समुद्र किनारे आने वाली रोजमर्रा की चुनौतियों को समझने का मौका मिला।
उन्होंने, 2002 में समुद्री जीव विज्ञान में सनातकोत्तर शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने तटीय समुदायों और समुद्र के बीच के सम्बन्ध को और गहराई से समझने
के लिए, भारत के दक्षिण-पूर्वी तट के साथ- साथ 1,200 किलोमीटर मोटरबाइक यात्रा की।
पारंपरिक ज्ञान
बालाजी ने VillageSquare.in को बताया – “इस यात्रा ने मेरा जीवन बदल दिया। मैं मैंग्रोव, समुद्री घास और मूंगा-चट्टानों के वातावरण तंत्र के बारे में जागरूकता फैलाना चाहता था, जो समुद्र तट और समुद्री जीवन की रक्षा करते हैं। मैंने पर्चे छपवाए और उन्हें स्कूलों और पंचायत की मीटिंगों में वितरित किया और अपने विचार साँझा किए।”
इन चर्चाओं से युवा बालाजी को, भारत
के दक्षिण-पूर्वी तट के मछुआरा समुदायों और समुद्री जीवन के बारे में व्यावहारिक
ज्ञान प्राप्त करने में सहायता मिली। मछुआरों से उन्हें कई ऐसी प्रजातियों के बारे
में जानकारी मिली, जो धीरे-धीरे समुद्र से गायब हो रहे थे।
बालाजी कहते हैं – “ उदाहरण
के लिए, सुधुन्धु नामक मछली पारंपरिक रूप से गर्भवती महिलाओं
को अतिरिक्त पोषण के रूप में दी जाती थी| लेकिन यह मछली
हमारे समुद्र से गायब होना शुरू हो गई थी, क्योंकि जिस मीठे
पानी में वे प्रजनन करती थी, वह कम हो रहा था।
जागरूकता अभियान
हालाँकि उन्होंने कार्यशालाओं और
सेमिनारों के माध्यम से इन तीन समुद्री वातावरण-तंत्रों के संरक्षण के महत्व के
बारे में जागरूकता फैलाना जारी रखा, लेकिन यह 2004 की सुनामी थी,
जिसके कारण उनके संदेश को बल मिला, क्योंकि
लोगों ने जैव-ढाल के रूप में मैंग्रोव के मूल्य को समझा।
अपने डॉक्टरेट शोध कार्य के दौरान भी,
बालाजी ने पल्क खाड़ी में मैंग्रोव्स लगाने के लिए, वन विभाग और स्थानीय समुदायों के साथ काम करना
जारी रखा। उन्होंने 2007 में फिर से वहां यात्रा पर जाने का
फैसला किया और इस बार, उन्होंने समुद्र का रास्ता चुना।
समुद्री वातावरण-तंत्र के संरक्षण और मछली पकड़ने के टिकाऊ संतुलन के प्रति प्रचार करने के लिए, रामेश्वरम से चेन्नई तक पूर्वी तट के साथ-साथ 600 किलोमीटर नाव से गए, जो उन्होंने खुद ही चलानी सीखी थी। उन्होंने बताया – “अकेले समुद्र का सामना करना एकदम अलग था। यदि स्थानीय मछुआरों ने मुझे लहरों की सवारी या हवा की दिशा को समझने में मदद न की होती, तो मेरे लिए ऐसी यात्रा पूरी करना असंभव था।”
वह रोज 5 से
7 घंटे तक नाव चलाते और फिर तट पर लौट कर, जो भी गांव पड़ता, वहां समुद्री वातावरण-तंत्र के
संरक्षण के बारे में बात करते था। उन्होंने मछुआरों के साथ नेटवर्क बनाकर, उन्हें बॉटलनोज़ डॉल्फिन, व्हेल आदि दिखाई पड़ने पर
जानकारी देने के लिए राज़ी करते थे| धीरे-धीरे इन मछुआरों ने,
लुप्तप्राय समुद्री डुगोंग (समुद्री गायों) जैसी समुद्री
स्तनधारियों को बचाने और उनके फंस जाने पर जानकारी देकर वन विभाग का सहयोग करना
शुरू कर दिया।
समुद्री घास वातावरण-तंत्र
(इकोसिस्टम)
नौका यात्रा के दौरान उन्होंने महसूस
किया,
कि हालाँकि लोग मैंग्रोव और मूंगा-चट्टानों के बारे में जानते थे,
लेकिन उतने ही महत्वपूर्ण और तेजी से गायब हो रहे समुद्री घास
सम्बन्धी वातावरण-तंत्र के बारे में ध्यान नहीं दिया जा रहा था। समुद्री घास के
मैदान, बढ़ते ज्वार से तटों को बचाने और डुगोंग जैसी कई
समुद्री प्रजातियों को शरण प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
बालाजी ने पल्क खाड़ी में समुद्री घास
के वातावरण-तंत्र का एक ध्वनिक सर्वेक्षण किया और बाद में जीआईएस उपकरण की सहायता से इस क्षेत्र में समुद्री घास और मैंग्रोव के
नक़्शे तैयार किए। यह तब काम आया, जब उन्होंने बाद में इन
वातावरण-तंत्रों के संरक्षण के लिए काम करना शुरू किया। जब भी कोई शोध कार्य करते,
बालाजी यह सुनिश्चित करते कि विज्ञान का धरातल पर उद्देश्यों की
पूर्ति के लिए उपयोग हो और स्थानीय लोगों को इसकी जानकारी हो।
बालाजी ने बताया – “जब हमें पल्क खाड़ी में समुद्री घास को कृत्रिम रूप से बहाल करने के लिए
एक परियोजना मिली, तो हमने स्थानीय महिलाओं को प्रशिक्षित
किया, कि वे एक फ्रेम में समुद्री घास के प्लग लगाएं,
जिन्हें मछुआरे गोता लगाकर चुनिंदा स्थानों पर लगा दें। स्थानीय
लोगों को शामिल करना महत्वपूर्ण था, क्योंकि लगाए गए समुद्री
घास को वे अपना समझें और स्वयं अनुभव कर सकें कि वातावरण-तंत्र के चारों ओर
समुद्री जीवन कैसे पनपता है।”
अतिरिक्त आजीविका
बालाजी द्वारा स्थापित समुद्री संरक्षण, जागरूकता और अनुसंधान संगठन (ओएमसीएआर) फाउंडेशन, मैंग्रोव के पौधे उगाने के लिए पारंपरिक झींगा मछुआरी महिलाओं के साथ भी काम करती है। उनके प्रयासों के बदले, उनकी मछली पकड़ने से होने वाली आय के अलावा आमदनी बढ़ाने के लिए, OMCAR फाउंडेशन उन्हें पशुधन प्रदान करती है।
बालाजी बताते हैं – ”
जैविक खेती की ही तरह, हमें पारंपरिक, छोटे पैमाने पर और दीर्घकालिक मछली पकड़ने की तकनीक पर वापस जाने की जरूरत
है। दुर्भाग्य से, ये छोटे मछुआरे हमारे समुदाय में सबसे
कमजोर स्थिति में हैं। इसलिए, अत्यधिक मछली पकड़ने की जरूरत
से बचाने के लिए, हम पशुपालन या जैविक खेती जैसे आजीविका
विकल्प के लिए उनकी मदद करते हैं।”
पल्क खाड़ी के गांवों में मछुआरों की
मदद से,
75,000 मैंग्रोव पौध लगाने के अलावा, OMCAR फाउंडेशन
ने लगभग 60,000 छात्रों को समुद्री संरक्षण को आगे बढ़ाने के
लिए संपर्क किया है।
बालाजी का मानना है कि तटीय
समुदायों को शामिल किए बिना संरक्षण सम्बन्धी किसी चर्चा का कोई मतलब नहीं होगा।
बावजूद इसके कि बड़े मछली पकड़ने वाले ट्रॉलरों से संवेदनशील
समुद्री वातावरण-तंत्र और उसके साथ-साथ, डुगोंग जैसी
लुप्तप्राय प्रजातियों के नष्ट हो जाने का खतरा है, बालाजी
को उम्मीद है कि पारंपरिक मछुआरे इस संतुलन को बहाल कर लेंगे।
कैथरीन गिलोन
चेन्नई स्थित एक पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?