एक अनौपचारिक शिक्षिका, जिसने समाज में अपनी पहचान बनाने और गरीब आदिवासी बच्चों को शिक्षा का बेहतर विकल्प देने की कोशिश की| उनकी इस कोशिश में बाधाएं तो बहुत सारी आई पर इनके मजबूत इरादों के सामने टिक ना पाई। अपनी प्रतिबद्धता के साथ आज शीला देवी अपने गांव के कई बच्चों को पढ़ा रही हैं।
एक दिन की
बात है, फील्ड में विजिट के
दौरान एक महिला को लाठी के सहारे कंधे पर थैला लटकाये कहीं जाते देखा। उत्सुकतावश
उनसे बात करने का मन किया। फिर देखा तो उन्हें बच्चों ने ”मैडम,
मैडम” बोलते हुए घेर लिया। उन्हें ऊंचे स्थान
पर बने एक मकान पर चढ़ने में थोड़ी दिक्कत हो रही थी| फिर
उन्होंने ऊपर बंधी घंटी बजायी । सभी बच्चे एक साथ लाईन में प्रार्थना के लिए खड़े
हो गए। उसके बाद उनकी कक्षा शुरू हुई| उनका पाठ्यक्रम बिलकुल
अलग था| ना तो रट्टे मारने की जरुरत और ना ही जोर-जबरदस्ती
से पढ़ाने की कोशिश। बच्चों के चेहरे की ख़ुशी साफ़ बता रही थी कि उन्हें भी पड़ने
में मज़ा आ रहा है।
पूछने पर
पता चला कि उनका नाम शीला देवी है, उम्र 35 वर्ष, जो
उदयपुर जिले से 32 किलोमीटर दूर गोज्या गाँव की रहने वाली
हैं। वे पोलियोग्रस्त हैं और लाठी के सहारे ही चलती हैं। गोज्या गांव अरावली पर्वत
श्रृंखला के बीच बसा, दूरस्थ और वंचित गांवों में से एक है।
पहाड़ी और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र होने के कारण, यहाँ के लोगों
को जीवन यापन के लिए संघर्ष करना पड़ता है। यहाँ की 84% आबादी
कृषि आधारित है| ज्यादातर पुरुष खनन, निर्माण
या कृषि में मजदूरों के रूप में काम करने के लिए दूर के शहरों की ओर पलायन करते
हैं।
बच्चों की
देखभाल करना, घर चलाना, खेत व जानवरों की देखरेख करना और गांव में मजदूरी करना आदि कार्य महिलाओं
के हिस्से में आता है। इस क्षेत्र में, स्वच्छ पेयजल और
शौचालय की कमी के साथ साथ (खुले में शौच अभी भी एक समस्या है), छोटे बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा की
बुनियादी सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। इस पुरुष-प्रधान समाज में
महिलाओं का निरक्षर होना, घरेलू हिंसा का मुख्य कारण है|
वहीं दूसरी ओर, उनके लिए सामाजिक, राजनीतिक और वित्तीय स्वतंत्रता का अभाव दिखता है।
व्यक्तिगत
जीवन में, शीला जी का परिवार
समस्याओं के समय में ढाल बनकर उनके साथ हमेशा खड़ा रहा। शीला जी की दूसरी पत्नी के
रूप में शादी गोज्या में ही हुई। उनके पति तुलसीराम जी भी उनकी तरह पोलियोग्रस्त
हैं। उनकी पहली पत्नी रम्बा जी और शीला जी संयम से एक दूसरे के साथ रहती हैं।
दोनों के बीच कोई मन मुटाव देखने को नहीं मिलता। दोनों ने आपस में घर एवं बाहर के
काम भी बांट लिए हैं। जो काम शीला जी कर सकती हैं, वो उन्हें
निपटा देती हैं| बाकि का काम रम्बा जी संभाल लेती हैं। शीला
जी के 2 बच्चे भी हैं। यह परिवार ‘एकीकृत
परिवार’ का अच्छा उदाहरण है और दूसरों के लिए प्रेरणा बना
हुआ है।
भूमिका
आदिवासी
समुदाय से होने की वजह से, शीला जी खुद भी गुणवत्तापूर्ण
शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाई। इस तथ्य को समझने और अपने क्षेत्र में बच्चों के
संघर्ष में मदद करने के लिए, शीला जी ने अनुदेशक का पद लेने
का फैसला किया। शुरुआत में, निचला गोयरा नामक गांव में
शिक्षा केंद्र पर बच्चों को पढ़ाती थी। बच्चों के लिए स्कूल की सुविधा गोज्या गांव
में नहीं होने से, समुदाय ने अनौपचारिक शिक्षा केंद्र के लिए
सन 2001 में सेवा मंदिर को प्रस्ताव दिया।
संस्था द्वारा गोज्या गांव में अनौपचारिक
शिक्षा केंद्र खोला गया। शादी के बाद, शीला जी को सन 2008 में गोज्या
केंद्र की अनुदेशक के रूप में नियुक्त किया गया। एक अनुदेशक के रूप में समुदाय का विश्वास
और सम्मान हासिल करने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी। अपनी समस्याओं के लिए
शीला जी ने स्वयं ही खड़े होने का फैसला किया। शिक्षा के क्षेत्र में 15 साल पहले शुरू हुई शीला जी की लड़ाई, आज तक जारी है।
शीला जी को केंद्र
पर नियमित रूप से आने एवं प्रशिक्षण हेतु उदयपुर एवं प्रखंड पर जाने आने में भी
दिक्कत होती थी। कई बार पहाड़ी से लकड़ी के सहारे चढ़ना उतरना, गाड़ी
पकड़ना, आदि समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। परन्तु फिर
भी शीला जी काम उन्हें ख़ुशी और गर्व प्रदान करता है। उनकी कक्षा में 40 बच्चे नियमित उपस्थिति बनाए रखते थे और साथ ही बच्चों के शैक्षणिक
प्रदर्शन से उनके अभिभावक बहुत खुश थे। हर साल इस केंद्र से आगे की पढाई के लिए
सरकारी स्कूल में औसतन 6 बच्चे शामिल होते थे। शीला जी कहती
हैं कि “मुझे खुशी है कि मैं इन बच्चों के बेहतर भविष्य
बनाने में मदद कर रही हूँ।” यह भी बताती हैं कि पिछले 15
वर्षों में बच्चों को पढ़ाने से उनका आत्मविश्वास काफ़ी बढ़ा है।
स्माईल
प्लीज !
सेवा मंदिर के सभी
केंद्रों में, उपस्थिति और संचालन दर्ज करने के लिए कैमरा निगरानी
प्रणाली की व्यवस्था है। जिसे MIT, और नोबल पुरस्कार विजेता
प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी और एस्टर डुफलो के साथ साझेदारी में विकसित किया है|
इस प्रणाली के कारण छात्रों और शिक्षकों की उपस्थिति बढ़ी है। उसी
प्रणाली की एक झलक शीला जी के केंद्र की यह तस्वीर है।
हालांकि, कुछ
वर्षो बाद गांव में सरकारी स्कूल खुलने पर, बच्चो को स्कूल
से जोड़ दिया गया। अब यहाँ केंद्र की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए
केंद्र बंद करना पड़ा । करीब 2 माह बाद, 1 से 6 वर्ष के बच्चों के लिए बालवाड़ी केंद्र (Pre-school
centre) खोला गया। केंद्र के बालवाड़ी संचालिका के पद पर इंटरव्यू
में शीला जी का चयन हुआ। पिछले 2 वर्ष से अब तक, वे बालवाड़ी संचालिका के रूप में कार्य कर रही हैं।
वे अब 1 से 6 वर्ष के बच्चों को
शाला-पूर्व शिक्षा की तैयारी करवा रही हैं। इस कार्य की वजह से माताओं को भी आराम
मिला है| वे बेफिक्र होकर काम कर सकती हैं या मजदूरी पर जा
सकती हैं। अतः शीला जी का बच्चों के प्रति लगाव और शिक्षा के साथ जुड़ाव निरंतर बना
हुआ है।
संघर्ष और जीत
बच्चों को पढ़ाना
पसंद करने वाली एक मेहनती महिला, शीला जी को अपने परिवार, केंद्र
एवं समाज में अपना स्थान बनाने के लिए कई बाधाओं का सामना करना पड़ा। उनकी नियमित
दिनचर्या, व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक रीति-रिवाज़ों में काफी
मुश्किलें आई।
पोलियो एक बहुत ही
भीषण संक्रामक बीमारी है। यह बीमारी बच्चे के किसी भी अंग को जिंदगी भर के लिये
कमजोर कर देती है। पोलियो से हुए लकवे का इलाज नहीं हो सकता। इसलिए, पांच
साल तक के बच्चों को पोलियो की खुराक जरूरी है। सरकार द्वारा घर जाकर पांच साल से
छोटे बच्चों को पोलियो की ड्रॉप पिलाने का अभियान भी शुरू किया गया।
लेकिन इस अभियान
के दौरान जानकारी के अभाव से ग्रामीण एवं आदिवासी समुदायों के लोग अपने बच्चों को
पोलियो ड्रॉप पिलाने से हिचकिचाते थे। उनका मानना था कि यह दवाई उनके बच्चों में
नपुंसकता और बांझपन को बढ़ावा देगी। माता पिता से हुई चूक की वजह से बच्चे के रूप
में ‘पोलियो’ (poliomylitis) संक्रमण से शीला जी का जीवन
भी संघर्षमय हो गया। इस रोग से उनका पैर काफी कमजोर एवं पतला हो गया, जिससे वे चलने-फिरने में असमर्थ हो गई। फिर उन्हें लाठी के सहारे चलना
पड़ता था।
यहाँ, इस तथ्य को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि एक महिला
होने के साथ-साथ शीला जी ने बच्चों को पढ़ाने जैसा मुश्किल काम चुना है। आज भी
उनके क्षेत्र में आमतौर पर महिलाएं अपना घर नहीं छोड़ती हैं, लेकिन शीला जी के कार्य में बच्चो को घर-घर जाकर जोड़ना भी एक जिम्मेदारी
है। भौगोलिक इलाकों की ऐसी बिखरी प्रकृति उनके काम को और कठिन बना देती है।
जो महिला अपने घर से बाहर काम करने के लिए निकलती है,
उसे लोगों की टीका-टिप्पणी या गाली-गलौच का सामना करना पड़ता है। कामकाजी महिला
लोगों की आँखों में कंकड़ की तरह होती है, जिससे
महिलाओं का लोगों के बीच काम करना और भी मुश्किल हो जाता है। अपनी शारीरिक सीमाओं
के कारण गतिशीलता में चुनौतियां होने के अलावा, गांव के लोगो
द्वारा उनकी यह स्थिति उपहास का कारण भी थी। लोग उन्हें ताना भी मारते थे, कि ”रहने दो, तुमसे नहीं
होगा।”
परन्तु शीला जी इसके बावजूद भी झुकी नहीं और हालात का डटकर सामना
किया। शुरू में यह मुश्किल था, लेकिन समय के साथ वह
समस्या का सामना करती रही। उनका दृढ़ विश्वास लोगों को पिघला देता और वह काम करना
जारी रखती। अब, वे उनके काम का समर्थन करते हैं और सराहना भी
करते हैं। एक आम व्यक्ति के लिए यह सब आसान काम हो सकता है, लेकिन
लड़खड़ाते कदमों के साथ यह संघर्ष काफी बढ़ जाता है।
इन कठिनाइयों के अलावा, शुरू में
उनके ससुराल वाले उनके घर के बाहर काम करने के लिए सहमत नहीं थे। संयोगवश, उस समय उनके पति बेरोजगार थे| वे शीला जी के घर से
बाहर काम करने के सहमत हो गए। वे बताती हैं कि उनके माता-पिता कहा करते थे,
कि ”असंभव बस मन की एक स्थिति है।” उन्होंने साबित किया की मन शरीर से ज्यादा शक्तिशाली है।
सेवा मंदिर से सहयोग
दक्षिणी राजस्थान
में सेवा मंदिर, शीला जी जैसी कई महिलाओं को उनकी क्षमता बढ़ाने में
मदद करता है। उनके व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों में साथ आने के तरीके भी बनाता
है। शीला जी की लड़ाई उन्होंने अकेले ही शुरू की और धीरे धीरे उनके साथ लोग जुड़ते
गए। आज शीला जी के प्रयास की वजह से, उनके गाँव में बच्चों
के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के माध्यम उपलब्ध हैं।
बदलती तस्वीरें
शीला जी ने अपने
काम से गाँव में पहचान बना ली है। लोग काम के लिए उनकी सराहना करते हैं। गोज्या
गांव में उनको ‘मैडम’ के नाम से बुलाते हैं।
शीला जी को इस बात की बेहद ख़ुशी है। शीला जी कई अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा का
श्रोत बन गई हैं। बाधाओं के बाद भी उन्होंने यह सम्मान अर्जित किया है। थोड़ा देर
से ही सही, पर शीला जी की मंजिल अब और दूर नहीं।
ज्योति राजपूत टाटा
सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई से सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर हैं। ज्योति
राजपूत, मई 2014 से सेवा मंदिर के
महिला एवं बाल विकास कार्यक्रम के साथ निकटता से जुडी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?