तालाबंदी के बीच काम के अभाव में, दूरदराज के गांवों में कई महिलाओं के पास अपने परिवार का पेट भरने के लिए आवश्यक सामग्री भी नहीं थी। साथी महिलाओं ने योगदान करके एक फूड बैंक बनाकर उनकी मदद की
एक विधवा लक्ष्मी देवी, अपने
तीन बच्चों के साथ जावर गाँव में रहती है, जिनमें से दो एक
सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। वह एक अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित है और उसके पास
कोई जमीन नहीं है। वह और उसका परिवार खेत मजदूरी और मनरेगा के निर्माण कार्य करते
हैं। उसके परिवार की औसत मासिक आय लगभग 3,000 रुपये है।
उदयपुर जिले की गिरवा तहसील का जावर
गाँव ऐसे क्षेत्र में है, जहाँ प्रवासी मजदूरों की संख्या अधिक है। जावर और
आसपास के गांव दूरदराज होने के साथ-साथ, उदयपुर और अहमदाबाद
को जोड़ने वाले राजमार्ग से और बहुत आगे हैं। आबादी 3,213 है,
और घर फैले हुए हैं।
भलाड़िया गांव की शांता देवी और उनका
परिवार अपनी 0.25 हेक्टेयर (0.6 एकड़) जमीन
में खेती करते हैं। वह मजदूरी और मनरेगा के काम करती है। उसके तीन बच्चे एक सरकारी
स्कूल में पढ़ते हैं। उनके परिवार की औसत मासिक आय लगभग 4,000 रुपये है।
उदयपुर से लगभग 40 किमी दूर स्थित,
सरद प्रशासनिक ब्लॉक के भलाड़िया गाँव में 250 परिवार
हैं। लगभग 95% आबादी अनुसूचित जनजाति से सम्बन्ध रखती है।
खेती और मजदूरी आजीविका का मुख्य साधन हैं।
गाँव अविकसित हैं। जमीन के ऊँची-नीची
होने और सिंचाई सुविधाओं के अभाव में, किसान केवल गुजारे के लिए खेती करते हैं। लगभग 45%
परिवार अपनी आजीविका कमाने के लिए उदयपुर, अहमदाबाद
और सूरत को पलायन करते हैं। इसलिए, जो महिलाएं पीछे रहती हैं,
वे अपने परिवार की देखभाल करती हैं।
लॉकडाउन से समस्याएँ
गांवों में मूलभूत सुविधाओं और जरूरी
सामान का अभाव है। उन जगहों से संपर्क के साधन अच्छे नहीं हैं, जहां से ग्रामीण जरूरी सामान ले सकते
हैं। जब 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो बहुत से लोगों के लिए गुजारा, एक वास्तविक चुनौती
बन गया।
शांता देवी के पति कालूलाल मीणा खराब
स्वास्थ्य के कारण काम नहीं करते। मजदूरी उनकी आमदनी का एकमात्र स्रोत है। शांता
देवी के पास, लॉकडाउन के दौरान अपने परिवार को खिलाने के लिए,
कोई भोजन सामग्री या जरूरी सामान नहीं है। वह कहती हैं – “एक परिवार के रूप में हमारे लिए यह सबसे बुरा समय था। हमारी दैनिक जरूरतों
को पूरा करने के लिए कोई आमदनी नहीं थी।”
शांता देवी की कहानी भलाड़िया और दूसरे
गांवों की महिलाओं के समान ही है। ग्रामीणों को उनके जन-धन खाते में 500 रुपये की सरकारी सहायता आई। सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के
माध्यम से प्रत्येक परिवार को गेहूं प्रदान करती है। ग्रामवासी अन्य जरूरी सामान
नहीं खरीद सकते थे; और फिर पीडीएस का गेहूं जो उन्हें मिला,
वह केवल 15 दिन चला।
महिला समूह
राजस्थान में स्थित, एक गैर-लाभकारी संगठन, मंजरी फाउंडेशन ने, हिंदुस्तान जिंक के कॉर्पोरेट
सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर) से मिले आर्थिक सहयोग से, 26,000 से अधिक महिलाओं को एकजुट किया और उनके 2,163 स्व-सहायता
समूह बनाए। प्रत्येक में 10 से 15 स्व-सहायता
समूहों के साथ, 189 ग्राम संगठनों (वी.ओ.) और छह फेडरेशन
गठित किए|
सखी परियोजना के नाम से संचालित यह
पहल,
महिला सदस्यों के सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण के उद्देश्य से की
गई। ग्राम संगठनों ने समूहों को एक-दूसरे से सीखने और सामुदायिक समस्याओं के
समाधान के लिए एक-दूसरे का सहयोग करना सीखने में मदद की।
खाद्य संग्रह
लॉकडाउन के दौरान जब महिलाओं ने समूहों
की बैठक में खाद्य सुरक्षा पर चर्चा की, तो उन्हें एक फूड बैंक बनाने का विचार आया। महिलाओं ने
प्रत्येक घर से अनाज इकट्ठा करने और उन कमजोर परिवारों की सहायता करने का फैसला
किया, जो लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे।
समूह की एक सदस्य के अनुसार – “हम जानते थे कि कई गरीब लोग जरूरी सामान खरीदने की स्थिति में नहीं होंगे।”
महिलाओं ने फैसला किया कि कोई भी भूखा नहीं रहना चाहिए। उन्होंने
फैसला किया कि जो जितना योगदान दे सके दे, चाहे मात्रा कितनी
भी हो। बैठक में महिलाओं ने फैसला किया, कि वे आर्थिक सहयोग
देने वाली एजेंसी, पंचायत और गैर-समूह सदस्य ग्रामीणों से भी
मसाले, तेल, प्रसाधन सामग्री, सैनिटाइज़र इत्यादि प्राप्त करने में मदद मांग सकते हैं।
स्व-सहायता समूह सदस्यों ने 16 अप्रैल
से, उन लोगों से गेहूं, चावल, दालें आदि इकट्ठे किए, जो योगदान देने की स्थिति में
थे। उन्होंने इकठ्ठा की गई सामग्री को ग्राम संगठन में जमा किया, जहाँ इसका हिसाब किताब रखा गया। ज़ावर और भलाड़िया के ग्राम संगठनों ने
संभावित लाभार्थियों की एक सूची तैयार की।
खाद्य सुरक्षा
ग्राम संगठनों ने एकल महिला परिवारों, विधवाओं, विशेष
जरूरतों वाले लोगों, भूमिहीनों, और जो
बीमार परिवार के सदस्यों की देखभाल कर रहे थे, जैसे लोगों की
सहायता करने का फैसला किया। जावर गांव के नारी शक्ति स्व-सहायता समूह की एक सदस्य,
दुर्गा ने कहा – “यह एक छोटा सा योगदान
है। लेकिन इन कोशिशों से परिवारों को लॉकडाउन के संकट से निपटने में मदद मिलेगी।”
जावर गांव की बनवारी बाई के अनुसार – “जब लॉकडाउन हुआ, तो हमारे पास कमाई के लिए कोई
मजदूरी का काम नहीं था और हमें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। हमारे घर में कोई
अनाज नहीं बचा था। तब मेरे ग्राम संगठन के सदस्यों ने मेरे परिवार को 30 किलो अनाज दिया, जिससे हमें काफी मदद मिली।”
हालांकि प्रवासी सदस्य इस समय तक
वापिस आ गए थे, परन्तु उनमें से ज्यादातर के पास नकदी कम ही थी,
और इसलिए समूह से मिली सहायता एक स्वागत योग्य कदम था। दुर्गा ने
बताया – “जावर में हमने सखी फूड बैंक के माध्यम से 15
साथी महिलाओं की मदद की।”
महिलाओं ने प्रत्येक परिवार को 20 से
30 किलोग्राम भोजन सामग्री
वितरित की, ताकि इससे परिवार की लगभग 25 दिन की जरूरत पूरी हो जाए। महिलाओं के प्रयासों के बारे में बताते हुए,
ज़ावर गांव की स्वयंसेवकों में से एक, यशोदा
ने कहा – “हम एक परिवार हैं। अगर हम एक दूसरे की मदद
नहीं करेंगे, तो कौन मदद करेगा।”
नरेश नैन मंजरी
फाउंडेशन में कार्यक्रम निदेशक हैं, और
उदयपुर में स्थित हैं। वह वैगनिंगन विश्वविद्यालय, नीदरलैंड
में डेवलपमेंट स्टडीज़ में शिक्षा के बाद, डेवलपमेंट सेक्टर
में काम कर रहे हैं। संजय शर्मा मंजरी फाउंडेशन में कार्यकारी निदेशक हैं, और धौलपुर में स्थित हैं। एक एग्री-इंजीनियर, संजय
ने हेलर स्कूल, बोस्टन से सस्टेनेबल इंटरनेशनल डेवलपमेंट में
स्नातकोत्तर किया है। विचार व्यक्तिगत हैं।
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हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?