भेदभाव से ग्रस्त समाज की एक साधारण गरीब महिला ने स्थापित किया, महिला सशक्तिकरण और समानता का एक प्रभावी मंच

राजस्थान

एक ऐसी महिला, जिसने बेहद विपरीत परिस्थितियों में होने के बावजूद, एक स्वैच्छिक संस्था से मिले तिनके के सहारे, उफनती गंगा को पार कर लिया और दूसरी महिलाओं के लिए भी प्रशस्त किया सशक्तिकरण एवं समानता का मार्ग

गंगा बाई की इस कहानी की शुरूआत तब हुई, जब उसे अठारह साल से भी कम की उम्र में शादी करके, अपना पैतृक घर छोड़कर पास ही के एक गांव में अपनी नयी ज़िंदगी की शुरुआत करने के लिए आना पड़ा। राजस्थान में बाल विवाह जैसी कुप्रथा का शिकार होने वाली वह अकेली महिला नहीं थी, और न ही गरीबी से त्रस्त और शिक्षा के अभाव में जीने वाले परिवार में बहु बनकर आने वाली पहली महिला थी| किन्तु जिस तरह से उसने अपने स्वयं के जीवन और आसपास के गांवों के वासियों, विशेषकर महिलाओं के लिए प्रयास किए, वे समझने और सीखने के लिए बेहतरीन मिसाल हैं| 

बिना किसी नकारात्मकता का शिकार हुए, गंगा ने अपने पति के साथ मिलकर, जो कुछ भी उनके पास था, मेहनत से उसे सँवारने का काम शुरू किया। कभी स्त्री होने के कारण, कभी अशिक्षा के कारण, गंगा बाई को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक एवं पारिवारिक भेदभाव का सामना करना पड़ा। ये भेदभाव उसके अस्तित्व को खलता तो था, किन्तु उसके खिलाफ आवाज़ उठाने का साहस गंगा नहीं कर पा रही थी।

लेकिन समय के साथ गंगा बाई ने यह समझ लिया था, कि यह सिर्फ उसकी नहीं बल्कि गांव कि अधिकतर स्त्रियों की कहानी थी। गांव में स्त्रियां मानसिक अथवा शारीरिक रूप से प्रताड़ित थी और यह प्रताड़ना महिलाओं को उनके अपने परिवार, खासकर पति एवं समुदाय के सदस्यों से मिलती है। पुरुष प्रधान समाज, लैंगिक असमानता और शिक्षा का अभाव होने के कारण, महिलाएँ अपनी आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर पाती। ऐसे में कानूनी मदद की उम्मीद करना तो लगभग असंभव है, क्योंकि परित्यक्ता स्त्री का यहाँ के समाज में कोई स्थान एवं सम्मान नहीं होता है।

लेकिन समय के ही साथ गंगा के मन में यह तथ्य भी मजबूत हो रहा था, कि इस संसार में पुरुष एवं स्त्री समान हैं, चाहे समाज इसे माने या ना माने। कड़ुए अनुभवों और वक्त के थपेड़ों के साथ उसका यह विचार निश्चय में बदल गया, कि वह समाज में अपना स्थान हासिल कर के ही रहेगी, चाहे उसके लिए उसे कितनी ही मुसीबतों का सामना क्यों ना करना पड़े। उसे इस बात का एहसास था कि उसके समाज में समानता का हक़ हासिल करना आसान नहीं होगा, क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज़ की जड़ें बहुत गहरी थी| परन्तु गंगा बाई हार मानने वाली नहीं थी।

मिलना मार्गदर्शक का

व्यक्तिगत, पारिवारिक और दूसरे सामाजिक हालात से जूझती हुई गंगा बाई, समान अधिकारों की लड़ाई के मुश्किल सफर में सही दिशा के लिए संघर्ष कर ही रही थी, कि उसके सहयोग के लिए एक हाथ आगे बढ़ा। यह हाथ था, समाजसेवी संगठन, सेवा मंदिर, उदयपुर का| गंगा के जज्बे और हिम्मत को देखते हुए सेवा मंदिर ने उसे व्यक्तिगत क्षमता बढ़ाते हुए, सामाजिक योगदान का एक माध्यम सुझाया|

सेवा मंदिर ने गंगा को दाई माँ (midwife) के रूप में अपना कार्य शुरू करने की सलाह दी और इसके लिए उसे प्रशिक्षण प्रदान किया। दाई की भूमिका में गंगा बाई ने गाँव में मातृत्व स्वास्थ्य एवं टीकाकरण की सुविधा उपलब्ध कराई और यह सुनिश्चित किया कि सभी गर्भवती महिलाओं का प्रसव अस्पताल में हो तथा माँ एवं बच्चे को टीकाकरण की सम्पूर्ण जानकारी हो। इस योगदान ने गंगा का गांव के समुदाय में स्थान और मान बढ़ाया|

इसी प्रक्रिया के दौरान, गंगा महिला समूह से भी जुड़ गई और उनके काम और ईमानदारी को देखते हुए, समूह की महिलाओं ने उन्हें अपनी मुखिया चुन लिया| अपने बाहरी दुनिया से जुड़ाव से प्राप्त हुए आत्म-विश्वास के बल पर गंगा लगातार स्वयं भी आगे बढ़ती रही और साथ ही अपनी साथी महिलाओं में भी जागरूकता का संचार करती गई। 

स्वाभाविक विरोध

यधपि गंगा का कार्य महिलाओं एवं समाज के सुधार के लिए ही था, किन्तु समाज के कुछ तत्वों को एक महिला का आगे बढ़ना गवारा नहीं था। वे असुरक्षा की भावना से ग्रस्त थे| ये लोग गंगा को असामाजिक, उपद्रवी एवं अशांति कारक कहने लगे। इनको डर था कि गंगा बाई सदियों से चले आ रहे पितृसत्ता वाले समाज़ को अपने ‘कुविचारों’ से तोड़ना चाहती है। गंगा को दुःख तो हुआ, किन्तु वह अपने रास्ते पर अडिग रही।  

एक महिला समूह की बैठक को सम्बोधित करती गंगा बाई (छायाकार: तरुणा राव)

गंगा के अथक प्रयासों और जनहित के कामों ने महिलाओं में असर दिखाना शुरू किया, जो अब उस पर विश्वास करने लगी और उसके समझाए अनुसार अपने अधिकारों को भी समझने लगी। वे अपनी हर छोटी-बड़ी तकलीफ एवं समस्या के बारे में गंगा से चर्चा करने लगी| गंगा भी अपनी समझ के अनुसार उन्हें परामर्श देने लगी, जिसका ये महिलाएँ सम्मान करती थी।

गंगा बाई की पहचान धीरे-धीरे आस-पास के गांवो में पहुंचने लगी और वो समय भी आ गया, जब सिर्फ महिलाएं ही नहीं, बल्कि आमजन भी अपनी समस्याओं के लिए गंगा से परामर्श करने लगे। इस भूमिका में गंगा ने यह सुनिश्चित किया, कि उसके निर्णय महिला या पुरुष केन्द्रित ना होकर, सर्वहित पर आधारित हों| इसका परिणाम यह हुआ, कि गांव के सभी समुदायों को गंगा पर विश्वास होने लगा और वह महिलाओं की ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ग्रामवासियों की मुखिया के रूप में प्रसिद्ध हो गई।

गंगा बाई की सतत मेहनत का ही फल है, कि आज वह सामुदायिक-मुखिया के पद पर नियुक्त होकर, आस-पास के कई गावों में विकास-कार्य करवा रही हैं। वे 250 से अधिक महिलाओं के साथ जुड़ी हुई हैं| वे उन्हें महिला-अधिकारों, बाल-अधिकारों की जानकारी देने के साथ-साथ विभिन्न सरकारी योजनाओं, जैसे विधवा-पेंशन, अनाथ एवं गरीब परिवारों को आधार-कार्ड से राशन योजना, आदि से उन्हें जोड़ कर लाभान्वित कर रही हैं। वे महिला संबल केंद्र की प्रमुख हैं, और महिलाओं से जुड़ी हर समस्या पर परामर्श देती हैं| साथ ही उन्हें आजीविका के साधनों से जोड़ कर अतिरिक्त आयवर्द्धन में मदद करती हैं।

डायन प्रथा का अंत

डायन प्रथा, एक ऐसी कुप्रथा है, जिसका प्रभाव आज इक्कीसवीं सदी में भी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में देखा जा सकता है। इस प्रथा में गांव की किसी महिला(ओं) पर शापित होने अथवा तांत्रिक शक्तियों द्वारा नन्हे शिशुओं को मारने का अन्धविश्वास किया जाता है। ऐसी महिलाओं का किसी धर्मान्ध व्यक्ति द्वारा अमानवीय तरीके से ‘इलाज’ (बाँध कर रखना, गंजा कर देना, पीटना, स्वमूत्र पिलाना, जलते अंगारे से दाग देना, आदि द्वारा) कराया जाता है। 

हालांकि इस कुरीति को 2015 में गैर-कानूनी घोषित किया जा चुका है, फिर भी कई गावों में आज भी यह प्रथा अवैध रूप से लागू होती देखी जा सकती है। गंगा ने इस कुरीति का पुरजोर विरोध किया और लोगों को इसके बारे में लगातार जागरूक किया| इसी मेहनत की बदौलत गंगा के व आस-पास के कई गावों में लोग आज इस कुरीति के चंगुल से बाहर हो चुके हैं, जिसका सबसे अधिक संतोष महिलाओं को हुआ है।

गंगा बाई ने पिछले 30  वर्षों में कई महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम दिया है, जैसे – राशन की दुकान की स्थापना, मातृत्व एवं शिशु-स्वास्थ सम्बन्धी जागरूकता, समयानुसार टीकाकरण, सरकारी योजनाओं से गांव को जोड़ना आदि। उनके इन्हीं निरन्तर प्रयासों की वजह से आज गांव में शिशु मृत्युदर कम हुई है, बाल-विवाह पर रोक लगी है, विधवा पुनर्विवाह से जुड़े अंधविश्वास दूर हुए हैं और गांव के लोग टोने-टोटके, अन्धविश्वास, नीम-हकीमों के प्रभाव से मुक्त हुए हैं।

गंगा से सहायता लेने वालों में केवल ग्रामवासी ही नहीं हैं| पुलिस, प्रशासन एवं जाति-पंचायत भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर गंगा बाई की मध्यस्थता एवं परामर्श से निर्णय लेते हैं। लोगों को उनपर न्यायसंगत होने का इतना विश्वास है, कि मामला चाहे कितना भी हिंसक और गंभीर क्यों न हो, गंगा बाई द्वारा किया गया न्याय सभी पक्षों को सम्मानीय एवं पूर्ण रूप से मान्य होता है। गंगा बाई का मानना है कि गाड़ी तभी सही चल सकती है जब उसके दोनों पहिये बराबर हों| यही बात उन्होंने महिला और पुरुष की समाज में स्थिति के बारे में साबित करने की कोशिश की है। 

सांझी जाजम – सांझी चर्चा

गंगा बाई की उपस्थिति एवं उनके जागरूक प्रयासों का एक उल्लेखनीय परिणाम यह है कि आज गांव में महिलाएं अपने घूंघट; जोकि उनके मौन एवं समर्पित होने का प्रतीक था, को छोड़ पुरुषों के साथ एक ही जाजम (विचार विमर्श और सामूहिक फैसले लेने के लिए बिछाई दरी या चटाई) पर बैठते हैं, और साथ मिलकर गांव के हित में निर्णय लेते हैं। पुरुषों के साथ एक ही जाजम पर बैठकर समूहों में चर्चा की पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी|

एक जाजम पर बैठ, समानता के आधार पर गांव की प्रगति के लिए विचार विमर्श होते देखना, गंगा बाई की सफलता कविता-पाठ करने जैसा है| गाँव की चौपाल का यह दृश्य राजस्थान के किसी भी व्यक्ति को अचम्भे में डाल सकता है। लेकिन यही राह है इस समाज के प्रगतिशील होने और अपने क्षेत्र को प्रगति के रास्ते पर ले जाने की| इसीलिए, यहां के लोग एक सुर में कहते हैं –

“बहुत हुआ पौरुष का मान, अब रीत भी हुई पुरानी है।   नर और नारी एक समान, धरती सबकी एक समान,  यही बात समझाने की, गंगा बाई ने ठानी है।“

तरुणा राव  सेवा मंदिर, उदयपुर  में कार्यक्रम सहायक (लेखक) के पद कार्यरत हैं। वह राजस्थान तकनीकी विश्वविध्यालय से कंप्यूटर साइंस में स्नातकोतर एवं सर्टिफाइड  डिजिटल मार्केटर है।