मराठवाड़ा के सूखे के बीच उम्मीद के अंगूर-बाग़
महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में सूखे की चपेट में आने के बावजूद, इस क्षेत्र का एक गांव, पानी बचाने के नवीन तरीकों से अंगूर उगाकर हुआ समृद्ध
कदवांची, भारत के पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र के मराठवाड़ा का भाग, धूप से नहाए परिदृश्य में एक नखलिस्तान है| यह उस सूखाग्रस्त क्षेत्र का केंद्र है, जिससे अब लगभग आधा भारत प्रभावित है।
शुष्क गर्मियों का अंत करीब है, किन्तु इसके प्लास्टिक की परत की मदद से पानी रोकने वाले खेत के तालाबों में अभी भी उन अंगूर के बागों के लिए बहुत पानी है, जिन्होंने गांव की किस्मत बदल दी है। गाँव के 455 परिवारों की सालाना आय 1995 के 77 लाख रुपये से बढ़कर 2018 में 75 करोड़ रुपये हो गई है।
अंगूर के बागों ने 1972 के बाद से इस क्षेत्र में सबसे खराब सूखा भी झेला है, एक सूखा जिसने राज्य भर में किसानों की आजीविका को तबाह कर दिया, जिसमें फसल के उत्पादन में गिरावट हुई और बड़ी संख्या में ग्रामवासियों ने पानी और काम की तलाश में पलायन किया है।
टिकाऊ अंगूर के बाग़
कदवांची की इस कायापलट के पीछे कृषि इंजीनियर, पंडित वी. वासरे हैं। वह जिला मुख्यालय जालना में कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) में काम करते हैं। उनका कहना है, कि सभी बागबानी फसलों में, अंगूर सबसे कम पानी मांगता है| वह समझाते हैं, कि यदि दो काम कर लिए जाएं, तो मराठवाड़ा की शुष्क परिस्थितियों में अंगूर उगाना एकदम उपयुक्त है।
एक, खाइयाँ खोदकर बारिश की प्रत्येक बूँद को रोकना, खेत की मेढ़बंदी, पानी का भूमि में रिसाव रोकने के लिए प्लास्टिक की परत के साथ तालाब बनाना और जितनी भी जगह मिले उसपर पेड़ लगाना। दो, केवल ड्रिप पद्यति से अंगूरों की सिंचाई और वाष्पीकरण को कम करने के लिए हर पौधे की जड़ को ढकना।
लेकिन गांव भर के बड़े तालाबों से वाष्पीकरण का क्या? गांव के सरपंच, चंद्राकर शिवाजी क्षीरसागर कहते हैं – ‘ हां, बेशक उनका पानी वाष्प बन कर उड़ता है। लेकिन मार्च से पहले, हमें सिंचाई के लिए इन तालाबों के पानी का उपयोग करने की जरूरत नहीं पड़ती।
तब तक, हमारे पास पर्याप्त भूजल है। और मार्च से पहले, धूप में उतनी गर्मी नहीं होती, इसलिए जून में गर्मियों के चरम पर मेरे तालाब में पर्याप्त पानी है। उम्मीद है मानसून जल्द ही आएगा और सभी तालाबों को फिर से भर देगा।”
चंद्राकर क्षीरसागर एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं, जिन्हें राजनीतिज्ञों और पर्यावरणविदों द्वारा बहुत सम्मानित किया जाता है, और जिनके बारे में शोधकर्ता लिखते हैं। वह कहते हैं कि वे अभी भी पानी की कमी को लेकर चिंतित हैं, क्योंकि अगर बारिश नहीं हुई तो भूजल की भरपाई नहीं होगी। मराठवाड़ा की मौसमी नालों और नदियों की हर बूंद का हिसाब पहले ही लगा लिया है। सभी बांध और जलाशय सूखे हैं। बारिश न होने पर, इंजीनियरिंग के सब काम अपर्याप्त साबित होते हैं।
जालना केवीके के प्रमुख और भारत के शुष्क कृषि के अग्रणी विशेषज्ञ, विजय अन्ना बोराडे के अनुसार, एकमात्र विकल्प फसलों में पानी की मांग को कम करना है। यह केवल सही फसलों के चुनाव और पानी के उपयोग को कम करने के लिए, ड्रिप पद्यति से सिंचाई के द्वारा ही किया जा सकता है। केवल सूखी भूमि वाली मक्का जैसी पारंपरिक फसलें लगाना काफी नहीं है, क्योंकि इनकी बिक्री से किसान को पर्याप्त कमाई नहीं होती है।
उन्हें नकदी फसलों की जरूरत है, और कदवांची में उन्हें अंगूर के रूप में सबसे बढ़िया समाधान मिल गया है। वे केवल खाने वाले अंगूर उगाते हैं, क्योंकि शराब वाले अंगूरों का उत्पादन बहुत कम होता है, हालांकि पास में ही नासिक में बहुत सी शराब फैक्ट्री हैं, जो उन्हें तुरंत खरीद सकती हैं। किसानों को वास्तव में बिक्री को लेकर कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं है – देश भर से व्यापारी अंगूर खरीदने के लिए कदवांची आते हैं।
कदवांची में बढ़ रही समृद्धि के संकेत चारों तरफ दिखाई दे रहे हैं। यह मीलों तक अकेला गाँव है, जहाँ हर जगह नए बंगले बनाए जा रहे हैं। लंबे समय तक सूखे के बावजूद, इस साल 100 एकड़ अतिरिक्त जमीन में अंगूर के बाग़ लगाए गए हैं।
गाँव में किए गए सभी प्रयास सफल हुए हों ऐसा भी नहीं है। वैज्ञानिकों ने कदवांची में अंगूर और अनार, दोनों पर ही प्रयास किए, लेकिन केवल अंगूर ही फले-फूले। जालना और बीड जिलों में बहुत से किसान, जिन्होंने मौसमी के बाग लगा रखे हैं, उन्हें दिक्कत पेश आ रही है, क्योंकि ड्रिप सिंचाई के बावजूद पौधे गर्मी के कारण मुरझा रहे हैं। इस साल वहां फल शायद ही हैं, और ऐसा लगता है, बहुतों के लिए उनका 15 से अधिक वर्षों का निवेश व्यर्थ चला जाएगा।
उदाहरण से सीखना
लेकिन कदवांची की सफलता को हर जगह दोहराया क्यों नहीं जा रहा है? बोराडे के अनुसार, यह जटिल है। हर तरह की मिट्टी अंगूर के लिए उपयुक्त नहीं होती। उस पर, यदि सभी ने अंगूर (या एक समान फसल) उगाना शुरू कर दिया, तो कीमतें गिर जाएंगी।
वासेर कहते हैं – “इसके लिए ग्रामवासियों को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। हमने गाँव के सामूहिक चरागाह में पानी इकठ्ठा करने के लिए खाईयां खोदी; हमने वहां पेड़ लगाए। यह उसका पहला जरूरी कदम है। लेकिन उन सारे प्रयासों का कोई अर्थ नहीं गया होता, यदि कदवांची के निवासियों ने उन पेड़ों और अतिक्रमण से आम चरागाहों को बचाया नहीं होता। जब दूसरे गाँवों के किसान मुझसे पूछते हैं कि क्या कदवांची के लोगों के बराबर उनकी भी आय हो सकती है, तो मैं उनसे कहता हूँ कि यदि वे वैसा करने के लिए तैयार हों। उनमें से ज्यादातर लोग, अपने खेत में प्लास्टिक की परत पर तालाब बनाने के लिए थोड़ी से जमीन का टुकड़ा भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, जो खुद उनके उपयोग के लिए होगा। ऐसे काम नहीं चलता है।”
भारत की केंद्र और राज्य सरकारों की बहुत सी प्रोत्साहन योजनाएं हैं, जो किसानों द्वारा खेत भरने वाली सिंचाई, जिसमें बहुत पानी व्यर्थ होता है, की जगह नियंत्रित ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई को बढ़ावा देती हैं, लेकिन देश के पानी की किल्लत वाले इलाकों तक में इनका लाभ उठाने वाले कम हैं। इसका कारण अर्द्ध-साक्षरता, जागरूकता की कमी, थोड़ी सी भी पूंजी के निवेश के लिए असमर्थता, खेत मजदूर मिलने में कठिनाई, कृषि विस्तार से सम्बद्ध नौकरशाही उदासीन रवैया, इत्यादि का एक जटिल मिश्रण है। स्पष्ट रूप से उस युग में यह जारी नहीं रह सकता, जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण जल की उपलब्धता अधिक अनिश्चित हो गई हो।
जॉयदीप गुप्ता नई दिल्ली में स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
(यह लेख पहली बार “थर्ड पोल” में प्रकाशित हुआ था।)
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