ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के आदिवासी समुदायों ने रासायनिक खाद के बिना, खाद्य उत्पादन की परम्परागत पद्यति को पुनर्जीवित किया है और इसमें व्यावहारिक बदलाव करके आर्थिक रूप से लाभदायक बनाया है।
सुंदरगढ़ जिले के ब्राह्मणमारा गाँव की एक
उत्साही किसान, निर्मला बारला (40)
को गर्व है, कि वह अपने परिवार को बाज़ार में
मिलने वाली अनेक तरह की खाद के उपयोग से उगाए गए अनाज की बजाय, सुरक्षित तरीके से उगाए गए विभिन्न प्रकार के भोजन खिलाती हैं। अपनी 14
एकड़ जमीन में, जिसमें ऊपरी और अपेक्षाकृत
मैदानी जमीन शामिल है, वह किसी भी अप्राकृतिक खाद का उपयोग
किए बिना चावल, बाजरा और सब्जियां उगाती हैं। परिवार की
जरूरतों को पूरा करने के बाद, बची हुई फसल बेचकर थोड़ी कमाई
भी कर लेती हैं।
हालाँकि उसके समुदाय में आमदनी और खर्चों
का हिसाब रखने की कोई परम्परा नहीं रही है, लेकिन उसने हाल ही में एक
पावर टिलर (बिजली/बैट्री से चलने वाला खेती उपकरण) खरीदा है और अपनी बड़ी बेटी की
शादी के सभी खर्चों को बिना कर्ज लिए पूरा किया है। बेटी के विवाह के बाद, छह सदस्यों का उसका वर्तमान परिवार, सिर्फ जैविक
खेती से अच्छा जीवन यापन करता है।
ब्राह्मणमारा में निर्मला अकेली नहीं हैं। गाँव के दूसरे सभी निवासी भी जैविक खेती खेती करते हैं और गाँव के चारों ओर लगभग 100 एकड़ खेत की मिट्टी में कभी भी कोई अजैविक खाद नहीं डाली गई है। एक किसान, जगन्नाथ कौड़ी ने VillageSquare.in को बताया – “हम अपने ही बीज बोते हैं और उसमें बाजार में मिलने वाली खाद इस्तेमाल किये बिना फसल उगाते हैं। हम अपनी फसल को बचाने के लिए रासायनिक कीटनाशकों तक का उपयोग नहीं करते हैं।”
जगन्नाथ और
उनकी पत्नी महारगी ने पिछले मौसम में तेल से भरपूर सफेद सरसों की भारी फसल ली थी।
उन्होंने चावल सघनता पद्यति (एसआरआई) अपनाकर, 20 डिसमिल (0.2
एकड़) जमीन से सरसों की 85 किलोग्राम फसल काटी
है। उन्होंने 20 दिनों के पौधे रोपते समय, पौधों के बीच 2 फुट का अंतर बनाए रखा था।
बहु-फसली
खेती
यह बताते हुए कि इस तरह की पैदावार कैसे
संभव है, जगन्नाथ कहते हैं –
“हमने इन पौधों के बीच प्याज के पौधे लगाए। क्योंकि हमें गर्मियों
में पानी की किल्लत होती है, इसलिए हमने प्याज के लिए गीली
घास से ढकने वाली विधि अपनाई। गीली घास में मौजूद नमी से खेत के दूसरे पौधों को भी
लाभ होता है। इसके अलावा, हमने खेत में मक्का लगाया, ताकि मुख्य फसल सरसों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों को खाने वाले पक्षी
आकर्षित हों।”
30 गाँवों के 2,000 से अधिक किसानों और 3,000 एकड़ ज़मीन के साथ,
जैविक खेती अब सुंदरगढ़ जिले के बालिसंकरा और सदर ब्लॉकों में
लोकप्रिय और लाभदायक कृषि पद्धति बन गई है।
बड़ा बदलाव
हालाँकि इस क्षेत्र के कुछ हिस्सों में जैविक खेती एक परंपरा है, लेकिन इसके तरीकों में कुछ फेरबदल होने के बाद, पिछले कुछ वर्षों में यह आर्थिक रूप से लाभ का सौदा बन गया है। 35 वर्षीय महिला किसान, सोहरमती टोपनो ने VillageSquare.in को बताया – “पहले हम खेत में गोबर की खाद डालकर बीज बोते थे। पैदावार बहुत कम होती थी। कुछेक वर्षों में तो यह हमारे स्वयं के लिए भी पर्याप्त नहीं होती थी।”
स्थानीय लोगों को खेती के सर्वोत्तम तरीकों
का ज्ञान है, जिसमें मिट्टी के साथ-साथ
जलवायु सम्बन्धी परिस्थितियां भी शामिल हैं। जैविक खेती को लोकप्रिय बनाने और
किसानों द्वारा स्वदेशी बीज भण्डार को बढ़ावा देने के लिए काम करने वाले एक
स्थानीय गैर-लाभकारी संस्था, ‘सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड रूरल
एंड ट्राइबल डेवलपमेंट’ (CIRTD) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी,
नट किशोर मिश्रा के अनुसार, बेहतर पैदावार के
साथ-साथ लाभ के लिए, उन्हें कुछ बदलाव करने की जरूरत है।
मिश्रा ने VillageSquare.in को बताया – “CIRTD की भूमिका इस क्षेत्र में जैविक खेती को एक लाभकारी आर्थिक गतिविधि में बदल कर लोकप्रिय बनाने की है। यह महसूस करते हुए कि किसानों को अधिक लाभ पहुँचाने के लिए पैदावार बढ़ाना जरूरी है, हमने किसानों को ‘शून्य-बजट प्राकृतिक खेती’ (zero-budget natural farming) के सिद्धांत के लिए प्रसिद्ध, कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर जैसे विशेषज्ञों के साथ जोड़ा है।”
शून्य बजट
प्राकृतिक खेती
अपने इस तर्क पर जोर देते हुए, कि पौधे के विकास के लिए जरूरी सभी चीजें पौधों की
जड़ के आसपास ही उपलब्ध हैं, पालेकर जोर देकर कहते हैं कि
शून्य-बजट प्राकृतिक खेती के मॉडल में बाहर से कुछ भी डालने की जरूरत नहीं है,
क्योंकि इसका मतलब ही शून्य या लगभग शून्य लागत पर फसल पैदा करना
है।
पालेकर ने इस स्थान का दौरा किया है और
किसानों को गोबर, गोमूत्र, गुड़ एवं बेसन से ‘जीवामृत’ (ठोस और तरल) नामक जैविक खाद और नीम के पत्तों, करंज
के पत्तों, आक के पत्तों और लहसुन को विभिन्न मात्रा में
मिलाकर जैविक कीटनाशक तैयार करने का प्रशिक्षण दिया है।
किसानों, जो ज्यादातर मुंडा और ओरम आदिवासी समुदायों से हैं, ने
गुड़ की जगह, शीरे से भरपूर महुए का उपयोग करके, जैविक खाद और कीटनाशक तैयार किए, क्योंकि यह उनके
आसपास और पास के जंगल में भरपूर मात्रा में उपलब्ध है।
CIRTD की तरफ से किसानों के
साथ तालमेल रखने वाले, अशोक दास कहते हैं – “क्योंकि यहाँ एकल फसल पद्यति से खेती की जाती थी, इसलिए
हमने किसानों को बहु-फसली खेती अपनाने और बाजरा और सरसों जैसी फसलों की खेती के
लिए SRI पद्यति अपनाने का सुझाव दिया।
बदलाव से
सफलता
जैविक खाद लगाने के साथ जोड़े गए इन बदलावों
ने इन आदिवासी महिला किसानों के लिए चमत्कार किया है। एक खुश और संतुष्ट किसान, निर्मला का कहना है – “अपने घर
के पास दो एकड़ जमीन से मुझे पहले केवल एक क्विंटल रागी मिलती थी। इस वर्ष,
SRI विधि और जैविक खाद का इस्तेमाल करने पर, मेरी
फसल 12 क्विंटल तक पहुँच गई है। जहाँ तक खर्चे का सवाल है,
अपनी मजदूरी के अलावा और खाद के लिए 200 रुपये
से भी कम खर्च किया। रागी के अलावा, हमने उसी खेत में कई
सब्जियां भी उगाईं।”
कहानी का सबसे अच्छा पक्ष यह है, कि महिलाएँ नकदी फसलों की बजाए भोजन वाली फसलें उगाना
पसंद करती हैं क्योंकि उनकी प्राथमिकता उनके परिवार के भोजन और पोषण संबंधी
जरूरतों को पूरा करना है।
इस तरह की कहानियाँ पूरे क्षेत्र में मिलती
हैं। गिद्धपहाड़ी गांव की अनीता लाकड़ा (30) ने SRI पद्धति से अपनी एक एकड़ मध्यम-स्तर की जमीन से 1130 किलो
चावल प्राप्त किया। एक और एकड़ में, काले चने जैसी दालें और
टमाटर, बैंगन और लोबिया जैसी सब्जियां उगाई।
पाटकिजोर गांव के 40 वर्षीय गोलापी सा, जो अपनी दो एकड़ जमीन में जैविक खेती करते हैं, ने VillageSquare.in को बताया – “इन बदलावों के होने से, मेरी थोड़ी सी जमीन से मेरे परिवार की आजीविका सुनिश्चित होने के साथ-साथ, मेरे दो बच्चों की शिक्षा के लिए खर्च निकल जाता है।
व्यक्तिगत
से सामूहिक खेती तक
अब इन आदिवासी समुदायों की महिलाएँ, केवल अपनी जमीन में व्यक्तिगत खेती तक ही सीमित नहीं
रहती हैं। उन्होंने जमींदारों और भूमिहीन गरीबों के समूहों का गठन किया है और
पट्टे पर जमीन लेकर विभिन्न प्रकार के पोषण वाली फसलें उगाती हैं, जिनमें बाजरा, दालें और सब्जियां शामिल हैं।
यह मॉडल पारंपरिक आदिवासी प्रणाली ‘पाँच’ की तर्ज पर विकसित किया
गया है, जिसमें आदिवासी पुरुषों की एक टीम पहाड़ी इलाकों में
ढलान वाली भूमि को खेती के लिए तैयार करने के लिए सीढ़ीनुमा बनाने, बांध बनाने एवं समतल करने और सीमित सिंचाई के लिए छोटे जल-संचय ढांचे का
निर्माण मिलकर करती है|
महिला किसानों के इन सामूहिक मॉडल की सबसे
बड़ी विशेषताओं में से एक यह है कि समूह के भूमिहीन गरीब सदस्य को भी फसल का बराबर
हिस्सा मिलता है। इसलिए, इस अवधारणा को व्यापक रूप
से स्वीकृति मिली है और विभिन्न गांवों में अब तक 48 महिला
किसान समूह काम कर रहे हैं।
बुड़ाझारन गांव के ओराम आदिवासी समुदाय की
आठ महिला किसानों के ‘ओलीवा महिला किसान समूह’
को एक ही मौसम में बैंगन, मिर्च, प्याज, टमाटर, लोबिया, तरबूज, सेम, करेला, भिंडी, सूरजमुखी, कद्दू और
पत्तेदार सब्जियों सहित 12 फसलों को एक-एक पंक्ति में उगाने
के लिए कई सम्मान मिले हैं।
ये समूह अठकोशिया आदिवासी एकता मंच नामक
आदिवासी समुदायों के एक बड़े मोर्चे से जुड़े हैं, जो आदिवासियों के वन अधिकारों और जैविक खेती के तहत क्षेत्र का विस्तार
करने के लिए आमजन के लिए काम करते हैं।
बाजार से
संपर्क की जरूरत
नट किशोर मिश्रा के अनुसार, भारत सरकार की पारम्परिक कृषि विकास योजना
(पीकेवीवाई) के अंतर्गत जैविक खेती के लिए 30 कलस्टरों से 1,370
किसानों के लिए 1,500 एकड़ जमीन खेती के लिए
जोड़ी जाएगी।
लेकिन, जैविक कृषि उत्पादों की बढ़ती मांग के बावजूद, सुंदरगढ़
के किसानों तक इसका लाभ पहुंचना बाकी है। निर्मला,
जिन्हें जैविक पद्यति से उगाई हुई अपनी फसलों और सब्जियों की असली
कीमत का पता नहीं है, कहती हैं – “भले ही खरीदार हमारी सब्जियों और अन्य कृषि उत्पादों में रुचि रखते हैं,
लेकिन हम अपने उत्पादों को उसी कीमत पर बेचते हैं, जिसपर अजैविक उत्पाद बिकते हैं।”
मूल्य-संवर्धन पहल के तौर पर , CITRD ने इन किसानों द्वारा पैदा की गई रागी से
बिस्कुट और केक बनाने के लिए इकाइयाँ शुरू की हैं, क्योंकि
पोषण-महत्त्व के कारण इनकी माँग है। यह पूरी तरह जैविक उत्पादों से बने भोजन के
कैटरिंग ठेके भी लेती है। स्थानीय बाजार में अपनी फसल बेचने के लिए, जैविक किसानों को एक अलग स्थान भी दिया गया है। लेकिन फायदे अभी भी
किसानों से दूर हैं, क्योंकि कीमतें सामान्य खेत फसलों के
समान हैं।
निर्मला के पति राजेंद्र बराला कहते हैं – “बाजार से संपर्क और सरकारी एजेंसियों द्वारा इन
महिला किसानों से उचित मूल्य पर जैविक फसल की खरीद से उनकी आय में वृद्धि होगी और
सुरक्षित खाद्य आपूर्ति के लिए और अधिक किसान जैविक खेती अपनाएंगे|”
बासुदेव
महापात्रा भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं|
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?