खेल और कहानियों के प्रयोग से, माहवारी सम्बन्धी वहम दूर करने वाली स्वास्थ्य पहल के माध्यम से, ग्रामीण झारखंड में स्कूली लड़कियां माहवारी-सम्बन्धी स्वास्थ्य और पोषण के महत्व के बारे में सीख रही हैं
आठवीं कक्षा की छात्रा, सुनीता कुमारी उस समय स्कूल में थी जब उसे पहली माहवारी
हुई। डर और अपनी यूनिफ़ॉर्म पर लगे दाग की शर्मिंदगी के कारण, उसने शिक्षक को बताया और घर भाग गई। वह बताती है – “मुझे
किसी ने बताया नहीं था कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए। मैं डर गई थी कि लड़के
दाग देख लेंगे और मुझ पर हंसेंगे। जब एक दूसरी लड़की को स्कूल में माहवारी हुई थी,
तो मैंने उन्हें उसपर हंसते देखा था।”
अपनी पहली माहवारी के बारे यह सुनीता की स्मृति है।
वह झारखंड के रामगढ़ जिले के पतरातू गाँव में रहती है। यहां और ग्रामीण भारत के
अधिकांश हिस्सों में, माहवारी, विशेष रूप से पहली माहवारी के बारे में मानसिक आघात और शर्म की परंपरा बनी
हुई है।
एक स्वास्थ्य पहल अब ग्रामीण झारखंड में किशोर
लड़कियों में, आमतौर से
प्रजनन-स्वास्थ्य और विशेष रूप से माहवारी और पहली माहवारी-सम्बन्धी स्वच्छता के
बारे में जागरूकता पैदा कर रही है, ताकि लड़कियां अपनी
समस्याओं के बारे में बातचीत करने से कतराएं नहीं।
सांस्कृतिक अवरोध
खूंटी जिले के तोरपा प्रशासनिक ब्लॉक के रोन्हे गांव
की 46-वर्षीय एमिलिया गुरिया,
एक माध्यमिक पाठशाला में सरकार-संचालित ‘किशोरावस्था
शिक्षा कार्यक्रम’ में एक नोडल अध्यापिका हैं। वह सरकार
द्वारा उपलब्ध कराई जा रही आयरन की गोलियां और सैनिटरी पैड वितरित करती है,
और किशोर लड़कियों को विभिन्न जीवन-कौशल पर परामर्श देती है।
उनके अनुसार, सांस्कृतिक कारणों और माहवारी से जुड़ी शर्म के चलते,
उन्हें किशोर लड़कियों से उनकी माहवारी से संबंधित मुद्दों पर बात
करने में दिक्कतें आई। वह कहती हैं -“जब मैं बड़ी हो रही थी,
तो मुझे इन किशोरियों की तरह ही समस्याएं पेश आई थी; मेरी पीठ में दर्द होता था, लेकिन मुझे किसी को भी
बताने में शर्म आती थी।”
इन सत्रों का आयोजन करने वाली PHRN-PRADAN टीम, ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन द्वारा संचालित बहु-पक्षीय स्वास्थ्य पहल के अंतर्गत, 2016 से झारखंड के कई खण्डों में काम कर रही है। VillageSquare ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन की एक पहल है।
PHRN-PRADAN टीम ने प्रत्येक स्कूल में
एक या दो सत्रों के दौरान, छठी से दसवीं कक्षा में लड़कियों
के साथ कहानियों, अनुभव साँझा करने और भागीदारी वाले खेलों
के माध्यम से, किशोरावस्था और प्रजनन-स्वास्थ्य पर चर्चा की।
उन्होंने किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक और भावनात्मक परिवर्तन, पोषण के महत्व, खून की कमी, माहवारी
से जुड़ी शर्म और कम आयु में विवाह, आदि मुद्दों पर चर्चा की।
कहानियों के माध्यम से सीखना
14 वर्षीय सुनीता ने बताया कि उसे सत्र
के दौरान, किशोरी-स्वास्थ्य मॉड्यूल की एक चरित्र शीला की
कहानी सुनकर बहुत अच्छा महसूस हुआ। उसकी तरह ही, शीला को भी
अपनी पहली माहवारी तभी हुई थी, जब वह स्कूल में थी।
हालाँकि शीला उतनी ही डरी हुई लगती है, जितनी डरी हुई सुनीता
थी, लेकिन स्कूल में किसी भी लड़के ने उसका मज़ाक नहीं
उड़ाया, और बाद में उसने सीख लिया कि अपनी माहवारी के दौरान
खुद की देखभाल कैसे करे: अपने प्राइवेट पार्ट्स को कैसे साफ़ करे, और तीन मासिक धर्म में उपयोग करने के बाद कपड़े का निवारण कैसे करे।
उन्होंने कहा – “मैंने शीला की कहानी से सब कुछ सीखा है। मैं अब अपने
सैनिटरी पैड और उपयोग किये कपड़े का ठीक तर;ह निपटान करती
हूं; मैं उन्हें तालाब में फेंकने की बजाय, साफ़ करके जमीन में दबाती हूं।”
दो-तरफा रणनीति
इस पहल का एक भाग गांवों से महिला स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित करना
है। इन
‘चेंज-वेक्टर’ या ‘बदलाव
दीदी’ को, जिनका चयन उन्हीं के
स्व-सहायता समूह (एसएचजी) द्वारा किया जाता है, स्वास्थ्य और
पोषण के विभिन्न पहलुओं पर प्रशिक्षण दिया जाता है, जिनमें
टीकाकरण से लेकर किशोरी-स्वास्थ्य तक शामिल हैं। वे आगे अपनी साथियों को
प्रशिक्षित करती हैं, जिससे बेहतर स्वास्थ्य और पोषण के लिए
व्यक्तिगत और सामूहिक कार्यों को बढ़ावा मिलता है।
तोरपा में PHRN के ब्लॉक समन्वयक, सुनील ठाकुर ने
बताया – “मानसून के तीन महीनों में, स्व-सहायता समूह की कोई बैठक नहीं होती, क्योंकि
महिलाएं धान की रोपाई में व्यस्त रहती हैं। हम पहले से ही वयस्क महिलाओं के लिए
किशोरी-स्वास्थ्य पर एक मॉड्यूल चला रहे थे। इसलिए हमने इस समय का उपयोग इसे सीधे
किशोर लड़कियों तक ले जाने के लिए करने का सोचा।”
तोरपा के ब्लॉक स्तर के शिक्षा अधिकारी (बीईओ) की
अनुमति और सहयोग से, टीम ने अगस्त 2018
में ब्लॉक के नोडल शिक्षकों के साथ एक बैठक आयोजित की। इसके बाद
किशोरियों के लिए कार्यशाला आयोजित करने के लिए ब्लॉक के माध्यमिक विद्यालयों का
दौरा किया गया।
रामगढ़ जिले के गोला ब्लॉक के PHRN समन्वयक राहुल चंद्रा ने कहा –
“हमें यह विचार बहुत पसंद आया, क्योंकि
किशोरी-स्वास्थ्य और पोषण के सन्देश दो रास्तों से ही हर घर तक पहुँच सकते हैं: SHG
बैठकों में आने वाली माताओं के माध्यम से, और
स्कूल में आने वाली बेटियों के माध्यम से।”
स्वास्थ्य और पोषण
गुरिया ने बताया कि जिन किशोरियों के साथ वह काम करती
हैं, उनमें से कई को पौष्टिक
भोजन नहीं मिलता, जिससे उनमें खून की कमी हो जाती है और वे
किशोरावस्था के दौरान कमजोर हो जाती हैं। हालांकि, PHRN-PRADAN टीम द्वारा अपनाई गई दो-तरफ़ा रणनीति प्रभावी साबित हुई है।
तोरपा ब्लॉक में सातवीं कक्षा की छात्रा, नेहा भेंगरा ने बताया कि स्कूल में
हुई बैठक में भाग लेने के बाद, उसने सप्ताह में एक बार स्कूल
में वितरित आयरन की गोलियां लेना शुरू कर दिया। नेहा ने कहा – “इससे पहले मैं ये नहीं लेती थी, क्योंकि उनसे मुझे
उल्टी होने को होती थी| लेकिन स्कूल में आईं दीदी ने बताया
कि इन्हें लेने से मैं कमजोर महसूस नहीं करूंगी, और पहले कुछ
बार के बाद मिचली की समस्या जाती रहेगी।”
तोरपा ब्लॉक के सोनपुरगढ़ गाँव की सातवीं कक्षा की 12 वर्षीय छात्रा, आइलिन हिरेन को गर्व है कि उसने अपने घर में भोजन में बदलाव करके मदद की
है। पोषण के बारे में हुई बैठक में भाग लेने के बाद, उसने
अपनी मां और बहन के साथ हरी पत्तेदार सब्जियां खाने के महत्व पर बातचीत की।
आइलिन के परिवार में अब हर कोई दिन में कम से कम एक
बार तीन-रंगा भोजन करता है, जिसमें साग (हरी
पत्तेदार सब्जियां), चावल (सफेद) और दाल (पीली) शामिल हैं।
वह कहती है, कि वह और उसकी बहन माहवारी के दौरान अब उतना
कमजोर महसूस नहीं करते, जितना पहले करते थे।
शर्मिंदगी से मुक्ति
घरेलू स्तर पर हुए इस बदलाव का कारण है, बेहतर जागरूकता के साथ-साथ माहवारी
से जुड़ी हिचक और शर्म पर सवाल खड़ा करना। यह कार्यक्रम अब तक झारखंड के 80 स्कूलों की 3,000 से अधिक किशोरियों तक पहुंच चुका
है।
गोला ब्लॉक के मुरुडीह गाँव के माध्यमिक विद्यालय की
प्रधानाध्यापिका, भगवती बाला ने बताया,
कि बैठकों से लड़कियों को खुलकर बात करने में मदद मिली है और उन्हें
अपने पीरियड्स के बारे में बात करने में डर और शर्म कम महसूस होती है। बाला बताती
हैं – “पहले, उनमें से कुछ तो
अपने माता-पिता को भी अपनी माहवारी के बारे में नहीं बताती थी| लेकिन अब वे कम से कम अपनी माताओं से तो बात कर ही लेती हैं।”
सोनपुरगढ़ की छह बच्चों की मां, फूलमनी भेंगरा, जागरूकता के बारे में सहमत हैं। वे कहती हैं – “मेरी दो बेटियों ने मुझे बताया कि उन्होंने स्कूल में माहवारी (मासिक
धर्म) के बारे में चर्चा की। नेहा ने मुझे बताया कि माहवारी में प्रयोग कपड़े को
धूप में सुखाना जरूरी है, ताकि उसके सभी जीवाणु पूरी तरह से
मर जाएँ और हम बीमार न पड़ें। मुझे पहले यह पता नहीं था। मैंने अब अपने घर के
पिछवाड़े में धूप वाले हिस्से में अपने कपड़े सुखाने शुरू कर दिए हैं।”
उनकी बेटी नेहा ने कहा – “हाँ, हम अब इसे
धूप में सुखाते हैं। मैम ने हमें बताया कि माहवारी हर महिला को होती है और यह एक
सामान्य बात है, इसलिए हमें इसके लिए शर्म क्यों होनी चाहिए?”
इस जागरूकता के कारण, किशोर लड़कियों के
साथ-साथ बड़ी उम्र की महिलाएं भी मासिक धर्म से जुड़े अपने डर और शर्म से मुक्ति पा
रही हैं।
कांदला सिंह नई दिल्ली स्थित एक गुणात्मक
(क्वालिटेटिव) शोधकर्ता और जन-स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं। वह पब्लिक हैल्थ रिसोर्स
नेटवर्क (PHRN) से सम्बंधित हैं।
विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?