कॉकरोचों और डिजिटल स्वास्थ्य दस्तावेजों के लिए

भले ही डिजिटल स्वास्थ्य नीति और स्वास्थ्य दस्तावेजों का प्रस्तावित डिजिटल-करण कागज पर अच्छा दिखता हो, लेकिन इसके प्रभावी होने के लिए, बुनियादी ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को का ठीक काम करना जरूरी है

उस समय दोपहर के लगभग तीन बजे थे, जब हम राजमार्ग 33 छोड़ते हुए और उत्तर पूर्व दिशा में मुड़ गए। हमने एक छोटा शहर पार किया, जहां कोयला उद्योग से जुड़ी कई सुविधाएं हैं। काफी अच्छी तरह से संरक्षित जंगलों के पेड़, यदि कालिख या कोयले की धूल से ढके नहीं होते और हवा धूल से मुक्त होती, तो दृश्य बहुत बेहद सुन्दर होता।

हमने कुछ जलधाराओं को पार किया और फिर एक गाँव में पहुँचे। चलिए, इस गांव का नाम बिरसापुर रख लेते हैं। हमने रास्ता पूछा – जो बाद में व्यर्थ लगा, क्योंकि निकलते समय पाया वह आसान ही था – और कुछ गलियों में से घूम कर स्वास्थ्य उप-केंद्र के सामने रुके। यह एक बढ़िया भवन था, जिस पर नया नया रंग हुआ था। एक अकेला आवारा कुत्ता शुक्रवार की इस शाम यहां पहरा दे रहा था।

जब हम बंद फाटक और ताला लगे दरवाजे को ताक रहे थे, तो कोई आया और उसने हमें बताया कि वह बंद है, क्योंकि ‘सिस्टर’ दीदी पिछले दिन अपने गांव चली गई थी। हमारी दृढ़ता का परिणाम यह हुआ कि एक ‘शरारती’ बच्चा साड़ी पहने चश्मा लगाए एक बुजुर्ग महिला को बुला लाया। वह काफी उदार लगती थी और बातूनी थी। उसका पति भी पीछे पीछे आ गया और उसने हमारे लिए पहले गेट और फिर बंद दरवाजा खोल दिया।

हमें जिला खनिज निधि के उपयोग से उप-केंद्र में किया गया सुधार दिखाया जा रहा था। महिला ने हमें बताया कि वह गाँव की सेवानिवृत्त दाई थी। उसने हमें बताया कि हालांकि ‘सिस्टर’ दीदी की नियुक्ति की गई थी, लेकिन वह बहुत युवा और अनुभवहीन थी और प्रसव के लिए हर कोई उसके ही पास आता था। दशकों से गाँव की निवासी होने के कारण, वह उन्हें मना नहीं कर सकती थी।

ख़राब रखरखाव वाले उप-केंद्र

उप-केंद्र के प्रसव-कक्ष में एक बेड था, जो बुरी तरह जंग खाया दिख रहा था। सेवानिवृत्त दाई ने हमें बताया, कि प्रसव के लिए आने वाली महिला का परिवार, अपना खुद का बिस्तर लाते थे, जिस पर माँ प्रसव के दौरान लेटती थी। ऐसा लगता था, बेड पर डालने के लिए रबड़ की चादर या खून के दाग वाली चद्दर की सफाई केलिए, उप-केंद्र के साथ कोई बजट नहीं था, इसलिए परिवारों को खुद ही लाने पड़ते थे।

कुछ ट्रे और अलग अलग चीज़ों के पास, एक कोने में पड़े ऑक्सीजन सिलेंडर एक कहावत जैसा था। वह हमें बेबी वार्मर/इनक्यूबेटर दिखाने के लिए नए कमरे में ले गई, और बताया कि सर्दियों में तापमान गिर जाने से बच्चों को गर्म रखना पड़ा, अन्यथा उन्हें निमोनिया हो जाता।

हालाँकि उपकरण वैसा ही था, जैसा हमें पहले से ही रास्ते में बताया गया था, लेकिन वहां पॉलिथीन बैग के साथ गत्ते के बक्सों का एक ढेर था। कॉकरोचों का एक परिवार उत्सुकता से देखकर हमारी मौजूदगी पर ऐतराज जता रहा था। उनकी ढिठाई से शर्मिंदा महिला हमें वहां से खिसका ले गई।

जन्म सम्बन्धी रिकॉर्ड दिखाने के लिए कुछ रजिस्टर पेश किए गए। उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं थी, कि उप-केंद्र में “संस्थागत प्रसव” के अलावा किसी और काम के लिए कभी कोई आया हो, जिसके लिए परिवार को 1,400 रु देने पड़ते थे।

अपर्याप्त स्टाफ

यह झारखंड था। कृपया ऐसा मत कहिएगा, “ओह! आप इन राज्यों में और क्या उम्मीद कर सकते हैं!”, क्योंकि देश के अलग अलग हिस्सों में यात्रा करने पर तस्वीर में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आता। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) ने राज्यों को बहुत पैसा दिया, जिससे इमारतों का काम हुआ और उपकरण ख़रीदे और पहुंचाए गए। उन उपकरणों में से कुछ खोले भी नहीं गए हैं।

NRHM बुनियादी जमीनी हालात को बदल नहीं सका: अपर्याप्त या नामौजूद मेडिकल और पैरा-मेडिकल स्टाफ (जो गांवों में नहीं रहना चाहते) और पारंपरिक जन्म सहायकों (जैसे दाई) का गढ़। सबसे गंभीर बात यह है कि हर कोई मानता है कि ये ग्रामीण स्वास्थ्य पहुँच केंद्र, केवल मातृत्व और बाल स्वास्थ्य (एमसीएच) सम्बन्धी सेवाओं के लिए हैं, बाकी लोगों की बीमारियों पर किसी तरह का कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) डॉक्टर के आने का इंतजार कर रहे रोगियों से भरे हुए हैं, जो कई जगहों पर एक मौका लगने जैसी घटना है। कंपाउंडर और सहायक नर्स दाई (एएनएम), दोनों को परेशान किया जाता है, लेकिन आमतौर पर उसी जगह रहती हैं और जितना हो सके, लोगों की मदद करते हैं।

COVID-19 ने बहुत से प्रशासकों को अपनी निष्क्रियता से बाहर आने के लिए झटका दिया और शायद उप-केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहले से कहीं ज्यादा सक्रीय हो गए हैं। कुछ दोस्तों ने मुझे बताया कि कैसे इन स्थानों के स्वास्थ्य कर्मचारियों ने शहीद जैसा दिखावा कर रहे थे, क्योंकि सिर्फ वे ही ऐसे लोग थे, जिन्हें इन लॉकडाउन समय में काम करने की जरूरत थी।

उपेक्षित ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था

जैसा कि अमर्त्य सेन अपनी पुस्तक, ‘अनसर्टेन ग्लोरी’ (Uncertain Glory) में लिखते हैं, कि आजादी के बाद के युग में, ग्रामीण स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्थाओं की बेहद उपेक्षा हुई है। स्वास्थ्य व्यवस्था की पहुंच वास्तव में कम थी और उन दिनों बच्चों के टीकाकरण पर और हैज़े एवं चेचक की महामारी के नियंत्रण पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया गया था।

सभी मध्यम वर्ग या संभ्रांत वर्ग के प्रबुद्ध लोगों ने, सार्वजनिक व्यवस्थाओं को छोड़ दिया, जिससे उन व्यवस्थाओं के ग्राहक केवल गरीब रह गए। इससे उनकी जवाबदेही कम हो गई। सत्तारूढ़ शासन में बदलाव और बयानबाजी के बावजूद, शायद तमिलनाडु जैसे राज्यों को छोड़कर, जहाँ इस क्षेत्र में अनुकरणीय काम किया है, इन वर्षों में उपेक्षा की मात्रा में कोई भारी अंतर नहीं आया है।

जब तक बड़ी धनराशि उपलब्ध कराई गई, तब तक राजनेताओं और प्रशासकों ने सार्वजनिक संसाधनों के दुरूपयोग की कला में महारत हासिल कर ली थी। इसने स्थापित निहित स्वार्थों को बढ़ावा दिया और वे बदले में आपराधिक तत्व ले आए। यह एक बहस का मुद्दा हो सकती है कि इन बेहद दुस्साहसी घोटालों में से: यूपी का NRHM या (पूरी तरह से अलग क्षेत्र में) मध्य प्रदेश का व्यापम (VYAPAM), किस में अधिक हत्याएं हुईं, जिनकी जांच नहीं की गई।

जैसे-जैसे सरकारी स्वास्थ्य प्रदान करने वाली व्यवस्थाएं लड़खड़ाई और विफल हुई, लोगों निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वालों के पास जाने लगे, जिसका ग्रामीण क्षेत्रों के बहुत बड़े हिस्से में अर्थ था, “झोलावाला” “डॉक्टर”, जिसने औपचारिक रूप से ईलाज करना उतना ही सीखा था, जितनी मैंने चीनी भाषा सीखी है।

डिजिटल स्वास्थ्य नीति

और नींव के स्तर पर इस तरह की स्थिति के साथ, हमारे सामने यह अद्भुत डिजिटल स्वास्थ्य नीति पेश की गई है। आप इसके इरादे को लेकर गलत नहीं ठहरा सकते: इसके अनुसार रोगी के रिकॉर्ड डिजिटल बनाकर, इलेक्ट्रॉनिक रूप से संग्रहीत किया जाएगा। मरीज जहाँ भी जाए, हेल्थ आइडेंटिटी नंबर और आधार नंबर के जरिए वहां ये हासिल कर सकता है, जिससे मरीज अपने केस की फाइलें कहीं और ले जाने की बेगार से बच जाएगा।

क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं का रोगी आमतौर पर समाज के गरीब वर्गों से होगा, इसलिए वह जहाँ भी जाएगा, सार्वजनिक सुविधाओं की जगहों पर ही जाएगा। यह डिजिटल-करण दूर की जगहों पर निचले स्तर की सार्वजनिक व्यवस्थाओं पर बीमारी की पहचान ​​और उपचार सम्बन्धी भार को कम करने में मदद करेगा। सिद्धांत के रूप में – अद्भुत!

आइये इसका सामना करते हैं। भूमि के एक बड़े हिस्से में, ग्रामीण स्वास्थ्य प्रदान करने वाली व्यवस्था, पूरी तरह से जर्जर है। यह चिकित्सा और अर्द्ध-चिकित्सा कर्मचारियों में उदासीनता, स्टाफ की कमी और स्टाफ की अनुपस्थिति, MCH (जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य) पर अधिक जोर, ज्यादातर दूसरी स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी, और “सिस्टम को मजबूत बनाने” के प्रयासों की एक श्रृंखला द्वारा कर्मचारियों पर जटिल फॉर्म भरने के बोझ से ग्रस्त है। इस व्यवस्था को सुन्दर बनाने के लिए, अब नई नीति के अंतर्गत स्वास्थ्य सम्बन्धी रिकॉर्ड के डिजिटल-करण और उसे स्वास्थ्य पहचान पत्र के माध्यम से साझा करने की इच्छा है।

एक कहावत है, कि जब आप चंद्रमा तक पहुंचने का लक्ष्य करते हैं, तो आप कम से कम पेड़ की चोटी तक तो पहुंचेंगे। सच बात है। लेकिन यदि आप दलदल में लोट रहे हैं, तो चंद्रमा का लक्ष्य करने पर आप फिसल जाएंगे और शायद और अधिक गहराई में चले जाएंगे। आपको सख्त जमीन पर चोट करने की जरूरत है, जहां बुनियादी चीजें व्यवस्थित और कार्यशील हों। क्या ग्रामीण भारत को ये बुनियादी सेवाएं प्राप्त होंगी?

संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फनसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।