नेपाल का पारंपरिक जैव-कीटनाशक और खाद, झोल मोल कई भारतीय छोटे किसानों के लिए भी अनुकूल है, क्योंकि इसे मिट्टी के स्स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने वाले कृत्रिम रसायनों के बिना, खेत में आसानी से बनाया जा सकता है।
सदियों से भारतीय किसान पशुओं का गोबर और
घासफूस की खाद को मिलाकर खाद के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। नेपाल के किसानों
के साथ भी ऐसा ही है। दोनों देशों में एक बड़ा हिस्सा छोटे किसान हैं, जिनके लिए रासायनिक खाद और कीटनाशक लागत और मिट्टी के
स्वास्थ्य एवं पोषक-संतुलन के मामले में, लंबे समय में हमेशा
उचित नहीं होते हैं। नेपाल ने पारंपरिक जैव-उर्वरक और जैव-कीटनाशक झोल मोल का
इस्तेमाल शुरू कर दिया, जो भारतीय किसानों के लिए भी
फायदेमंद हो सकता है।
एक ओर, रासायनिक खादों के लगातार उपयोग से, समय के साथ
मिट्टी की उत्पादकता घट जाती है। दूसरी ओर, यह पर्यावरण और
स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डालता है। हालात बदतर बनाने के लिए, अनियमित
वर्षा और बढ़ते तापमान के साथ, तेजी से बदलती जलवायु के रूप
में किसानों को प्रकृति की अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है। नेपाली किसानों की
स्थिति भी भारतीय किसानों से अलग नहीं है। लेकिन उनमें से कइयों को झोल मोल एक
उद्धारकर्ता के रूप में मिल गया है।
झोल मोल कई प्रकार की जैविक खाद है, जो ‘जीवतु’ का एक मेल है, जिसमें नेपाल के स्थानीय असरदार
सूक्ष्म-जीव को, पानी, गाय या भैंस के
मूत्र, गाय के गोबर और खेत में ही उपलब्ध बायोमास के साथ
मिलाया और फरमेंट किया जाता है। हालांकि, गंध और स्वाद में
तीखा है, लेकिन, जैसा की इसे बढ़ावा
देने वाले कहते हैं – “यह फसलों को नुकसान पहुँचाने
वाले कीटों को नियंत्रित करने में मददगार है, फसलों को फफूंद
और कीड़े-मकोड़ों द्वारा होने वाली बीमारी से बचाता है और पौधों के स्वास्थ्य में
सुधार करता है।”
नेपाल के धुलीखेल क्षेत्र के किसानों ने
इसकी पुष्टि की। किसानों ने इस मिश्रण को तैयार करने और भण्डारण के लिए प्लास्टिक
की टंकी या यहां तक कि प्लास्टिक शीट से ढके गड्ढों का इस्तेमाल किया।
इस जीवाणु से बने मिश्रण ने नेपाल में छोटे किसानों के लिए चमत्कार किया है। जोशी ने VillageSquare.in को बताया – “तीन पायलट परियोजनाओं में सफल प्रयोगों के बाद, अब नेपाल के 16 जिलों में किसान इस पद्यति को अपना रहे हैं।” नेपाल सरकार ने 2017 से इसे अन्य जिलों में फैलाने के लिए पहल की है।
जलवायु-स्मार्ट
गाँव
एक गैर-सरकारी संस्था, ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट’ (ICIMOD), CEAPRED की पर्वतीय गॉंवों को जलवायु-स्मार्ट गांव बनाने के लिए मदद कर रहा है। वास्तव में, इस उपक्रम की सफलता ने ICIMOD के हिमालयन क्लाइमेट चेंज अडॉप्टेशन प्रोग्राम (HICAP) के कार्यक्रम समन्वयक, नंद किशोर अग्रवाल को, ‘बिल्डिंग माउंटेन रेसिलिएंस: सोलूशन्स फ्रॉम दि हिन्दू कुश हिमालय’ नाम की एक संग्रह-पुस्तिका में सकारात्मक केस स्टडी के रूप में शामिल करने के लिए प्रेरित किया, जिसे दिसंबर में काठमांडू में आयोजित, हिंदू कुश हिमालय (HKH) पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रकाशित किया गया।
जोशी और उनके सहयोगी रोशन सुबेदी से HKH भर में अलग-अलग अनुकूल पद्यतियों को प्रदर्शित करते
हुए खुले स्टॉल पर मिलने के बाद – जिनमें से कई संग्रह-पुस्तिका में शामिल और जो
भारतीय हिमालय और इसकी तलहटी के लिए भी उपयुक्त हैं – मैंने अग्रवाल, जो मूल रूप से एक ग्रामीण विकास प्रबंधन पेशेवर हैं, से पूछा कि क्या ये भारतीय किसानों के लिए भी सहायक हो सकते हैं। तत्काल
प्रतिक्रिया थी – “नेपाल के किसानों से भी अधिक।”
भारत के लिए
संभव
अग्रवाल ने VillageSquare.in को बताया – “यह झोल मोल मिश्रण असल में भारतीय हालात में अधिक संभव है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके लिए फर्मेंटेशन की जरूरत होती है। यह भारत के हिमालय क्षेत्रीय गांवों के लिए और मैदानों के लिए भी, काम करेगा। नेपाल की पहाड़ियों के मुकाबले मैदानी भारतीय गांवों में अधिक तापमान होने के कारण, यह और भी बेहतर काम करेगा।”
और जिस प्रकार यह नेपाल के छोटे किसानों के
लिए अधिक प्रभावी है, यह लाभकारी सूक्ष्मजीव
मिश्रण भारतीय छोटे किसानों के लिए कारगर सिद्ध हो सकता है। सरकारी आंकड़ों से पता
चलता है कि भारत में लगभग 67% किसानों को सीमांत (1 हेक्टेयर से कम भूमि वाले) के रूप में, लगभग 18%
को छोटे किसानों (1-2 हेक्टेयर) के रूप में और
लगभग 10% को अर्द्ध-मध्यम (2-4 हेक्टयेर)
किसानों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
महाराष्ट्र में, राज्य सरकार ने पांच कंपनियों के खिलाफ प्राथमिकी (FIR) दर्ज की थी, जब यवतमाल जिले में जुलाई और अक्टूबर 2017 के बीच, कम से कम 18 लोगों की कथित तौर पर एक जहरीले कीटनाशक के संपर्क में आने के कारण मौत हो गई थी।
बड़ा बाजार
भारत सरकार के उर्वरक (खाद) विभाग के आंकड़े बताते हैं, कि सार्वजनिक क्षेत्र, सहकारी और निजी क्षेत्र को मिलाकर पूरे भारत में, 160 खाद कंपनियां हैं, और 2016-17 में उनकी कुल बिक्री 5.42 करोड़ टन थी। सरकार ने इस साल 2 जनवरी को लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में कहा, कि वर्ष 2014-15, 2015-16 और 2016-17 में देश भर में हर साल लगभग 3 करोड़ टन यूरिया की खपत हुई थी। इसके अलावा, यह कहते हुए कि यूरिया का आयात, मांग और आपूर्ति में अंतर पर आधारित है, और सरकार के अनुसार उसने बजटीय अनुमान (Budget Estimates) 2017-18 में यूरिया के आयात के लिए 14,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है।
कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के फसल पूर्वानुमान समन्वय केंद्र के अंतर्गत आने वाले, फसल और मौसम निगरानी समूह, नियमित बैठकें आयोजित करता है – जैसे कि 5 जनवरी, 2018 को की गई पिछली बैठक – जहां केंद्रीय एकीकृत कीट प्रबंधन केंद्र यानि सेंट्रल इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट सेंटर्स (CIPMCs) कीटों और बिमारियों के सम्बन्ध में रिपोर्ट पेश करते हैं।
लेकिन, जैसा कि महाराष्ट्र के उदाहरण से स्पष्ट है, रासायनिक
खाद से कोई फायदा नहीं हुआ, और खासकर छोटे किसानों को।
लागत और जोखिम को ध्यान में रखते हुए, यह वाकई
मूल्यांकन का विषय है कि क्या यूरिया सहित रासायनिक खादों का उपयोग वास्तव में उस
लायक है? याद रहे, वार्षिक बजट के
अनुसार, 2017-18 में सरकार की उर्वरक सब्सिडी 70,000 करोड़ रुपये थी। मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए भी रासायनिक खाद दीर्घकालिक
समाधान नहीं हो सकता। अधिक से अधिक किसानों को, रासायनिक
खादों के बिना बेहतर नतीजे हासिल करने चाहियें और पूरी तरह से जैविक खेती की ओर
मुड़ना चाहिए।
अनुकरण के
लिए व्यवहारिक
हिन्दू कुश हिमालय क्षेत्र में वातावरण के
अनुरूप पद्यतियां अपनाने के लिए ICIMOD सम्मेलन में एक 12-सूत्री एजेंडा स्वीकार किया गया। टिकाऊ विकास लक्ष्यों के साथ तालमेल के
साथ, इसमें यह प्राथमिकता देने की बात है, कि बदलती जलवायु के मद्देनजर, पहाड़ों के लिए क्या
आवश्यक है, जिसमें “पूरे हिन्दू कुश
हिमालय क्षेत्र में हर स्तर क्षेत्रीय सहयोगको बढ़ावा देने और मजबूती प्रदान करने
के अलावा, उसमें सरल, सस्ती और
अनुकरणीय सहनशीलता-निर्माण प्रौद्योगिकियों और समाधानों का व्यापक प्रचार शामिल
हो।”
और झोल मोल जैसे मामलों में, यह सरल, सस्ता समाधान का अनुकरण,
न सिर्फ हिमालय क्षेत्र में, बल्कि पूरे भारत
में किया जा सकता है।
जागरूक
नागरिकों की अधिक से अधिक मांग के चलते,
भारत में जैविक खेती ने एक सकारात्मक मोड़ लिया है। जैविक खेती के
प्रबल समर्थकों ने हमेशा कहा है कि इससे भारतीयों की बढ़ती भोजन आवश्यकताओं की
मांगों की पूर्ती हो सकती है और यह पर्यावरण के अनुकूल भी होगा। झोल मोल साबित
करता है कि इसमें न केवल लागत कम है, बल्कि किसानों के
स्वास्थ्य के लिए और मिट्टी के लिए भी अच्छा है।
निवेदिता खांडेकर दिल्ली स्थित एक स्वतंत्र
पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं|
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