पुरानी अर्थव्यवस्था में हथकरघा
और हस्तशिल्प सेक्टर आजीविका का एक प्रमुख स्रोत होते थे। वास्तव में, लगभग 50 साल पहले, हथकरघा उद्योग रोजगार-सृजन के सबसे बड़े स्रोतों में एक था।
शहरी बुनकरों को देश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न रूप से जाना जाता था और ये
अक्सर एक जाति की तरह के समूह बनाकर इस सेक्टर के दिखाई देते हिस्से पर हावी रहते
थे। इसके बावजूद, ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में
अंशकालिक (पार्ट-टाईम) बुनकर भी होते थे। हालाँकि कृषि ग्रामीण भारतीय
अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार रही है, किंतु पुराने समय में शिल्प, गैर-कृषि गतिविधियों का प्रमुख हिस्सा थे।
फिर, इनमें
से कुछ शिल्पों को, शिल्प-विशेष से व्यावसायिक रूप से जुड़े माहिर लोगों के
समूहों द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा था। समय के साथ, इन समूहों
को उस व्यवसाय से संबंधित जाति के नाम से जाना जाने लगा। आज भी भारत के कई हिस्सों
में, कोश्ती, मोमिन और अंसारी (बुनाई से जुड़े), पांचाल
(लोहार), नादर (ताड़ी खींचने वाले) जैसे परिवारिक नामों का अपने पारंपरिक व्यवसायों के
साथ मजबूत संबंध है। इन वंशों के लोग अपने-अपने
शिल्प में माहिर थे।
अपने खाली समय में और गर्मियों
के महीनों में, किसानों का एक बड़ा हिस्सा भी किसी न किसी शिल्प से जुड़ा
कार्य करता था। ये ज्यादातर वह गतिविधियाँ होती थी, जिनसे
दूसरी स्थानीय सामग्रियों से रोजमर्रा के जरूरत की चीजें बनाना और अपनी बेटी की
शादी के दहेज़ में देने के लिए या त्योहारों में उपयोग के लिए वस्तुएँ बनाना शामिल
था। इन कारीगरों का अधिकांश उत्पादन स्थानीय आबादी में ही खप जाता था।
ग्रामीण शिल्प में गिरावट
सड़कों के विकास, शहरों
के साथ सक्रिय संपर्क, इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों की लोकप्रियता, मशीनीकरण, फैक्ट्री में निर्मित उत्पादों का किफायती होना और खुद ग्रामीण लोगों की
पसंद में बदलाव – इन सभी कारणों के मिलेजुले प्रभाव का नतीजा है की ग्रामीण शिल्प अब देश के कई
हिस्सों में इतिहास बन कर रह गया है। ये बदलाव बड़े खतरनाक किंतु निर्दयतापूर्ण
निश्चितता के साथ हुए हैं।
यह शिल्प और उनके उत्पादों की
स्पष्ट स्थानीय प्रासंगिकता थी, जिसने स्थानीय पसंद और वरियता के अनुसार सेवाएँ प्रदान करने की महारत से उपजे उत्पादों के लिए, असरदार सांस्कृतिक सामग्री प्रदान की। इससे स्थानीय जीवनशैली को
प्रतिनिधित्व मिला। उत्पादों ने अपने मूल स्थान से मेल खाते पैटर्न हासिल कर लिया
और इनमें से कई लुप्त होती विरासत के ज्वलंत प्रतीक बन गए।
इस प्रकार हथकरघा और हस्तशिल्प
हमारी सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसी स्थिति में वह लोग सामने
आते हैं, जो निहित मूल्यों के लिए अपने देश की परंपराओं और सांस्कृतिक
विविधता के महत्वपूर्ण प्रतीक के रूप में शिल्प को संरक्षित करना चाहते हैं,
हालाँकि ये शिल्प अपना आर्थिक महत्व खो चुके हैं।
आर्थिक महत्व
शिल्प उत्पादन और उसका व्यवसाय
की अति-स्थानीय प्रकृति बदल गई है, लेकिन उसकी
कीमत पूरी तरह से ख़्तम नहीं हुई है। शिल्प और कुटीर उद्योगों में अग्रणी, खादी और ग्रामोद्योग निगम ने 2018-19 वित्त-वर्ष में रु. 74,000 करोड़ से अधिक का कारोबार किया। फिर भी, वस्त्र उद्योग जैसे अन्य पारंपरिक सेक्टरों की तरह, हथकरघा
और हस्तशिल्प सेक्टर जीडीपी के अनुपात के हिसाब से, 2%
से भी कम योगदान के साथ अब आर्थिक महत्व खो चुका है।
ग्रामीण शिल्प सेक्टर में होने
वाले परिवर्तन का विश्लेषण दिलचस्प है। मोटे तौर पर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वे
शिल्प, जो पूरी तरह से स्थानीय मांग की पूर्ति तक सीमित थे और जहां
आधुनिक कारखानों में बने उत्पादों ने सस्ते विकल्प पेश किए, वे
हार गए। इसके अलावा, हस्तशिल्प सेक्टर के वे वर्ग बुरी तरह सिकुड़ गए, जिन्होंने भले ही बहुत उत्तम कलात्मकता वाले (जैसे बिदरी-कार्य) सामान
बनाए, लेकिन वे लगभग पूरी तरह सजावटी वस्तु के तौर पर, लंबे
समय तक इस्तेमाल किए जा सकते थे।
दूसरी ओर, जो
शिल्प बढ़ते शहरी बाजारों की आधुनिक कल्पना को पकड़कर उसके अनुसार उत्पाद बना सके, या जहां सामान में बदलाव की मांग अधिक थी, या जहाँ शिल्पकार बदलती हुई जरूरतों के लिए उत्पादों को ढाल सके, वे शिल्प बचे रहने में सफल रहे। लेकिन वे शायद संस्कृति पर ध्यान
केंद्रित नहीं करते हैं।
शिल्प सेक्टर में चल रहा मुद्दा
शायद सांस्कृतिक विषय और टिकाऊ आजीविकाओं के बीच दुविधा ही है। हम इस लेख
के दूसरे भाग में फिर से इस विषय पर लौटेंगे। क्योंकि शिल्प क्षेत्र सबसे बड़ा
हिस्सा हैंडलूम (हथकरघा) है, आइए इस पर करीब से नजर डालें।
क्या हथकरघा गरीबी ही बुनता है?
वस्तुतः, हर राज्य के हर प्रमुख क्षेत्र के अपने अलग हाथ से बुने विशिष्ट वस्त्र
होते थे, जो अपने पैटर्न के लिए मशहूर थे। हथकरघा कारीगर
दोनों प्रकार के थे: कुटीर उद्योग के समूह और उनके प्रभाव और हालात से बने कस्बे
या छोटी शहरी बस्तियाँ; और फिर वे कारिगर, जो व्यापक रूप से बिखरे आसपास के गाँवों के अपने घरों से ही
अंशकालिक रूप से यानि पार्ट-टाइम काम करते थे।
यह उद्योग कई प्रयासों के
बावजूद आज चिथड़े-चिथड़े है। इसका कारण? पावरलूम और मिलों से
प्रतिस्पर्धा के कारण हथकरघा बुनकरों के लिए उपलब्ध
कीमतें इस हद तक कम हो गई, कि उन्हें तयशुदा न्यूनतम मजदूरी दर (दिहाड़ी) से आधी आमदनी
भी नहीं हो पाती। इसका प्रभाव केवल आम सूती हैंडलूम कपड़ा बुनकरों पर ही नहीं
पड़ता है, बल्कि सांस्कृतिक रूप से प्रसिद्ध, स्थान-विशेष की
पहचान वाले ब्रांडों जैसे चंदेरी, कांजीवरम, आदि
में बनने वाली कीमती सिल्क साड़ियों का हाल भी यही है।
आमतौर पर बुनकरों पर दबाव बनता
है कि वे साड़ी या अन्य वस्त्रों के व्यापारियों के लिए माल बेचने का काम करें और
अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में ये व्यापारी, साल के शुरू में उन्हें एडवांस देकर बंधुवा बना लेते हैं, ताकि वे उनके लिए बिना उचित लाभ के, जॉब-रेट पर
साड़ियाँ बुनते रहें। परिणामस्वरूप, अधिकांश बुनकर परिवार किसी
दूसरे रोजगार की तलाश में रहते हैं।
परंपराओं को जीवित रखना
कई बार, बाजार की समझ रखने और रुचि रखने वाले संगठनों द्वारा, बुनकरों को उचित आय सुनिश्चित करके, परंपराओं को
जीवित रखने के लिए साहसिक और कभी-कभी हताशापूर्ण प्रयास किए हैं। वे
बुनकर समूहों के उत्पादन कौशल और बदले हुए बाजार की जरूरतों के मेल का प्रयास करते
हैं। ऐसा करना बहुत आसान नहीं है। वैसे भी उनकी पहुँच केवल इतनी ही है।
हैंडलूम क्षेत्र में कुल रोजगार
की संख्या में भारी कमी आई है: जहां 1995-96 में कामगारों की संख्या 65 लाख
(6.5 मिलियन) से अधिक थी, वहीं यह घटकर 2010 में 43 लाख (4.3 मिलियन)
से थोड़ी अधिक रह गई है। फिक्की (FICCI) की एक रिपोर्ट के अनुसार हैंडलूम का 49% से
अधिक उत्पादन और 65% रोजगार, केवल उत्तर-पूर्व में ही है, जो
दर्शाता है कि मेनलैंड भारत में यह सेक्टर कैसे सिकुड़ गया है।
हमें शायद कुछ क्षण यह समझने के
किए खर्च करने की जरूरत है, कि उत्तर-पूर्व ने इस रुझान को नकार कर बुनाई को क्यों जारी
रखा है। असम के हथकरघा उत्पादन और रोजगार का देश में अनुपात-अनुसार महत्वपूर्ण
हिस्सा है। यहां, ग्रामीण परिवारों की महिलाएँ अपनी बेहतर जीवनशैली में योगदान के लिए इसे
अंशकालिक (पार्ट-टाइम) गतिविधि के रूप में
करती हैं। उन्हें मेहमानों और रिश्तेदारों को स्नेहपूर्वक उपहार देने के लिए
स्वयम् गमछा बुनना होता है, और असम में महिलाओं द्वारा पहने जाने
वाले मेखला चादर का उत्पादन करना होता है।
इस उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा अपने खुद के उपभोग के लिए होता है और बहुत कुछ स्थानीय स्तर पर बिक जाता है। लेकिन इस सेक्टर में कुल मिलाकर रोजगार में गिरावट और असम और उत्तर-पूर्व के भारी वर्चस्व से यह पूरी तरह स्पष्ट है कि अन्य बुनाई केंद्रों में तेजी से गिरावट आई है। देश के अन्य इलाकों में, कभी हथकरघा ख़ुशियाँ, संस्कृति और आय बुनता था। आज यदि आप आजीविका के लिए लूम पर बुनते हैं, तो शायद यह केवल गरीबी की बुनाई कर सके।
संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फनसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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