प्रवासी बच्चों को मिला शिक्षा जारी रखने का अवसर
ओडिशा सरकार की एक योजना से, प्रवासी श्रमिकों के बच्चों को गंतव्य स्थलों पर अपनी शिक्षा जारी रखने में मदद की, जिससे बाल श्रम रोकना और शिक्षा में निरंतरता सुनिश्चित हुआ
अपने स्थानीय कटाई-त्योहार नुआखाई मनाने के बाद, पतझड़ के मौसम में, लक्ष्मी के माता-पिता प्रवास पर चले गए। ओडिशा के पश्चिमी जिलों के दूसरे मौसमी प्रवासी श्रमिकों की तरह, वे अपने गांव से एक ईंट भट्टे में काम करने के लिए गए। यह पहली बार था कि नौ-वर्षीय लक्ष्मी, अपने गांव से बिल्कुल नए स्थान पर जा रही थी।
लक्ष्मी के माता-पिता मुकेश और अहल्या बाग, बोलंगीर जिले के लोइसिंगा प्रशासनिक ब्लॉक के महारपल्ली गाँव से सम्बन्ध रखते हैं। उन्होंने इसलिए पलायन किया, ताकि वे ईंट भट्टों में कमाए गए पैसे से, अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए लिया गया कर्ज़ चुका सकें। इस पैसे से उन्हें कुछ महीनों के लिए गुजारा करने में मदद भी मिलेगी।
वे गाँव में बच्चों को अकेला नहीं छोड़ सकते थे, क्योंकि लगभग पूरा गाँव पलायन कर जाता है। हालाँकि लक्ष्मी तब अपने गाँव में चौथी कक्षा में पढ़ रही थीं, लेकिन उसे अपने तीन साल के भाई की देखभाल करने के साथ-साथ, भट्ठे पर और घरेलू कामों में मदद करने के लिए उनके साथ आना पड़ा। जब लक्ष्मी के माता-पिता बलियंता में प्रवास के लिए गए, तो उन्हें पता था कि उसका स्कूल छूट जाएगा, हालाँकि वे शिक्षा के महत्व को समझते थे।
लेकिन राज्य सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देश के अनुसार, प्रवासी श्रमिकों के शिक्षा से वंचित बच्चों को गंतव्य स्थलों पर स्कूलों में दाखिला मिल सकता है, ताकि उन्हें स्कूलों में अन्य छात्रों के साथ पढ़ाई करने का मौका मिल सके| लक्ष्मी उनमें से एक है।
बाल श्रम
हालांकि भारतीय कानून बाल श्रम के खिलाफ है, लेकिन देश के इस हिस्से में, ईंट भट्ठों में एक बच्चा भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना एक वयस्क मजदूर, क्योंकि बच्चा भी ‘पथुरिआ’ नाम की कार्य-इकाई का हिस्सा है, जिसमें एक परिवार के तीन सदस्य होते हैं।
बोलंगीर में प्रवास के मुद्दों पर काम करने वाले एक कार्यकर्ता, दया सागर प्रधान, ने परिवार द्वारा अपने बच्चों को साथ ले जाने के दो कारण बताए। प्रधान ने VillageSquare.in को बताया – “पहले तो स्रोत गाँवों में बूढ़े और अशक्तों को छोड़कर कोई होता नहीं है, और दूसरा कारण यह है कि मुद्दतों से बच्चे एक पथुरिआ इकाई का हिस्सा हैं।”
इस प्रकार, बाल श्रमिक, ईंट भट्ठा श्रम-बाजार के लिए महत्वपूर्ण हैं। प्रधान के अनुसार, भट्ठा मालिक बच्चों के छोटे हाथों को मिट्टी के ढेर लगाने और सुखाने के लिए ईंटों को पलटने के लिए उपयुक्त पाते हैं। उन्होंने कहा – “लेबर ठेकेदार भी बच्चों को प्राथमिकता देता है और यदि ईकाई में एक या दो बच्चे हों, तो वह एडवांस देने के लिए तैयार हो जाता है।”
अधिकारों में चूक
माइग्रेशन इंफॉर्मेशन एंड रिसोर्स सेंटर (MIRC), एड एट एक्शन, के एक आंकलन के अनुसार, 35% प्रवासी बच्चे होते हैं, जिनमें 13% छह साल से कम और 22% छह से 14 साल के बीच उम्र के होते हैं। इसलिए, बड़ी संख्या में बच्चे माता-पिता के साथ पलायन करते हैं, और शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और सुरक्षा जैसे अपने मूल अधिकारों से वंचित किए जा रहे हैं।
बिना आरक्षण के रेल डिब्बों में यात्रा करने से लेकर, शोषणकारी हालात में काम करने तक, बच्चों को कई जोखिमों का सामना करना पड़ता है। प्रधान ने बताया – “काम के स्थानों पर बच्चों की प्रताड़ना और लड़कियों के शारीरिक और यौन शोषण के उदहारण हैं।” वे इन्द्रधनुष कार्यक्रम के अंतर्गत टीकाकरण, आंगनवाड़ी (डे केयर केंद्र) में पौष्टिक भोजन, और स्कूलों में मध्यान्ह भोजन जैसी सरकारी योजनाओं से वंचित हैं।
गंतव्य पर स्कूली शिक्षा
ओडिशा के सूखाग्रस्त जिलों से, परिवार आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना के और भुवनेश्वर के बाहरी इलाके में भट्टों पर प्रवास पर जाते हैं। ईंट भट्ठों पर विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों का ईंटें बनाने में लगे होना और चिलचिलाती गर्मी में छोटे बच्चों का खेलना एक आम दृश्य है।
एड एट एक्शन की प्रोग्राम मैनेजर, सरोज कु. बारिक ने कहा VillageSquare.in को बताया – “एक बार जब प्रवासी ईंट भट्टों पर पहुंच जाते हैं, तो हम काम के स्थानों, मजदूर बस्तियों, बच्चों की संख्या और बच्चों को दाखिला देने के लिए आसपास के प्राथमिक स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों का नक्शा तैयार करते हैं।”
लेकिन बच्चों को दाखिल करना आसान नहीं है, क्योंकि उन्हें अपने माता-पिता के काम में मदद करने के लिए लाया गया होता है। यदि माता-पिता सहमत हो जाएं, तो सुपरवाइजर और भट्ठा मालिक बच्चों को स्कूल में जाने की अनुमति नहीं देते। बारिक ने बताया – “हमें बच्चों को स्कूलों में भेजने के लिए माता-पिता, सुपरवाइजरों और भट्ठा मालिकों को समझाना पड़ता है।”
कभी-कभी बच्चों को एक व्यक्ति की देखरेख में भेजा जाता है और परिवहन सुविधा दी जाती है, क्योंकि भट्ठे स्कूलों से बहुत दूर होते हैं। बारिक बताती हैं – “हमने 2012 में बलिअन्ता ब्लॉक में प्रवासी मजदूरों के बच्चों को दाखिला देना शुरू किया और हर साल उनकी संख्या बढ़ रही है।”
प्रभाव
भुबनपुर प्रोजेक्ट उच्च प्राथमिक स्कूल, जिसमें 2013 से प्रवासी बच्चों का नामांकन किया जा रहा है, में इस साल 51 छात्रों को दाखिला दिया गया। भुबन पुर प्रोजेक्ट यूपी स्कूल की हेडमास्टर, बाबुली खटुआ ने VillageSquare.in को बताया – “जब वे ईंट के भट्टों पर पहुँच जाते हैं, तो हम जाते हैं और माता-पिता को समझाते हैं। क्योंकि उनके पास अपने बच्चों का दाखिल कराने का समय नहीं होता, इसलिए स्कूल को उन तक पहुँचना पड़ता है।”
स्कूलों को जिन मुख्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, वह है प्रवासी छात्रों के सीखने की क्षमता और आचरण में सुधार करके, अन्य छात्रों के साथ समायोजित करना। लक्ष्मी के अध्यापिका, राजलक्ष्मी महापात्रा ने बताया – “नियमित रूप से स्कूल जाने के बाद, हम इन प्रवासी बच्चों के सीखने के परिणाम और रवैये में बहुत सारे बदलाव देखते हैं।”
स्कूल में एक कमरे का भी प्रावधान किया गया है, जहाँ वे कक्षा में आने से पहले तेल, साबुन, कंघी और टैल्कम पाउडर का उपयोग करके खुद को तैयार कर सकते हैं। महापात्रा ने VillageSquare.in को बताया – “हम उन्हें नियमित रूप से स्वच्छता और साफ-सफाई के बारे में सिखाते हैं।”
शिक्षा के अलावा, बच्चों को पौष्टिक भोजन मिलता है। लक्ष्मी बताती है – “स्कूल में खाना हमारे घर के खाने से ज्यादा स्वादिष्ट है।” रविवार और छुट्टियों के दिन, उसे पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता, क्योंकि घर पर उन्हें टूटे हुए चावल, प्याज और स्थानीय रूप से बना अचार खाने को मिलता है।
स्कूली शिक्षा में निरंतरता
कुछ माता-पिता काम खत्म होने पर अपने गाँव लौट जाते हैं। बलिअन्ता के भट्टों में काम करने वाले कई माता-पिता इसलिए वहीँ पर रह जाते हैं, ताकि उनके बच्चे अपनी शिक्षा जारी रख सकें। अपने बेटे को पढ़ाई में अच्छा करते देख, अजय जेना (11) के माता-पिता, गंतव्य स्थल के पास एक गाँव में बस गए।
परीक्षाओं के बाद, स्कूल के अधिकारी सभी प्रवासी बच्चों के स्थानांतरण प्रमाण-पत्र, सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) को प्रस्तुत कर देते हैं। सरकार के आदेश के अनुसार, विभाग, बच्चों के मूल जिले के स्कूल प्रशासन को निर्देश देता है, कि वह इन बच्चों को उनके संबंधित स्कूलों में फिर से दाखिला दें।
एड एट एक्शन की सरोज बारिक ने बताया – “उन्हें अपने गाँव के स्कूलों में फिर से दाखिला लेना ज़रूरी है, क्योंकि अक्टूबर-नवंबर के आसपास मौसमी प्रवास शुरू होता है। तब तक प्रवास पर जाने वाले बच्चे, गांव के स्कूलों में अपनी शिक्षा जारी रख सकते हैं।”
एक और बड़ी चुनौती यह है, कि प्रवासी माता-पिता एक ही गंतव्य पर प्रवास नहीं करते हैं, और इसलिए बच्चों को एक नए स्कूल, नए शिक्षक और नए वातावरण में ढलना पड़ता है। प्रधान के अनुसार, कभी-कभी इसका बच्चे के मनोविज्ञान पर प्रभाव पड़ता है। वह कहते हैं – “लेकिन नियमित परामर्श मिलने पर, माता-पिता अब ऐसे भट्ठों की तलाश करते हैं, जहां उनके बच्चों को ये अवसर मिल सकें।”
एड एट एक्शन, दक्षिण एशिया की, निदेशक – प्रवास और शिक्षा, उमी डैनियल ने VillageSquare.in को बताया – “मूल अधिकारों तक पहुंच, कमजोर लोगों और बच्चों का एक मौलिक अधिकार है और हमें लगता है कि जब श्रमिक आजीविका के लिए पलायन करते हैं, तो उन्हें इनसे वंचित नहीं किया जाना चाहिए।”
आंगनवाड़ी
कार्य स्थलों पर चाइल्डकैअर और लर्निंग सेंटर, तीन से छह वर्ष की उम्र के बच्चों को पूर्व-विद्यालय गतिविधियों में शामिल करते हैं। इस आयु वर्ग के बच्चे, सरकार द्वारा संचालित एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) और टीकाकरण कार्यक्रम से वंचित हैं। इसलिए, ईंट भट्ठों के स्थानों पर बच्चे, कुपोषण के कारण, स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की चपेट में आ जाते हैं।
बारिक के अनुसार – “कार्य-स्थलों पर, जब माता-पिता घंटों तक ईंट बनाने में लगे रहते हैं, तो छोटे बच्चे सोते हैं या पास में खेलते हैं और उन्हें उचित पोषण नहीं मिलता। चाइल्डकेयर एंड लर्निंग सेंटर में, हमारा ध्यान बच्चे के समग्र विकास को सुनिश्चित करने पर केंद्रित होता है।”
यदि भट्ठा आंगनवाड़ी के पास हो, तो बच्चों को पकाया हुआ भोजन मिलता है, अन्यथा नहीं। पोषण की स्थिति में सुधार के लिए, प्रवासी बच्चों और गर्भवती माताओं को कार्यस्थल पर पके हुए भोजन की आवश्यकता होती है। बलिअन्ता में और उसके आसपास 47 ईंट भट्ठे हैं और नागरिक समाज संगठन 12 भट्ठों के साथ काम करता है। आठ अब आत्म-निर्भर हैं और कार्यस्थल पर संगठन, चाइल्ड केयर केंद्रों को चलाने के लिए, केवल तकनीकी सहयोग प्रदान करता है।
भट्ठा मालिकों और ठेकेदारों को भी प्रोत्साहित किया जाता है कि वे ईंट बनाने में बच्चों को शामिल न करें और अपने भट्ठों को बाल श्रम मुक्त कार्यस्थल घोषित करें। राज्य सरकार के सख्त दिशानिर्देश के बावजूद, केवल कुछ भट्ठा मालिक इसका पालन करते हैं। बहुत से और प्रवासी बच्चे हैं, जिन्हें स्कूलों में दाखिला लेने की जरूरत है।
राखी घोष भुवनेश्वर आधारित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं|
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?
यह पूर्वोत्तर राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां कई ऐसे स्थान हैं, जिन्हें जरूर देखना चाहिए।