सांस्कृतिक प्रथाओं का लाभ उठाते हुए, नुक्कड़ नाटकों और व्यक्तिगत-परामर्श के माध्यम से जागरूकता पैदा करके, प्रशिक्षित ट्रांसजेंडर महिलाएं, आदिवासी महिलाओं को ख़राब स्वास्थ्य-सूचकों और स्वास्थ्य-देखभाल के महत्व के बारे में समझाती हैं
“कृपया मेरे नजदीक नहीं आएँ और मेरे बरामदे में न बैठें, यह मेरे बच्चे को नुकसान पहुँचाएगा” – जिनिता साबर
ने एक आगंतुक से कहा। जिस बच्चे का वह जिक्र कर रही थी, वह
उसका तीसरा बच्चा है, जो एक नवजात था और जो अस्वस्थ था। वह
एक स्थानीय ओझा, जिसे आमतौर पर गुनिआ कहा जाता है, की सलाह का पालन कर रही थी और खुद को दूसरों से दूर रख रही थी।
सौरा
आदिवासी महिला, जिनिता साबर की शादी, प्रचलित सामाजिक व्यवहार के
अनुसार 18 साल की उम्र होने से पहले हो गई थी। उसके पति
बेंगलुरु में एक मजदूर के रूप में काम करते हैं। वह रायगड़ा जिले के गुनूपुर ब्लॉक
के पाडा साही गांव में, अपने तीन बच्चों के साथ रहती है।
हालाँकि
वह अपने समुदाय के नजदीक रहती है,
लेकिन ओझा के द्वारा सुझाए गए ईलाज के अनुसार, वह अलग-थलग है। आदिवासी ग्रामीण लोग, सभी तरह के
समाधानों और उपायों के लिए इन हकीमों की मदद लेते हैं, जिसकी
कीमत कभी-कभी जीवन से चुकानी पड़ती है। ऐसी पाबंदियों से लड़ने के लिए, ट्रांसजेंडर महिलाएं, मातृ और शिशु देखभाल के महत्व
पर जागरूकता लाती हैं।
भ्रमित
ग्रामीण
आशा
कार्यकर्ता, रोहिणी साबर के अनुसार, जिनिता साबर ने आंगनवाड़ी
केंद्र में जरूरी समय पर अपनी प्रसव-पूर्व जांच कराई थी और घर पर ही उसका सामान्य
प्रसव हुआ। जन्म के समय उसके बेटे का वजन 2.5 किलोग्राम था।
लेकिन जब बच्चा चार महीने का हुआ, तो सब कुछ बदल गया और उसे
दौरे पड़ने लगे, जिससे वह कुछ मिनटों के लिए बेहोश हो जाता
था।
जिनिता
साबर बच्चे को ओझा के पास ले गई। ओझा ने उसे बताया कि उसे और बच्चे को अलग-थलग
रहना होगा, चावल और नमक उसका एकमात्र आहार होगा और उसे बच्चे को स्तनपान कराना बंद
करना होगा। उसके पति ने उसे सख्ती से कहा कि वह ओझा के निर्देशों का पालन करे। आशा
और उसकी पड़ोसी उसे अस्पताल या पोषण पुनर्वास केंद्र जाने के लिए मना नहीं सके।
जिनिता
साबर बच्चे को ओझा के पास ले गई। ओझा ने उसे बताया कि उसे और बच्चे को अलग-थलग
रहना होगा, चावल और नमक उसका एकमात्र आहार होगा और उसे बच्चे को स्तनपान कराना बंद
करना होगा। उसके पति ने उसे सख्ती से कहा कि वह ओझा के निर्देशों का पालन करे। आशा
और उसकी पड़ोसी उसे अस्पताल या पोषण पुनर्वास केंद्र जाने के लिए मना नहीं सके।
क्योंकि जिनिता साबर ने उसे स्तनपान कराना बंद कर दिया, इसलिए बच्चा कमजोर हो गया। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, सुशीला खुरा ने VillageSquare.in को बताया – “उसका बच्चा हमारे वजन-रजिस्टर के अनुसार रेड जोन, और गंभीर रूप से कम वजन वर्ग में आ गया था।”
खराब
स्वास्थ्य-सूचक
प्रमुख
रूप से आदिवासी आबादी वाले,
रायगड़ा जिले में पुरुषों की साक्षरता दर 56% और
महिलाओं की 29% है। 43.5% बच्चे
अविकसित हैं और 42% का वजन कम है। राष्ट्रीय परिवार
स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-4, 2015-16 के अनुसार,
एनीमिया (खून की कमी), जल्दी विवाह और
अंध-विश्वास, स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति को बदतर बनाते
हैं।
एनएफएचएस)-3 के समय 5
वर्ष से कम के 50% बच्चे पैदा होने के पहले
चार हफ़्तों में मर जाते थे, जो संख्या अब बढ़कर 56%
हो गई है। प्रतिशत बढ़ रहा है, और इसलिए मातृ
और शिशु-देखभाल की दिशा में ठोस प्रयासों की आवश्यकता है, विशेष
रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में।
केवल
57.7% महिलाओं ने प्रसव-पूर्व न्यूनतम चार बार जांच कराई थी। संस्थागत प्रसव 68.8%
हुए। छह महीने से कम आयु के सिर्फ स्तनपान करने वाले शिशु 71.8%
हैं और 6-59 महीने की उम्र के एनीमिक बच्चे 51.5%
हैं। 15 से 49 साल की
लगभग आधी गर्भवती महिलाएं एनीमिक हैं। वन के साथ लगते गांवों में, ये सूचक और भी गंभीर हैं।
नुआ
माँ प्रोजेक्ट
नुआ
माँ, अर्थात नई माँ, एक ट्रांसजेंडर उत्प्रेरक कार्यक्रम
है, जो ‘अज़ीम प्रेमजी लोकहित पहल’
के सहयोग से ओडिशा सरकार के नेतृत्व में, ओडिशा
मल्टी-सेक्टर न्यूट्रिशन एक्शन प्लान के हिस्से के रूप में, रायगड़ा
जिले के दो प्रशासनिक खण्डों में कार्यान्वित है।
नुआ
मां परियोजना एक समुदाय-आधारित संगठन,
सखा द्वारा कार्यान्वित की जा रही है, जो
भुवनेश्वर-स्थित कलिंगा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के तकनीकी सहयोग से, ट्रांसजेंडरों की भलाई और अधिकारों के लिए काम करता है।
भारत
में, ट्रांसजेंडर समूहों का घरों में आना और गर्भवती महिलाओं एवं नव-माताओं को
आशीर्वाद देने की प्रथा, एक अनोखी संस्कृति है। नुआ माँ
परियोजना ने इस संस्कृति का इस्तेमाल किया है और परिवर्तन-उत्प्रेरक के रूप में
कार्य करने के लिए ट्रांसजेंडर लोगों को शामिल किया है।
साठ
प्रशिक्षित ट्रांसजेंडर महिलाएं,
पांच-पांच के समूहों में, स्थानीय-नाटक
प्रदर्शन के माध्यम से, संबंधित विषयों पर मातृ और बाल-पोषण
पर जानकारी देती हैं। हर गांव में, प्रदर्शन के बाद गर्भवती
और स्तनपान कराने वाली माताओं के साथ बातचीत की जाती है। परियोजना के आधार पर,
ग्रामवासी ट्रांसजेंडर महिलाओं को नुआ मां कह कर पुकारते हैं।
नुआ
माँ पहल
जिनिता
साबर गाँव के दौरे के समय,
एक नुआ माँ उत्प्रेरक, पपुन साहू ने देखा कि
वह छोटा बच्चा बहुत बीमार है। आदिवासी समुदायों में, स्थानीय
प्रतिबंध और सामाजिक नियम इतने गहरे निहित हैं, कि उन्हें
समझाना मुश्किल है। कई बार दौरे के बाद, साहू और रोहिणी साबर
ने जिनिता साबर को अस्पताल जाने के लिए मना लिया, हालाँकि वह
ओझा के निर्देशों का उल्लंघन करने के कारण डरी हुई थी।
पपुन
साहू और आशा कार्यकर्ता ने फोन पर उसके पति को समझाया। नुआ माँ साहू के हस्तक्षेप
के बाद, जिनिता साबर के सास-ससुर उसके घर जाने लगे। वे घर और बाकी दो बच्चों की देखभाल
करने लगे, ताकि मां और बच्चा इलाज के लिए अस्पताल जा सकें।
अब जिनिता साबर नियमित रूप से आंगनवाड़ी केंद्र जाती है। उसके बेटे का वजन आठवें महीने में 5.7 किलोग्राम था और वह येलो-जोन में चला गया था। जिनिता साबर ने VillageSquare.in को बताया – “मुझे नुआ माँ से बातचीत करने में मज़ा आता है और जब भी वह हमारे गाँव आती है तो मैं उससे मिलती हूँ। वह हम सभी के लिए एक बड़ा सहारा बन गई हैं।”
व्यवहार-सम्बन्धी
चुनौतियाँ
इस
परियोजना के अंतर्गत 50
गांवों में किए गए घरेलू सर्वेक्षण से पता चला, कि कुछ विशेष व्यवहार-सूचक बातें, जैसे शौचालय की
उपलब्धता एवं उपयोग, बच्चों के मल का सुरक्षित निपटान,
पेयजल का उपचार एवं हाथ धोना, स्तनपान के लिए
एकांत, आयरन और फोलिक एसिड की गोलियां, आदि चिंता का बड़ा कारण हैं।
मौजूदा सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं, स्थानीय प्रतिबंधों और गलत धारणाओं के कारण, इस तरह के ख़राब व्यवहार को बढ़ावा मिलता है। साहू ने VillageSquare.in को बताया – ”जिन 50 गांवों में हम काम करते हैं, उन सब में परम्पराओं के आधार पर ऐसी व्यवहार संबंधी समस्याएं देखी जाती हैं।
आदिवासी
बहुल रायगड़ा और ओडिशा के कई दक्षिणी जिलों में विकास में कमी, क्षीणता और
एनीमिया बहुत अधिक है। एनएफएचएस-4 के अनुसार, राज्य में 5 साल से कम उम्र के बच्चों की विकास और
वज़न में कमी की दर 34 है।
ट्रांसजेंडर
उत्प्रेरक इन समुदायों में बड़ी स्वीकार्यता पैदा करके रास्ता प्रशस्त कर रहे हैं
और प्रभावकारी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। सामाजिक एवं
व्यवहार-सम्बन्धी बदलाव के इस कार्यक्रम में,
पपुन साहू और उनकी टीम की, अपनी ही वेशभूषा और
शैली में, समझाने की क्षमता और कौशल अनोखा है।
सफल
हस्तक्षेप
रायगड़ा
जिले की जिला समाज कल्याण अधिकारी,
वहीदा बेगम का कहना है – “विभिन्न
योजनाओं, सेवाओं, मातृत्व लाभ
कार्यक्रमों, आदि के माध्यम से प्रबंधकों द्वारा किए जा रहे
प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन सामाजिक मान्यताओं, गलत धारणाओं और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करना मुश्किल है।”
बेगम ने VillageSquare.in को बताया – “इस तरह की पाबंदियाँ आखिर में गहरे निहित नियमों में बदल जाते हैं। लेकिन नुआ माँओं को मजबूत स्वीकृति मिली है और ग्रामीण उनकी बात सुनते हैं।” इस कार्यक्रम में, माताओं और नवजात शिशुओं को, ट्रांसजेंडर महिलाओं द्वारा आशीर्वाद देने की सांस्कृतिक प्रथा को प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया गया है।
यह
रणनीति सफलतापूर्वक काम कर गई। लेकिन सक्षम ट्रांसजेंडर महिलाओं और वर्जनाओं एवं
सामाजिक नियमों में डूबे आदिवासी लोगों की संख्या बेमेल है। ज्यादा संख्या में
मजबूत प्रभाव डालने वालों की आवश्यकता है,
जो इन बाधाओं को तोड़ सकते हैं और स्वास्थ्य-सूचकों में सुधार कर
सकते हैं।
संघमित्रा रे कलिंगा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज
में उप निदेशक (सामाजिक परियोजनाएं) हैं। वह नुआ माँ परियोजना के लिए तकनीकी
सलाहकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?