अपनी जमीन खनन कंपनियों को सौंप देने के बाद, आजीविका के अवसरों के ख़त्म होने के बावजूद भी, छत्तीसगढ़ के सुदूर सरगुजा पहाड़ियों के वंचित समुदाय को आदिवासी और दलित बच्चों के लिए स्कूल चलाने से रोका नहीं जा सका
समुद्र तल से 3,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित, सरगुजा जिले का एक प्रशासनिक ब्लॉक, मैनपाट है, जो एक प्राकृतिक और खनिज संसाधनों से भरपूर इलाका है। इस पांचवें अनुसूची-क्षेत्र में, बॉक्साइट के भंडारों ने खनन कंपनियों को हमेशा आकर्षित किया है, हालांकि इस दिलचस्पी का स्थानीय आदिवासी और दलित समुदायों को कोई लाभ नहीं हुआ है।
एक ऐसे स्थान पर, जहाँ स्कूल, कॉलेज और अस्पताल
नहीं थे, आदिवासी लोगों ने बेहतरी के लिए बदलाव की उम्मीद
में, खनन के लिए अपनी जमीन दी। लेकिन अब वे, खनन परमिट देने से पहले भूमि-अधिकारों के मुद्दों को नहीं निपटाने के लिए,
सरकार के दृष्टिकोण की आलोचक हैं।
सपनादर गांव के कमल भगत ने VillageSquare.in को बताया – “हमने सोचा था कि खनन कंपनियों की मौजूदगी से हमारी आजीविका में सुधार होगा, लेकिन हम ठगा हुआ महसूस करते हैं।” फिर भी, खनन वाले गांवों के लोग अपने बच्चों को शिक्षा के लिए एकजुट हुए हैं, इस उम्मीद में कि शिक्षा उनके जीवन को बेहतर बनाएगी।
समुदाय
द्वारा निर्मित स्कूल
इस क्षेत्र में स्कूलों का आना कठिन था।
मैनपाट के कुछ स्कूलों में, शायद ही कोई आदिवासी बच्चे
थे। जब कीर्ति राय के पति मैनपाट में अध्यापक नियुक्त हुए, तो
उन्हें आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए, एक स्कूल शुरू करने
का विचार आया। अलग-अलग पृष्ठभूमि की तीन दलित महिलाएँ – कीर्ति राय, सरोज गायकवाड़ और शकुंतला जटवार – एक साथ आई और अपने बच्चों के लिए एक
स्कूल शुरू करने के लिए समुदाय को लामबंद किया।
इन महिलाओं ने खनन वाले गाँवों के समुदाय को एकजुट किया और 2016 में ग्रैंड्योर कॉन्वेंट स्कूल शुरू किया। गायकवाड़ ने VillageSquare.in को बताया – “हमने समुदाय से हमेशा संपर्क बना कर रखा। हमने छह लाख जुटाए और समुदाय ने अपने पैसे जमा किए और दो लाख दिए।”
जिले की अंबिकापुर जेल के अधीक्षक, राजेंद्र एक साधारण पृष्ठभूमि से आने के बावजूद अपने जीवन में आगे बढ़ने का श्रेय, अपनी शिक्षा को देते हैं। इसलिए वह बच्चों की शिक्षा के लिए हमेशा खड़े होते हैं। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “इसलिए, जब इस स्कूल को शुरू करने का प्रस्ताव आया, तो एक समुदाय के रूप में, हमने तुरंत सहयोग करने का फैसला किया, ताकि हमारे बच्चे शिक्षित हो सकें।”
आर्थिक
चुनौतियां
प्रशासन हर साल नई जरूरतों और चुनौतियों का
सामना करता है। शुरू में प्रशासन को एक बड़ी चुनौती माता-पिता को समझाने में सामने
आई, कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजें। जब
माता-पिता ने उन्हें भेजा, तो उनके पास फीस देने के लिए पैसे
नहीं थे।
सरकार या किसी और स्रोत से कोई अनुदान नहीं
मिलने के बावजूद, प्रशासन ने फीस माफ कर दी|
राय बताती हैं – “हमने अनुसूचित जाति
(एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के बच्चों की फीस माफ की, जो
भुगतान करने में सक्षम नहीं थे। उनमें से कुछ आधी फ़ीस देते हैं और कुछ एक चौथाई।”
कुछ अभिभावक स्कूल की मदद के लिए आगे आए
हैं। उन्होंने आर्थिक संकट को दूर करने के लिए, एक पेरेंट टीचर एसोसिएशन (PTA) का गठन किया है।
उदाहरण के लिए, पीटीए बस का किराया तय करती है। वे शिक्षकों
के चयन-पैनल का भी हिस्सा हैं।
चुनौतियों
के बावजूद प्रगति
एक और कठिनाई पहाड़ी क्षेत्र में प्रशिक्षित
कर्मचारियों को खोजने की थी। सूरज राय ने बताया – “हमें कुछ प्रशिक्षित शिक्षक मिले हैं, फिर भी कुछ
चुनौतियां बनी हुई हैं। हम शिक्षकों को अलग-अलग किस्म और तरीके विकसित करने के लिए
प्रेरित करते हैं, क्योंकि वही साधन और तरीके उपयोग करके,
जंगल के गांवों से आने वाले इन बच्चों को पढ़ाना आसान नहीं है।”
जबरदस्त क्षेत्रीय सांस्कृतिक और आर्थिक
चुनौतियों के बावजूद, शुरू से दाखिलों में
वृद्धि हुई है। शेड वाले एक कमरे से, स्कूल आठ कमरों के
स्कूल-भवन तक पहुँच गया है। अब छत्तीसगढ़ सरकार के स्कूल-शिक्षा विभाग से संबद्ध,
इस स्कूल में नर्सरी से छठी कक्षा तक की कक्षाएं लगती हैं। स्कूल
प्रशासन की भविष्य में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से संबद्धता प्राप्त करने
की योजना है।
आज यहाँ 236 छात्र हैं, जिनमें से 75 अनुसूचित
जनजाति (एसटी) समुदाय से, 30 अनुसूचित जाति (एससी) से और 70
अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) से हैं। कुल छात्रों का 40% लड़कियां हैं।
सीखना हुआ
मजेदार
आसपास के गांवों में कई सरकारी स्कूल होने
के बावजूद, भाषा की बाधाओं, शिक्षण साधनों और विधियों के कारण आदिवासी बच्चों को पढ़ाना मुश्किल है|
शिक्षकों में से एक, हेमंत खटकर ने बताया –
“हम अपनी सीमाओं के अंदर, शिक्षण के
विभिन्न तरीकों पर प्रयोग करते हैं।”
पाठ्यक्रम के आधार पर, शिक्षक ‘तलाश और खोज’
(search and find) जैसे खेल तैयार करते हैं और किसी भी मुद्दे पर
बच्चों को चर्चा में शामिल करते हैं। वे सचित्र और दृश्य-शिक्षण माध्यमों का उपयोग
करने के लिए, एक प्रोजेक्टर खरीदने की योजना भी बना रहे हैं।
शिक्षक छात्रों को एक समूह के रूप में
सीखने की अनुमति देते हैं। छात्र आपस में आदिवासी भाषा में चर्चा करते हैं और
उत्तरों को अपने तरीके से प्रस्तुत करते हैं। शिक्षक सीखने को अधिक मजेदार बनाने
की कोशिश करते हैं और छात्रों में अधिक जानने की जिज्ञासा पैदा करते हैं।
एक अध्यापिका, उर्वशी भगत ने VillageSquare.in को बताया – “हम लेक्चर के साथ-साथ, हम सार्वजनिक कार्यक्रमों, त्योहारों और इसी तरह कार्यक्रमों में भागीदारी के अलावा गेम, गतिविधियों, खेलों, चर्चाओं, नृत्यों, नाटकों, प्रतियोगिताओं जैसे विभिन्न तरीकों से सिखाते हैं।” शिक्षक छात्रों के व्यक्तित्व विकास को और उनकी व्यक्तिगत प्रतिभाओं के पोषण को बहुत अधिक महत्व देते हैं।
सहयोगपूर्ण
वातावरण
छात्रों द्वारा की गई प्रशंसा से यह स्पष्ट
था, कि वे अपनी गतिविधि-आधारित शिक्षा का
आनंद ले रहे थे। पांचवीं कक्षा की सुमित्रा अपने पिछले स्कूल में वापस नहीं जाना
चाहती। वह कहती है – “यहाँ पढ़ाई मजेदार है| मुझे ओरांव नृत्य और गाने गाना पसंद है।” वहीं
पांचवी कक्षा की ही अदिति, अपने शिक्षकों को और उनके पढ़ाने
के तरीके को पसंद करती हैं और छठी कक्षा के श्याम को खेल खेलना पसंद है।
शकुंतला जटवार, जो छात्रों और शिक्षकों को प्रेरित करने के लिए स्कूल का दौरा करती हैं, चाहती हैं कि हर बच्चा जाति, लिंग और वर्ग से ऊपर उठे और पढ़े। जटवार ने VillageSquare.in को बताया – “जहां सरकारी स्कूल इन वन क्षेत्रों के बच्चों को शिक्षित करने में विफल रहे हैं, यह स्कूल आदिवासी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में मदद करता है।”
एक सरकारी शिक्षक, कमलेश सिंह का मानना है कि ग्रैंड्योर कॉन्वेंट स्कूल इस क्षेत्र का सबसे अच्छा स्कूल है| उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “मेरे परिवार के दो बच्चे यहां पढ़ते हैं और इस स्कूल में पढ़ने का अनुभव दूसरे किसी भी स्कूल की तुलना में बेहतर है। यह अन्य स्कूलों की तरह नहीं है, जहाँ बच्चे स्कूल जाने में रुचि नहीं रखते।”
शिक्षा भारत के दलितों और आदिवासी लोगों के
विकास के लिए एक उत्प्रेरक (catalyst) है, जो उन्हें अपना आत्मविश्वास बढ़ाने और समाज की मुख्यधारा में शामिल होने
में मदद करेगा। कुदरीडीह गाँव के सूरज बघेल ने बताया – “अपनी जमीन का खनन के लिए खोना बहुत निराशाजनक था। हमारे बच्चों के
जीवन-निर्माण के लिए हमारे प्रयास, विशेष रूप से उन्हें पढ़ाना,
हमारी उम्मीदों और हौसले को जीवित रखता है।”
सामाजिक विज्ञान में पीएचडी, गोल्डी एम. जॉर्ज छत्तीसगढ़ स्थित एक लेखक और विकास कार्यकर्ता हैं। वे कई
वर्षों से मध्य भारत में दलित और आदिवासी मुद्दों पर काम कर रहे हैं। विचार
व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?