झारखंड में लोहे की कड़ाही में खाना पकाकर अनीमिया (खून की कमी) से पाई मुक्ति
एक महिला समूह का लोहे की कड़ाही में खाना पकाने का आंदोलन झारखंड के कई हिस्सों में जोर पकड़ रहा है, जो ग्रामीण महिलाओं में एनीमिया की घटनाओं को कम करने में मदद करता है
एक महिला समूह का लोहे की कड़ाही में खाना पकाने का आंदोलन झारखंड के कई हिस्सों में जोर पकड़ रहा है, जो ग्रामीण महिलाओं में एनीमिया की घटनाओं को कम करने में मदद करता है
झारखंड के खूंटी जिले के उकरीमारी गांव की शकुंतला देवी कहती हैं – “मैं लगातार कमजोरी और चक्कर आने जैसा महसूस करती थी, लेकिन चार-पांच महीने तक अपनी लोहे की कड़ाही में खाना पकाने के बाद मुझे बहुत अच्छा लगने लगा।” उसके स्व-सहायता समूह (SHG) की दूसरी सदस्यों ने सहमति जताई और अपनी कहानियाँ बताई, कि कैसे लोहे के बर्तन में खाना पकाने से उनकी आंखों की रोशनी, सिरदर्द, जोड़ों के दर्द में सुधार हुआ|
यह फरवरी, 2019 की बात है, जब मुझे स्वास्थ्य हस्तक्षेप पर काम करने वाली उस टीम में शामिल हुए तीन साल हुए थे, जिसने इस SHG और देश भर की कई और को लोहे की कड़ाही खरीदने में मदद की।
ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन (TRIF) के नेतृत्व में चल रहे बहु-भागीदार हस्तक्षेप का उद्देश्य, गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के साथ-साथ, स्वास्थ्य और पोषण सम्बन्धी वैज्ञानिक तरीकों से गांवों के कायापलट की प्रक्रिया को शुरू करना है। इस तरह की प्रक्रिया में मदद के लिए, TRIF ने उन संगठनों को एकजुट किया, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के साथ-साथ आजीविका के विशेषज्ञ हैं। VillageSquare, TRIF की एक पहल है।
महिलाओं को संगठित करना
पहला कदम संगठित ग्रामीण समूहों में महिलाओं के साथ काम करना और स्वास्थ्य एवं पोषण के बारे में उनके ज्ञान को बढ़ाना है। प्रत्येक समूह एक स्वयंसेवक का चयन करता है – जिसे चेंज वेक्टर (सीवी) या बदलाव दीदी कहा जाता है – जिन्हें तकनीकी संगठनों के एक संघ द्वारा तैयार, प्रजनन और बाल स्वास्थ्य, पोषण, और संक्रामक एवं महामारी जैसी बीमारियों पर मॉड्यूल का उपयोग करके प्रशिक्षित किया जाता है। बदलाव दीदी आगे मासिक एसएचजी बैठकों में अपने साथियों को प्रशिक्षित करती है।
स्वास्थ्य मॉड्यूल को संकलित करने वाली टीम के हिस्से के रूप में, मुझे पोषण सम्बन्धी अध्याय के कई मसौदों पर काम करना याद है – एक संतुलित आहार, हरी सब्जियों के महत्व के बारे में लिखना, और यह कि कैसे निम्बू-संतरे जैसे खट्टे फल के सेवन से आयरन बेहतर अवशोषित होता है। और परियोजना की तकनीकी प्रमुख, वंदना प्रसाद के सुझाव पर, मॉड्यूल के अंतिम मसौदे में, सुझाए गई कार्य योजना को जोड़ना, कि प्रत्येक SHG की महिलाएं लोहे की कड़ाही एक साथ खरीदें और उनमें खाना बनाएं।
मांग में वृद्धि
पहले दौर की ट्रेनिंग पूरी होने के कुछ महीने बाद, हमें फील्ड से कहानियां सुनने को मिलने लगी, जो झारखंड के खूंटी जिले के एक ब्लॉक तोरपा से शुरू हुई। तोरपा कस्बे के एक दुकानदार, संजय मांझी कहते हैं – ‘आमतौर पर मैं कुछ ही कड़ाहियों का स्टॉक रखता हूं, क्योंकि मैं हर महीने दो-एक ही बेचता था। लेकिन 2017 के अंत में, बहुत सी महिलाएं कड़ाही खरीदने आईं … एक हजार से ज्यादा! मेरे पास जितनी थी, ले आया… मैंने 300 से अधिक कड़ाही बेची!”
अकेले तोरपा ब्लॉक में, कम से कम 1,200 महिलाओं ने लोहे की कड़ाहियाँ खरीदीं, जबकि पूरे झारखंड में यह संख्या 2,300 तक पहुंच गई है।
भारत में वयस्क महिलाओं और बच्चों में एनीमिया का प्रसार बड़ी चिंता का विषय है। चतुर्थ राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-4) के अनुसार, 2015-16 में ग्रामीण झारखंड की 67% से अधिक वयस्क महिलाएं एनीमिया से पीड़ित थीं।
किस बात ने उन्हें प्रेरित किया, और वे कौन से प्रासंगिक कारक थे, जिन्होंने इसे सफल बनने में मदद की?
एनीमिया जागरूकता
खूंटी जिले के तोरपा के ब्लॉक समन्वयक, सुनील ठाकुर के अनुसार, एनीमिया के प्रति जागरूकता और इसके कारण होने वाले कष्ट एक कारक है। वह कहते हैं – “तोरपा एनीमिया से बुरी तरह प्रभावित क्षेत्र है। प्रदान (PRADAN-प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन) ने कुछ स्वास्थ्य शिविर आयोजित किए थे, जहां यह सामने आया कि ज्यादातर महिलाओं में चक्कर आना, कमजोरी, लगातार थकान जैसे लक्षण हैं।”
रामगढ़ जिले के गोला ब्लॉक में, परियोजना के ब्लॉक प्रमुख, राहुल बताते हैं कि सरकारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जैसे कि ‘आशा’ (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) एसएचजी की बैठकों में सक्रिय भाग लेते हैं, और आयरन की गोलियों के महत्व के बारे में लगातार बात करते हैं। इसलिए, जब लोहे की कड़ाही को एनीमिया से निपटने के एक साधन के रूप में सुझाया गया, तो संदेश का सही प्रभाव पड़ा।
गोला ब्लॉक के मुरुडीह गांव की महिलाओं ने बताया – “हम इतने लंबे समय से इससे पीड़ित थे … जब बैठक हुई, तो हमने सोचा कि शायद लोहे की कड़ाही में अधिक हरी सब्जियां पकाने से हमें मदद मिलेगी।” इसलिए, सरकार के साथ-साथ गैर-सरकारी संस्थाओं ने इस आंदोलन के लिए उपजाऊ जमीन प्रदान की है| इस मामले में यह संस्था प्रदान (PRADAN) है, जिसने कई साल पहले इन SHG समूहों की नींव रखी और उन्हें एकजुट किया।
लोहे की कड़ाही का एक सांस्कृतिक रूप से सुलभ और स्थानीय रूप से उपलब्ध समाधान होना भी एक कारण है, जिसने महिलाओं को इसमें निवेश करने के लिए प्रेरित किया। एक आशा कार्यकर्ता, लक्ष्मणिया देवी कहती हैं – “हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि लोहे की कड़ाही में खाना बनाना अच्छा होता है, इसलिए जब हमें प्रशिक्षणों में इनके बारे में बताया गया, तो हमें उस ओर लौटना आसान लगा।”
नारी शक्ति
सांस्कृतिक और परिस्थितिगत कारक अलग, इस आंदोलन की रीढ़ महिलाओं के समूह हैं। कुछ स्व-सहायता समूह, जिन्होंने कड़ाही खरीदने का फैसला किया है, वे दशकों से मिल रहे हैं, पैसों की बचत कर रहे हैं और मिलकर फैसले ले रहे हैं। लागत की समस्या का उदाहरण लीजिए – एक छोटी लोहे की कड़ाही की कीमत 150-200 रुपये है, जबकि बड़ी कड़ाही की लागत 300-400 रुपये है। गोला के औराडीह गांव की एक एसएचजी सदस्य बताती हैं – “हमारी एसएचजी में 15 सदस्य हैं… यदि हमें व्यक्तिगत रूप से निर्णय लेना होता, तो केवल 2-3 महिलाएं ही कड़ाही खरीद पातीं, क्योंकि वे महंगी होती हैं। हमने अपनी सामूहिक बचत से एकमुश्त राशि निकालने का फैसला किया, ताकि सभी को कड़ाही मिले।”
ऐसा नहीं है कि इस काम में कोई अड़चन नहीं आई। तोरपा ब्लॉक के एक दूरदराज के गाँव में रहने वाली, सोनिया ने पहली बार, अपने मेहमानों के लिए लोहे के काशा में खाना बनाया। जो खाना उन्होंने परोसा, वह काले रंग का था, जिस कारण उनके पति के साथ उनकी बहस हो गई। अगले दिन सोनिया अपने पड़ोस में रहने वाली एक बदलाव दीदी से पोषण-मॉड्यूल पुस्तिका मांगकर लाई और उसे अपने पति को दिखाया, यह समझाते हुए कि काले का अर्थ है कि भोजन में आयरन है। इस दंपत्ति ने हाल ही में मिलकर एक दूसरी कड़ाही खरीदी है।
सोनिया की कहानी उस महत्वपूर्ण कारण की ओर इशारा करती है, जिसके कारण यह आंदोलन कायम और प्रभावी रहा। हम जिस भी गाँव में जाते हैं, महिलाएँ इस बारे में कहानियाँ साझा करती हैं, कि इस उपाय ने कैसे उनके स्वास्थ्य को बेहतर बनाया, और उन्हें अधिक समय तक काम करने की शक्ति प्रदान की। वे यह व्यक्त करने के लिए चर्चा जारी रखती हैं, कि कैसे वे कम आयु में विवाह करने की वजह से एनीमिया का शिकार हुई, और क्यों उनकी बेटियों को उनकी तरह नहीं भुगतना चाहिए।
धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से, ये महिलाएं अपने स्वास्थ्य और जीवन में कायापलट के लिए, खाने के माध्यम से बदलाव ला रही हैं।
कांदला सिंह नई दिल्ली स्थित एक गुणात्मक शोधकर्ता और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रैक्टिशनर हैं। वह सार्वजनिक स्वास्थ्य संसाधन नेटवर्क (PHRN) से जुड़ी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
यह लेख आउटलुक से विशेष अनुमति के साथ प्रकाशित किया गया है।
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