ओडिशा के आदिवासी कुपोषण के कारण सबसे अधिक पीड़ित हैं
ओडिशा के कुपोषित आदिवासी समुदायों को स्वास्थ्य सुधार के उद्देश्य से दशकों से चल रही सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिला है, जिसका मुख्य कारण है ख़राब और लापरवाहीपूर्ण क्रियान्वयन।
ओडिशा के कुपोषित आदिवासी समुदायों को स्वास्थ्य सुधार के उद्देश्य से दशकों से चल रही सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिला है, जिसका मुख्य कारण है ख़राब और लापरवाहीपूर्ण क्रियान्वयन।
ओडिशा के सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाले मयूरभंज जिले के हरिदाकुट गांव की निवासी, सुंदरी माझी ने बताया – “पिछले साल मेरा 6 महीने के बेटे को अचानक तेज बुखार चढ़ा और स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचने से पहले ही मर गया। हमें नहीं पता कि उसे किस चीज ने मारा।”
भारत में ओडिशा में आदिवासी समुदायों की संख्या सबसे अधिक 62 है, जिनमें 13 विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह (PVTGs) शामिल हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में आदिवासी आबादी 95.9 लाख है, जो कुल जनसंख्या का 22.86% है| मयूरभंज जिले की आदिवासी आबादी 14.8 लाख और अनुपात 58.7%, आदिवासियों में सबसे अधिक है।
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के अनुसार, पाँच वर्ष से कम आयु के आदिवासी बच्चों में से, लगभग 57% दीर्घकालिक रूप से अल्पपोषित हैं। ओडिशा में आदिवासी समुदायों में शिशु मृत्यु दर, राष्ट्रीय औसत 84 के मुकाबले, 92 है। एकीकृत बाल विकास सेवाएं (ICDS) योजना, इस गंभीर स्थिति को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
एकीकृत बाल विकास सेवाएं (ICDS)
ICDS योजना, भारत सरकार द्वारा 1975 में गर्भवती एवं युवा माताओं के साथ-साथ, छह साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण और बिमारियों से निपटने के उद्देश्य से शुरू किए गए प्रमुख कार्यक्रमों में से एक है। लेकिन भारत भर में परिणाम संतोषजनक नहीं रहे हैं।
कई अध्ययनों से पता चला है कि इस योजना को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया है। बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और खाद्य आपूर्ति में अनियमितताओं ने इस कार्यक्रम को नुकसान पहुँचाया है।
वर्ष 2017 में जारी, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट में पाया गया है, कि राज्य में ICDS योजना के कार्यान्वयन में खामियां हैं। मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली, राज्य स्तरीय निगरानी और समीक्षा समिति ने 2011-16 के दौरान, केवल तीन बैठकें की, जबकि हर छह महीने में कम से कम एक बैठक आयोजित करना निर्धारित किया गया था।
खराब बुनियादी ढांचा
आंगनवाड़ी ICDS सेवाओं के कार्यान्वयन के मुख्य केंद्र के रूप में काम करती है, जिनमें मुख्य रूप से पूरक पोषण और प्री-स्कूल शिक्षा शामिल हैं। मार्च 2011 में, भारत सरकार ने निर्देश दिया था कि आंगनवाड़ी केंद्र (AWC) में बच्चों और महिलाओं के बैठने के लिए एक अलग कमरा, एक रसोईघर, सामग्री के लिए एक स्टोर रूम, बच्चों के अनुकूल शौचालय, पीने के पानी की सुविधा और खेलने के लिए स्थान होना चाहिए।
लेकिन हरिदाकुट गाँव की आंगनवाड़ी एक जीर्ण-शीर्ण झोपड़ी में चल रही है। गाँव के निवासी घासीराम माझी ने VillageSquare.in को बताया – “आप स्वयं ही केंद्र की खराब हालत देख सकते हैं। बारिश के दिनों में हम अपने बच्चों को आंगनवाड़ी नहीं भेज सकते।”
CAG की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के 71,306 आंगनवाड़ी केंद्रों में से, केवल 28,187 (40%) के अलग ICDS भवन थे। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने बताया – “हमारे केंद्र में कोई अलग रसोई नहीं है, इसलिए हम खुले में खाना बनाते हैं।”
खराब भोजन
ऐसे उदहारण हैं, जब कुप्रबंधन के कारण, तिल के लड्डू या अंडों और टेक होम राशन (THR) या तो कम पहुंचा या बिलकुल नहीं पहुंचा। कोरापुट स्थित, विकास कार्यों में लगे, श्रीनिबास दास ने VillageSquare.in को बताया – “खराब गुणवत्ता नियंत्रण व्यवस्था के कारण, मिलावटी या ख़राब गुणवत्ता वाले भुने हुए चने से बने ‘छाटुआ’ की आपूर्ति के कई मामले हैं।”
ICDS के पूरक पोषण कार्यक्रम (SNP) का उद्देश्य, बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए, सुझाए गए आहार और औसत आहार सेवन के बीच प्रोटीन-ऊर्जा की खाई को पाटना है।
यह कार्यक्रम गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों के लिए, विशेष अनुपूरक आहार और स्वास्थ्य केंद्रों में भेजने पर जोर देता है। हरिदाकुट गांव के निवासियों को ऐसी सेवाएं शायद ही प्राप्त होती हैं।
अनियमित स्वास्थ्य जांच
CAG की रिपोर्ट के अनुसार, बच्चों की स्वास्थ्य जांच बेहद कम है और गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों वाली माताओं में भी जाँच काफी कम है। दिशा-निर्देशों के अनुसार, तीन वर्ष से कम आयु के बच्चों का महीने में एक बार और तीन से छह साल की उम्र के बच्चों को हर तीन महीने में एक बार वजन लिया जाना चाहिए।
इस तरह की नियमित निगरानी से, स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों को बच्चों के विकास में कमी का पता लगाने और उनकी पोषण-स्थिति का आंकलन करने में मदद मिलती है, जिसके द्वारा उन्हें सामान्य, मध्यम या गंभीर रूप से कुपोषित के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
हरिदाकुट के ग्रामवासियों के अनुसार, कर्मचारी चार या पांच महीने में एक बार वजन की जांच करते हैं। ICDS के दिशा-निर्देशों के अनुसार, हर आंगनवाड़ी में दस्त, पेट के कीड़ों, त्वचा रोग, आदि के लिए दवाइयों की किट होनी चाहिए। लेकिन, दवाइयों की ऐसी कोई किट हरिदाकुट की आंगनवाड़ी में उपलब्ध नहीं है।
हरिदाकुट की पार्वती माझी ने VillageSquare.in को बताया – “तीन साल पहले, मैंने अपनी चार माह की बेटी को खो दिया था। जन्म के समय वह बहुत कमजोर थी, यहां तक कि मेरा दूध पीने में भी असमर्थ थी।” डॉक्टर ने कहा कि बच्चे की मौत निमोनिया के कारण हुई।
एक आदिवासी नेता, बजुराम हो ने बताया – “पिछले दो वर्षों में, हमारे गांव के कई बच्चे कुपोषण के कारण मर गए। मीडिया ऐसे ज्यादा मामलों के बारे में नहीं बताता।” उन्होंने बताया कि कुछ मामले खसरे के भी थे।
सकारात्मक प्रयास
दास कहते हैं – “आवश्यक पोषण सेवाओं की उपलब्धता बढ़ाते हुए, जीवन के पहले 1,000 दिनों के दौरान, पोषण के प्रमाणित प्रयासों को बड़े स्तर पर अपनाने की जरूरत है।”
राज्य में कुपोषण को कम करने के लिए, 2015 में, अजीम प्रेमजी परोपकारी पहल (APPI) और ओडिशा सरकार ने एक कार्यक्रम शुरू किया। राज्य सरकार ने, APPI और यूनिसेफ के साथ साझेदारी में, 2017 में, सामुदायिक कुपोषण कुपोषण (CMAM) को सभी 30 जिलों में लागू कर दिया।
समाज कल्याण विभाग के निदेशक, प्रशांत कुमार रेड्डी ने बताया – “अत्यधिक कुपोषण से पीड़ित बच्चों का, आंगनवाड़ी के माध्यम से, ‘रेडी टू यूज थेराप्यूटिक फूड (आरयूटीएफ) और एनर्जी डेंसिटी थेराप्यूटिक फूड (ईडीटीटी) से उपचार किया जाएगा।
CMAM मॉडल को शुरु में सूडान में 2001 में शुरू किया गया था| एक ऐसे देश में, जहाँ गहन कुपोषण की दर एक आपातकालीन सीमा से पार हो जाए, इसे एक आपातकालीन हस्तक्षेप के रूप में अपनाया गया था। केवल मॉडल की नकल करने के बजाय, ओडिशा की राज्य सरकार को स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप CMAM को संशोधित करने को प्राथमिकता देनी चाहिए।
अभिजीत मोहांटी दिल्ली स्थित डेवलपमेंट प्रोफेशनल हैं। उन्होंने भारत और कैमरून में, विशेष रूप से भूमि, जंगल और जल के मुद्दों पर, मूल समुदायों के साथ काम किया है। विचार व्यक्तिगत हैं।
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