छोटे पंप, जिनकी क्षमता 1 या 1.5 हॉर्स
पावर (एचपी) से कम है, इन दिनों काफी प्रभावी साबित हो रहे
हैं। वे इन सब वर्षों में भी प्रभावी रहे होंगे।
छोटे पम्पों के कई फायदे हैं। सबसे पहले, उन्हें खरीदने के लिए कहीं कम पैसे खर्च करने पड़ते
हैं, अधिक परम्परागत और आमतौर पर उपलब्ध 5-8 एचपी पम्पों के मुकाबले सिर्फ आधे, यानि 5,000
से 15000 रुपये। दूसरे, क्योंकि
वे हल्के होते हैं, इसलिए उन्हें पीठ पर या साइकिल पर एक से दूसरा,
क्योंकि वे हल्के होते हैं, इसलिए उन्हें पीठ
पर या साइकिल पर एक से दूसरे, बहुत से खेतों में ले जाया जा
सकता है। तीसरा, पानी इस वेग से निकलता है, कि इससे सतही मिट्टी का कोई कटाव नहीं होता।
चौथा, कम क्षमता वाले बिजली के
पम्प, बड़े पम्पों के लिए जरूरी 3-फेज़
कनेक्शनों के मुकाबले, आसानी से उपलब्ध, घरेलू सिंगल-फेज़ कनेक्शन पर चलाए जा सकते हैं, यहां
तक कि खराब बिजली व्यवस्था वाले क्षेत्रों में भी। पांचवां, वे
आमतौर पर सब्जी उगाने या फूलों की खेती में इस्तेमाल होते हैं, जिनसे पानी की प्रति बूंद, अधिक आमदनी होती है। छठा,
क्योंकि वे केवल अपेक्षाकृत कम गहराई से पानी खींचते हैं, इसलिए उनसे भूजल की धाराओं का स्तर कम प्रभावित होता है, इसलिए यह लोहे, आर्सेनिक, फ्लोराइड्स
या दूसरे लवणों का कम प्रदूषण कम करता है। इस प्रकार, छोटे
पम्प पर्यावरण के हिसाब से अधिक टिकाऊ होते हैं।
उपेक्षा से
मिले सबक
अंत में, यदि कोई छोटे किसानों को अधिक अनुदान देकर, कम
क्षमता वाले सौर-ऊर्जा से चलने वाले पम्प खरीदने में मदद करता है, तो छोटे पम्प देश के दूरदराज इलाकों तक में, गरीबी
से लड़ने और आय वृद्धि के लिए एक मजबूत हथियार बन सकते हैं। सौर ऊर्जा पर होने
वाले खर्च में लगातार कमी होने से, यह एक बहुत बेहतरीन
सम्भावना प्रस्तुत करता है। फिर उनकी उपेक्षा हुई क्यों? इस
उपेक्षा से हमें क्या सबक मिलता है?
डीजल या
बिजली से चलने वाले पम्पों का खेती में इस्तेमाल, मुख्य रूप से
भूजल धाराओं का पानी सतह पर लाने के एक तरीके के रूप में किया जाता है। यह 1970
के आसपास से, भारत उपमहाद्वीप के दक्षिणी,
उत्तरी और पश्चिमी भागों में अधिकाधिक जरूरी हो गया। उस समय तक,
सिंचाई बड़े पैमाने पर कुओं पर आधारित थी। वर्ष 1971-73 के भयंकर सूखे के कारण गहरी-बोरिंग तकनीक ने अपना दबदबा जमा लिया, जिसने महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना,
गुजरात और राजस्थान के ज्यादातर हिस्सों में तबाही मचा दी।
और इसके साथ ही भूजल सिंचाई के प्रसार ने, अपनी गुणात्मक वृद्धि शुरू कर दी, जिससे अब तक कुओं और पम्पों की कुल संख्या 2 करोड़ तक
पहुंच गई। लेकिन मुद्दा यह है कि यह मुख्य रूप से, भारत की
मुख्य-भूमि (mainland) पर हिंदू जातियों के पारंपरिक कृषक
समुदायों से जुड़ा तथ्य है।
जैसे-जैसे भूजल धाराएं खाली होने लगीं, ट्यूबवेल धरती माता के पेट में और गहरे तक पहुँचने
लगे। जब 1987 में, मैंने गुजरात के
मेहसाणा में अपना फील्डवर्क किया, तो किसानों ने मुझे बताया
कि सबमर्सिबल मोटर को हर दूसरे साल औसतन 25 फुट नीचे करना
पड़ता है। गहराई बढ़ने के साथ, पम्पों के लिए बिजली की जरूरत
भी बढ़ती रही और अधिक से अधिक पावर वाले पम्पों की मांग बाजार पर हावी होती गई।
इसलिए पम्प बाजार अनिवार्य रूप से इन गहरी खुदाई वाले तरीकों को उपलब्ध कराने की
ओर स्थानांतरित हो गया। यह कहानी ज्यादातर क्षेत्रों में दोहराई गई, जहां खेती भूजल सिंचाई पर निर्भर थी।
असम का
उदाहरण
असम और ज्यादातर ऊँचे-नीचे, पहाड़ी और चट्टानी इलाकों, जहाँ
आदिवासी लोग रहते हैं, में हमेशा अलग परिस्थितियों का अनुभव
किया गया है। असम ने भूमि की स्थिति आरामदेह थी, जब तक कि
बांग्लादेश से बिन बुलाए मेहमानों ने बड़े पैमाने पर प्रवास शुरू नहीं किया था।
ज्यादातर ग्रामीण संप्रदाय अपने कृषि कार्यों को तेज करके महत्वाकांक्षी रूप से
प्रयास करने की बजाय, अपनी जीवन शैली से संतुष्ट और बेपरवाह
रहते हैं। साली फसलों की कटाई के बाद, आमतौर पर प्रचलित खुली
पशु चराई, इस बात को सही साबित करती है। असम के ज्यादातर मूल
किसानों के पास अब भी बड़े भू-भाग हैं।
केवल प्रवासियों ने, चाहे वह कानूनी हों या नहीं, बाढ़
के मैदानों या वन भूमि के छोटे हिस्सों पर अतिक्रमण और कब्ज़ा कर लिया और उन्हें
अधिक गहनता से खेती करने के लिए मजबूर होना पड़ा, यहाँ तक कि
घनी आबादी वाले धुबरी-मनकाचर क्षेत्र में, पैडल से चलने वाले
पम्पों तक का इस्तेमाल करते हुए। कुल मिलाकर, वर्षा की
प्रचुर मात्रा और सतह के पानी की आसान उपलब्धता के कारण, नमी
या सतह के पानी से होने वाली खेती संभव है। पानी की कमी की बजाय, बाढ़ और जल जमाव हमेशा असम को सताते रहे हैं। असम के मूल निवासी किसानों
ने दूसरी फसल अभी हाल ही में, नब्बे के दशक के मध्य से,
उगानी शुरू की है। ऐसे में उनके लिए अनुकूल पम्पों की मांग पैदा ही
नहीं हुई।
आदिवासी इलाकों में हालात केवल संसाधन की
स्थिति के मामले में अलग थे। इन इलाकों में, बहता हुआ पानी अपेक्षाकृत
ज्यादा आसानी से उपलब्ध हो जाता था, जिससे निचली जमीन में
अच्छी फसल की सम्भावना होती थी। लेकिन यहां के खानदानी किसान न तो खेती की कला में
माहिर थे और न ही रवैये से उद्यमी, क्योंकि वे कुदरत की
साधारण संतान के वंशज थे, जो मानते थे कि उनके भरपूर वन
संसाधन, उनकी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। ज्यादातर आदिवासी
इलाकों में, शिकार अब भी एक बहुत बड़ा काम है और घटाई
गुणवत्ता वाली जमीन पर उगने वाली फसलों की तुलना में, जलाऊ
लकड़ी, कोकून, महुआ, चिरौंजी और कई अन्य गैर-इमारती जंगल उत्पाद इकट्ठा करना, आदिवासी आजीविका में अधिक योगदान करता है।
भूजल का कम
उपयोग
ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के ज्यादातर
आदिवासी इलाकों में, भूजल का इस्तेमाल बहुत कम होता रहा है।
क्योंकि इनमें से बहुत से अंधकारग्रस्त इलाके हैं, जहाँ अपने
पम्पों को चलाने के लिए बिजली नहीं है और क्योंकि बुनियादी ढांचा इतना खराब है कि
डीजल ख़राब संपर्क वाले दूर के शहरों से खरीदना पड़ता है, इसलिए
इन इलाकों के अंदरूनी हिस्सों में ज्यादातर किसानों ने सिंचाई के बारे में कभी
नहीं सोचा था। फिर, जिन कुछेक ने खेती की, उन्होंने गहरे कुओं और बड़ी क्षमता वाले पम्पों का इस्तेमाल किया।
जैसे-जैसे जमीन पर दबाव बढ़ा है, संपर्क-व्यवस्था में सुधार हुआ है और बुनियादी ढाँचा
विकसित हुआ है, यह एहसास, कि उन्हें
अपने भूमि-संसाधनों का अधिक गहन इस्तेमाल करना चाहिए, असम के
साथ-साथ आदिवासी क्षेत्रों के किसानों को भी होने लगा है। लेकिन सच्चाई यह थी कि
वे सिंचित कृषि में नए थे, घरेलू खपत की बजाय बाजार के लिए
फसलें उगाने का सीमित अनुभव था और निवेश करने के लिए उनके पास अतिरिक्त धन नहीं
था। उनकी नवाचार करने और जोखिम उठाने क्षमता सीमित थी।
सरकार की
उदारता पर निर्भरता
इसलिए उन्होंने सबसे सीधा रास्ता अपनाया – सरकार
से जो मिल सकता है, लेने की कोशिश करो।
ज्यादातर सरकारी योजनाओं, जैसे मिलियन वैल (कुँए) स्कीम या
शैलो (कम गहरे) ट्यूबवेल कार्यक्रमों के अंतर्गत बड़ी क्षमता वाले पम्पों पर अनुदान
(सब्सिडी) की पेशकश की और किसानों को वही मिला। और यही वह बात थी, जिससे छोटे किसान भी अपनी सोच तय होते देख सकते थे।
इसलिए, मुख्यधारा के भारत के अधिक क्षमता वाले पम्पों के प्रति जोरदार खिंचाव के
कारण आपूर्ति, बड़े पम्पों की ओर शिफ्ट हो गई और उनकी विशेष
जरूरतों की कमजोर पहचान और समझने में कमी के कारण, उन
क्षेत्रों के किसानों के लिए छोटे पम्पों की मांग में नहीं बदल पाई। इस प्रकार,
आदिवासी इलाकों और असम घाटी की संसाधन परिस्थितियों के लिए अनुकूल
छोटे पम्पों को वह तवज्जो नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी।
महत्वपूर्ण
सबक
सबसे महत्वपूर्ण सबक जो इससे मिलता है, वह यह कि संसाधनों की स्थिति के लिए, विशेष रूप से गरीब लोगों के लिए, सबसे उपयुक्त तकनीक
के बारे में लगातार सोचना चाहिए। और सोचने के बाद, कार्रवाई
शुरू करने के लिए, समाधानों को आज़माएं और उन्हें संभावित
उपयोगकर्ताओं के बीच लोकप्रिय बनाएं। वे कहते हैं कि इस तरह की प्रौद्योगिकियों को
बड़े पैमाने पर अपनाने के लिए, सरकारों के साथ वकालत
(एडवोकेसी) करना जरूरी है। यथार्थवाद मुझे यह कहने के लिए प्रेरित करता है,
कि यह सोचना शायद आशावाद है कि सरकारी मशीनरी बेजुबान गरीब किसानों
की स्थिति के बारे में सोचेगी या ध्यान देगी और उनके लिए खुद ही समाधान निकालेगी।
सरकार
को ग़रीबों की ज़रूरतों को सुनाना एक ऐसा कार्य है, जिसके उपयुक्त तकनीक को सीधे
ग़रीबों के बीच लोकप्रिय बनाने की तुलना में, बहुत अनिश्चित
परिणाम होंगे।
संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद से फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।