जब बुनाई लाभकारी नहीं रही, तो दो उद्यमी महिलाओं ने मरीजों और बीमारी से उबर रहे लोगों को इडली बेचना शुरू कर दिया।उनके नक्शेकदम पर चलते हुए, बहुत सी महिलाओं ने इस क्षेत्र को आउटसोर्सिंग के एक लोकप्रिय केंद्र के रूप में विकसित कर दिया
इरोड में जब दुकानों और कारोबार के लिए दिन की शुरूआत
हो रही थी, वहाँ से कुछ किलोमीटर दूर, भोजनालय चलाने वाली महिलाएँ अपने नाश्ते का काम
खत्म करने वाली थीं। जहाँ कुछ महिलाएं अभी भी टेक-अवे (ले जाने के लिए) ऑर्डर के लिए
इडली पैक कर रही थीं, कुछ टहलते हुए आने वाले लोगों को अभी भी केले के पत्तों पर इडली
परोस रही थी।
महिलाएं बताती हैं कि यह जगह भोर होने से सुबह
9.30 बजे तक, गहमागहमी का केंद्र होगी, और वे इडली की खेप (बैच) बनाने में लगी होंगी।
यह एक राजनीतिक अभियान हो, शादी हो या मंदिर त्यौहार, इडली की मांग हमेशा रहती है,
जिससे ये भोजनालय, जो ज्यादातर महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे हैं, लगभग साल भर व्यस्त
रहते हैं।
अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों की कैंटीन इस सादे
नाश्ते के लिए थोक ऑर्डर देती रहती हैं। तमिलनाडु के इरोड जिले के करुँगालपलायम की
उद्यमी महिलाओं द्वारा आसपास के स्थानों को थोक में इडली की आपूर्ति के चलते, यह जगह
‘इडली हब (केंद्र)’ के रूप में जानी जाती है।
बुनाई का त्याग
इंतज़ार कर रहे एक ग्राहक के पार्सल लिए, एक केले
के पत्ते में रखी इडली पर लिपटे कागज पर तेजी से धागा बांधते हुए, ‘प्रवीण इडलीज़’
की ईश्वरी थंगावेल अपनी यात्रा की याद ताजा करती हैं। उनके पिता, सीरांगण काडा कहा
जाने वाला कपड़ा बुनते थे।
जब सिंथेटिक कपड़ा बाजार में आया, तो सूती कपड़े
की मांग कम हो गई। सीरांगण बुनाई से होने वाली आमदनी से अपने परिवार का निर्वाह नहीं
कर सकते थे और उन्होंने बाजारों में सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी चलाना शुरू कर दिया।
गांधीमथी माधेश्वरन के पिता सामान बेचने वाले फेरीवाले
बन गए, किसानों से टैपिओका (कंद, जिससे साबूदाना बनता है) खरीदते और अपनी बैलगाड़ी से बेचते थे। यह बहुत लाभकारी
नहीं था।
उद्यमी महिलाएँ
घरेलू आय में वृद्धि के लिए, सीरांगण की पत्नी चेल्लाम्मल
ने इडली बनाकर बेचने का फैसला किया। चालीस साल पहले, ग्रामीण क्षेत्रों में इडली एक
सामान्य नाश्ता नहीं होता था। वह तर्क देती हैं कि लोग इडली खरीदते हैं, क्योंकि इस
आसानी से पचने वाले भोजन को सभी लोग खा सकते हैं और हर कोई उन्हें खरीद सकता है।
ईश्वरी थंगावेल ने VillageSquare.in को बताया – “डॉक्टर मरीजों और बीमारी से उबर रहे लोगों को आमतौर पर इडली खाने की सलाह देते हैं। इसलिए मेरी माँ, चेल्लाम्मल ने कुछ निजी अस्पतालों से संपर्क किया। डॉक्टरों ने हमारी इडली को आजमाया और सहमति दे दी कि हम आपूर्ति कर सकते हैं।”
जैसे-जैसे मांग बढ़ी, ईश्वरी थंगावेल के भाई-बहनों
और उनकी मौसी भी इसमें शामिल हो गए और ज्यादा अस्पतालों में आपूर्ति करने लगे। इसी
समय के आसपास, गाँधीमथी माधेश्वरन की माँ, धनपक्कियम ने भी इडली बेचना शुरू कर दिया,
क्योंकि उनके पति की एक फेरीवाले के रूप में टैपिओका बेचने से होने वाली आमदनी पर्याप्त नहीं थी।
क्योंकि इडली घर पर बनाई जाती थी, इसलिए वे नरम
और हल्की थीं। ईश्वरी थंगावेल ने उस समय की प्रसिद्ध तमिल अभिनेत्री से नाम का सम्बन्ध
बताते हुए कहा – “इसी वजह से यह इडली, ‘खुश्बू इडली’ के नाम से लोकप्रिय हो गई।”
इडली की बिक्री बढ़ने के साथ, उनके परिवार और कुटुम्ब में महिलाओं ने भी इडली का व्यवसाय
शुरू कर दिया।
महिलाओं द्वारा संचालन
चेल्लाम्मल सीरांगण द्वारा इडली बेचना शुरू करने
के समय से ही, ज्यादातर भोजनालयों की संचालक महिलाएं हैं। किराने और दूसरे जरूरी सामान
लेने के अलावा, पुरुष सड़क किनारे की उनकी दुकानों को संभालने में भी महिलाओं की सहायता
करते हैं।
करीब 25 साल पहले राजू मिस्त्री का काम करता था।
उनकी पत्नी मल्लिका घर पर रोज लगभग 50 इडली बनाने लगी। स्कूल जाने वाले बच्चों वाली
महिलाएँ उसकी ग्राहक बन गईं। राजू याद करते हुए कहते हैं – ”मैं लकड़ी से जलाने वाले
चूल्हे में आग जला कर रखता और काम पर जाने से पहले, तैयारी
से जुड़े कुछ काम करता।”
आज उसकी ‘मल्लिका इडली शॉप’ बड़ी हो गई है, और उसने
एक दुकान किराए पर ले ली है। इडली की सामग्री को कपड़े से ढके स्टैंड में भाप से बनाने
के पारंपरिक तरीके के बावजूद, जब शुभ मौसमों के दौरान भारी मांग होती है, तो
महिलाएं तेज गति से काम करने में माहिर हो गई हैं।
मल्लिका राजू जोर देकर कहती हैं कि वे इडली पैक
करने के लिए हमेशा केले के पत्ते का इस्तेमाल करती हैं। उन्होंने कहा – “राज्य
सरकार के एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक के इस्तेमाल के आदेश के बाद, हमने ग्राहकों को चटनी
और सांभर के लिए अपने बर्तन लाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए पोस्टर लगाए हैं।”
पारिवारिक उद्यम
शादी के बाद जब थंगावेल अपने पति के गाँव चली गई,
तो वह बुनाई में उसकी मदद करने लगी, क्योंकि उसने परिवार की पारंपरिक आजीविका को जारी
रखा था। आर्थिक तंगी की वजह से, और उसके दूसरी इकाइयों में काम करने की कोशिशें नाकाम
होने के बाद, थंगावेल ने अपने माता-पिता के भोजनालय व्यवसाय में शामिल होने का फैसला
किया।
माधेश्वरन, जो अपनी पत्नी गांधीमथी के साथ, अनुसूया इडली शॉप चलाते हैं, ने VillageSquare.in को बताया – “मैंने तिरुप्पूर में काम करने की कोशिश की, फिर एक होजरी की दुकान चलाने की कोशिश की, लेकिन खास आमदनी नहीं हुई। मैंने अपने सास-ससुर द्वारा शुरू की गई इडली की दुकान से जुड़ने का फैसला कर लिया।” अब उनके बेटे उनके साथ शामिल हो गए हैं।
जब मल्लिका को बड़े ऑर्डर मिलने लगे, तो राजू ने
अपना काम छोड़ दिया। राजू कहते हैं – “अब मेरा बेटा मोहन और बहू संगीता भी हमारे
साथ काम करते हैं।”
ईश्वरी थंगावेल के बेटे और बहू भी अब इस व्यवसाय
से जुड़े हैं। उनके बेटे प्रवीण ने एक साधारण वेब-पेज बनाया है, जिसमें वे अपने द्वारा
बनाई जाने वाली विभिन्न तरह की इडली की जानकारी पेश करते हैं।
आपूर्ति केंद्र (आउटसोर्स हब)
करुँगालपलयम के इडली हब के रूप में विकसित होने के साथ, शादी के कैटरर्स और कैंटीन अपनी जरूरतों के लिए इडली यहीं से खरीदते हैं। मल्लिका राजू ने VillageSquare.in को बताया – “स्थानीय रेस्तरां हमसे 3 रुपये प्रति पीस या यदि चटनी और सांभर के साथ 6 रूपए में खरीदते हैं और 8 से 10 रुपये में बेचते हैं।”
त्योहारों और राजनीतिक रैलियों एवं बैठकों के दौरान,
दुकानों को बड़े ऑर्डर मिलते हैं। पलानीसामी एस.के., जो नियमित रूप से ऑर्डर देते हैं,
ने बताया – “जब आप इन दुकानों पर ऑर्डर देते हैं, तो आप जानते हैं कि आपको बहुत
अच्छी क्वालिटी की इडली मिलेंगी, सही दाम पर और समय पर मिलेंगी।”
ऐसी प्रशंसा मिलने पर, अक्सर मांग होती है कि भोजनालय
के मालिक, ग्राहकों की जगह पर इडली बनाएं। मल्लिका राजू याद करती हैं जब पारिवारिक
समारोह के दौरान एक लोकप्रिय राजनेता के घर पर चेन्नई में उन्होंने 10 दिनों के लिए
डेरा डाला था।
माधेश्वरन का परिवार हर साल नवरात्रि और मंदिर त्योहारों
के दौरान, एक निजी धार्मिक केंद्र की यात्रा करता है। उन्होंने बताया – “हम इस अवसर
के अनुसार, एक या दो सप्ताह वहां रहते हैं। हम पूरी सामग्री ले जाते हैं। अगर हमें
पास के शहरों से ऑर्डर मिलता है, तो हम घर पर सामग्री तैयार करते हैं और इसे किराए
के एक मिनी टेम्पो से ले जाते हैं।”
राज्यों से बाहर भी लोकप्रिय
मल्लिका राजू कहती हैं – “अभी-अभी कोलकाता
का एक व्यापारी इडली खाने के लिए हमारी दुकान पर आया था। क्या आप कल्पना कर सकते हैं
कि इतनी कम कीमत वाली इडली खाने के लिए, 150 रुपये ऑटो किराया देकर यहाँ आए। यह हमारी
इडली की लोकप्रियता है।”
महिलाओं ने उन उत्तर भारतीय व्यापारियों की कहानियों को याद किया, जो इरोड से हल्दी की खरीद के लिए आते हैं, और घर ले जाने के लिए या अपनी यात्रा के लिए इडली खरीदते हैं। एक हल्दी उगाने वाले किसान, कथीरावन एम. ने VillageSquare.in को बताया – “कुछ उत्तर भारतीय जब यहां आते हैं तो इडली और डोसा खाना पसंद करते हैं। इसलिए मैं उन्हें करुँगालपलयम भेज देता हूं।”
आजीविका निर्वहन
एक विधवा, वल्ली, इडली बनाकर स्वयं और अपनी बेटियों
को पालने पोसने में सक्षम है। ज्यादातर दुकानें इडली बनाने तक ही सीमित रहती हैं, हालाँकि
कभी कभार डोसा भी बनाते हैं। राजू जैसे कुछ लोगों ने अपने मेनू में दूसरे खाद्य भी
जोड़े हैं। हर कोई इस बात से सहमत है कि इडली उनका मुख्य काम है और यह कि यह ऐसे ही
रहेगा।
राजू कहते हैं – ‘हालांकि लॉकडाउन के दौरान मांग
में कमी आई है, क्योंकि बैठकें और शादियां नहीं हुई हैं, फिर भी हमारा कारोबार चल रहा
है। बहुत सी संस्थाएं गरीबों को खिलाने के लिए, रोज कुछ सौ इडली खरीदती हैं।”
कैटरर और नियमित ग्राहक अपने ऑर्डर लेने करुँगालपलयम आते हैं।
भोजनालयों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है,
जैसे कि जलाऊ लकड़ी, कच्चे माल की कीमत में वृद्धि, उनकी उपलब्धता वगैरह, लेकिन फिर
भी वे इन झटकों को झेल लेती हैं। महिलाएं अपने खाद्य प्रदान करना जारी रखती हैं, यह
जानते हुए कि इडली बनाना न केवल उन्हें आजीविका प्रदान करता है, बल्कि अनगिनत लोगों
को जीविका भी प्रदान करता है।
जेन्सी सैमुअल एक सिविल इंजीनियर और चेन्नई स्थित पत्रकार हैं। विचार
व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?