गंजम के किसानों के लिए, नकद फसल कपास ने खोई चमक
कपास की फसलों से अच्छी आमदनी की सम्भावना के बावजूद, ढुलाई और मार्केटिंग की सुविधाओं के अभाव और निजी साहूकारों द्वारा शोषण के कारण, उत्पादकों को अन्य फसलों की खेती के लिए मजबूर होना पड़ा है।
ओडिशा की राजधानी, भुवनेश्वर से लगभग 200 किलोमीटर दूर, गंजम जिले के संखेमुंडी प्रशासनिक ब्लॉक के राजनपल्ली गाँव के अंतर्जन अपनी एक एकड़ जमीन में, कपास और अन्य फसलें उगाते हैं।
45-वर्षीय किसान ने कहा कि कपास से उसे मक्का और तिलहन जैसी दूसरी फसलों के मुकाबले, अधिक कीमत मिलती है। फिर भी वह, भारी मांग और ऊंचा लाभ मिलने के कारण अक्सर सफ़ेद सोना कहलाने वाली इस रेशे-दार फसल उगाने में उनकी रुचि ख़त्म हो रही है।
मल्लिक अकेले नहीं हैं। उनके जैसे कई कपास उगाने वाले किसान दूसरी फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। खरीद के स्थानों के नजदीक कपास ओंटाई मिल न होने और दूसरे मुद्दों के कारण, कपास की खेती के अंतर्गत कुल क्षेत्र में गिरावट देखी जा रही है।
उत्पादन में गिरावट
अपने खेत में सफ़ेद कपास दिखाते हुए, मल्लिक ने बताया – “कपास से ऊँचे दाम मिलते हैं, लेकिन मार्केटिंग और परिवहन सुविधाओं के अभाव के साथ-साथ, साहूकारों के बढ़ते दबाव के कारण, हमारे जैसे छोटे और सीमांत किसानों को फायदा न होने के बावजूद, दूसरी फसलें अपनानी पड़ रही हैं।”
दीघापहांडी की नियंत्रित बाजार समिति (आरएमसी) के सचिव, अरुण मिश्रा ने बताया कि जिले में कपास उत्पादन क्षेत्र पांच साल पहले के 2,000 हेक्टेयर से 854 हेक्टेयर तक कम हो गया है। उत्पादन में भी भारी गिरावट आई है और 5,000 क्विंटल का लक्ष्य हासिल करना भी कठिन है, जबकि पांच साल पहले उत्पादन 12,000 क्विंटल था।
ओंटाई (जिनिंग) मिल का अभाव
किसानों ने बताया कि जिनिंग मिल का न होना एक बाधा थी। यह वह जगह है, जहाँ कपास के रेशे को बीज और धूल के कणों से अलग किया जाता है। ‘लिंट’ कहलाने वाली अलग की गई कपास को परिष्कृत करके उनकी गाँठे बनाई जाती हैं।
पतरापुर ब्लॉक के ब्राह्मणपंका गांव के किसान, बिभीषा डोलाई (70) ने कहा – “दूसरे जिलों में, ओंटाई मिलें खरीद के स्थान पर स्थित हैं और इससे किसानों को अपनी उपज एक ही जगह बेचने में मदद मिलती है। लेकिन गंजम के दीघापहांडी में खरीद की जगह कोई मिल नहीं है।”
डोलाई ने VillageSquare.in को बताया – “हमें रायगडा जिले के गुनपुर क्षेत्र में स्थित एक जिनिंग मिल तक लगभग 80 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। इससे ढुलाई की लागत काफी बढ़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप भारी नुकसान होता है।” किसानों ने बताया कि गंजम जिले में भी अस्का कस्बे में एक मिल है, लेकिन पिछले पांच सालों से यह बंद पड़ी है। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार ने इसे चलाने के लिए कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है।
उपयुक्त कृषि-जलवायु
गंजम जिले में, कपास आम तौर पर पांच प्रशासनिक ब्लॉकों, अर्थात्, पतरापुर, सनखेमुंडी, सोरदा, दीघापहांडी और शेरगढ़ में उगाई जाती है। गंजम में कपास के बीज की बुवाई 15 जून से शुरू होती है और 7 जुलाई तक चलती है।
कपास पर बेहरामपुर-स्थित विषय-विशेषज्ञ, प्रसन्न कुमार स्वैन ने VillageSquare.in को बताया – “कटाई आमतौर पर नवंबर के पहले सप्ताह से शुरू होती है और दिसंबर के आखिर तक जारी रहती है। इस दौरान चार बार कपास की तुड़ाई की जा सकती है।”
कपास को रेशे की लम्बाई के आधार पर, छोटे, मध्यम और लंबे रेशे के रूपमें वर्गीकृत किया जाता है। वह कहते हैं – “इस समय जिले में लगभग 700 किसान कपास उगा रहे हैं, जबकि कुछ साल पहले एक हजार से ज्यादा किसान थे।”
स्वैन ने बताया – “किसान कपास पर बेहद निर्भर करते हैं, क्योंकि यह बारिश पर आधारित फसल है और जिले में दूसरी फसलों के लिए, पर्याप्त सिंचाई सुविधाओं का अभाव है। इसमें नमी थोड़े समय के लिए चाहिए होती है, लेकिन ज्यादा समय तक जल का जमाव फसल को नष्ट कर सकता है।”
न्यूनतम समर्थन मूल्य
सरकार ने पिछले साल 16 दिसंबर से शुरू हुई कपास की खरीद के लिए, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 5,825 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। लेकिन किसानों का कहना है कि ढुलाई की लागत ज्यादा होने के कारण कीमत काफी नहीं है।
ब्राह्मणपंका गाँव के एक किसान, राघव डोलाई (36) ने VillageSquare.in को बताया – “हमें शायद ही कभी कोई मुनाफ़ा होता है, क्योंकि एक क्विन्टल कपास उगाने में 5,000 रुपये खर्च होते हैं। इसे मिल में पहुँचाने आने वाले खर्च के बाद हमें कुछ नहीं बचता। सरकार को चाहिए कि वह ढुलाई की लागत वहन करे।”
कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (CCI) के मानदंडों के अनुसार, कपास को ओंटाई (जिंनिंग) मिल में, इसकी ढुलाई का खर्च छोड़कर ख़रीदा जाता है। CCI, दीघापहांडी के वरिष्ठ वाणिज्यिक अधिकारी, एस. सुधाकर ने VillageSquare.in को बताया – “नीति के अनुसार, CCI ने कभी भी कपास का ढुलाई खर्च वहन नहीं किया है और इसे मिल के स्थान पर ख़रीदा जाता है। गंजम के लिए अब तक नियमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है।”
प्राइवेट वित्तपोषण
ढुलाई सम्बन्धी मुद्दों के अलावा, साहूकारों द्वारा शोषण को भी किसानों के कपास की खेती में रुचि खोने का कारण बताया जाता है। राजनपल्ली गांव के किसान, सुकेश दास ने कहा – “हमारे पास खेती के लिए जरूरी धन नहीं है, इसलिए हम साहूकारों पर निर्भर हैं।”
दास ने बताया – “वे हमें कच्चा माल और खेती की दूसरी सामग्री प्रदान करते हैं और हमसे बिनौला (कपास बीज) भी खरीदते हैं, लेकिन कीमतें उपज के बाद ही तय की जाती हैं। कपास को हल्की गुणवत्ता का बता कर और ऐसे ही अस्पष्ट कारण बता कर साहूकार अक्सर हमें कम दाम देते हैं| इससे किसानों को भारी नुकसान होता है।”
वह कहते हैं – “तब भी हम साहूकारों के साथ नुकसान का सौदा कर लेते हैं, क्योंकि इससे हम दूर जिंनिंग मिल तक जाने की परेशानी और ढुलाई पर होने वाले खर्च से बच जाते हैं। साहूकार कपास सीधे खेतों से खरीद लेते हैं, जो हमारे लिए सुविधाजनक है। लेकिन बार-बार के नुकसान से हमारे पास कपास छोड़ देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रहता।”
किसानों के एक समूह ने बताया कि कम कटाई का समय कम होने के कारण, वे मक्का और दूसरी फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। मल्लिक ने कहा – “मक्के की फसल सिर्फ 80-95 दिन लेती है। हमें मक्का में भी अधिक लाभ नहीं होता, लेकिन कम फसल का समय कम होने से हमें अधिक फसल उगाने में मदद मिलती है।”
लीज़ (पट्टे) पर जमीन
हालात इस हद तक पहुंच गए हैं कि किसानों को अपनी जमीन पट्टे पर पड़ोसी आंध्र प्रदेश के किसानों को देने पर मजबूर होना पड़ रहा है। शेरगड़ा ब्लॉक के सुनंतारा गांव के, सुरेश कुमार जेना कहते हैं – “कम से कम अपनी जमीन को पट्टे पर देकर हमें कुछ तो आर्थिक लाभ है, क्योंकि सरकारी सहायता के अभाव में हमारे लिए कपास उगाना मुश्किल हो गया है।”
जेना ने VillageSquare.in को बताया – “पड़ोसी राज्य के किसान मानसून से पहले यहां पहुंचते हैं और हमें भूमि पट्टे पर देने के लिए कुछ पैसे देते हैं और उपज को बिक्री के लिए अपने राज्य में वापस ले जाते हैं। हम अपनी जमीन को पट्टे पर देने के मुकाबले ज्यादा पैसा कमा सकते हैं, लेकिन हालात हमें खेती करने से रोकते हैं।”
एक वरिष्ठ पत्रकार, रबींद्रनाथ डकुआ, जो कई सालों से कपास उगाने वाले किसानों की दुर्दशा को कवर कर रहे हैं, कहते हैं – “सिर्फ परिवहन और साहूकार ही नहीं हैं, बल्कि किसान अपर्याप्त प्रशिक्षण के कारण भी, इच्छित गुणवत्ता पाने में विफल रहते हैं। कपास की फसल में कीटनाशक का इस्तेमाल अधिक होता है और यह ‘मोनोकल्चर’ के रूप में उगाई जाती है, लेकिन यहां के किसान एकीकृत खेती करते हैं और दूसरी फसलें उगाते हैं, जिससे उन्हें रसायनों से प्रभावित होने का जोखिम रहता है।”
आर.एम.सी. सचिव, अरुण मिश्रा ने VillageSquare.in को आश्वासन दिया – “दीघापहांडी में खरीद केंद्र के अंदर जिनिंग मिल का निर्माण पहले ही शुरू किया जा चुका है और अगले साल की शुरुआत तक इसके पूरा होने की उम्मीद है। प्रशासन मुद्दों के बारे में गंभीर है और किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए सभी कदम उठाए जा रहे हैं।”
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। गुरविंदर को ईमेल किया जा सकता है – gurvinder_singh93@yahoo.com
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