मैंने ‘टेक्नोलॉजी और गरीब’ विषय पर लिखे अपने पहले के लेख को आगे बढ़ाते हुए, इस लेख में दो प्रश्नों का उत्तर तलाशने की कोशिश की है| (देखें: गरीबों को किस तकनीक की आवश्यकता है?) पहला प्रश्न है, प्रौद्योगिकी के विभाजन का महत्व। और दूसरा है ‘टावर्स की कहावत’, और कैसे इसने आपूरक (सप्लायर) और खरीदारों के लिए अर्थशास्त्र को बदल दिया। मैं दूसरे प्रश्न से शुरू करता हूँ।
विशाल, और एक समय में
बिल्कुल अकल्पनीय पैमाने पर भारत में दूरसंचार जिस प्रकार फैल गया, उसी से टावरों की कहावत को लिया गया है। कहानी कुछ इस तरह से है। हममें से
जो लोग, नब्बे के पहले के दशकों से गुजरे हैं, वे उस समय के दूरसंचार के भयानक हालात के बारे में जानते हैं।
जब
1983 में मेरी शादी हुई, तो हमें अपने माता-पिता के साथ
बात करने में भारी दिक्कतें आती थीं। हमारे घर पर टेलीफोन नहीं था। इसलिए हमें
टेलीग्राफ ऑफिस जाना पड़ता था (आप क्या जानते भी हैं कि ऐसी कोई चीज हुआ करती थी?)
और कॉल बुक करनी पड़ती थी, जिसे लम्बी दूरी की
(लॉन्ग डिस्टेंस) कॉल कहा जाता था। लंबी कतार में जब आपकी बारी आती थी, तो ऑफिस का ऑपरेटर कॉल मिलाता था और आपको अपने तीन मिनट मिलते थे। यदि आप
उससे अधिक समय तक बात करना चाहते, तो आपको और पैसा देना पड़ता
था।
मुझे
याद है कि मेरे एक सहकर्मी ने मुझे बताया,
कि उनकी सगाई के बाद, पहले महीने में उन्हें
अपनी मंगेतर से फोन पर बात करने के लिए, अपने वेतन से दोगुना
पैसा खर्च करना पड़ा था, और बहुत सा वक्त टेलीग्राफ ऑफिस में
इंतजार करने में बर्बाद किया था!
तेजी से बदलाव
यह बदला कैसे? निश्चित रूप से, नब्बे के दशक के मध्य से आखिर में मोबाइल फोन नजर आने लगे, जिससे पहली बाधा दूर हुई। जो 16 रुपये प्रति मिनट और
लंबी दूरी का अतिरिक्त खर्च कर सकता था वह मोबाइल फोन पर बात कर सकता था। लेकिन
टेलीफोन-घनत्व (कनेक्शन प्रति 1,000 व्यक्ति) दो अंकों में
रहा।
ग्रामीण
क्षेत्रों तक टेलीफोन सेवाएं पहुँचाने के लिए, हर कनेक्शन पर सरकार सब्सिडी देती
थी। लेकिन दिक्कत टेलीकॉम टावरों के बुनियादी ढांचे को स्थापित करने में की थी,
क्योंकि यह पता नहीं था कि यदि टावर लगाया जाता है, तो कितने कनेक्शनों की आवश्यकता होगी| उनका प्रसार
कम था। फिर 2004 के आसपास, सरकार ने
सब्सिडी देने के तरीके में बदलाव किया। प्रति कनेक्शन की बजाय, उतनी ही राशि टावर लगाने पर दी गई, इस शर्त के साथ,
कि कई कम्पनियाँ उन्हें मिलकर इस्तेमाल करेंगी।
इसका
परिणाम क्या हुआ?
बहुत से टावर लग गए, जिसकी वजह से, और निश्चित रूप से कीमतों में कमी होने के कारण, नए
कनेक्शनों में बड़ा उछाल आया| आज तक हम एक ऐसी स्थिति देखते
हैं, जहां हमारे देश के लगभग हर नुक्कड़ और कोने में फोन हैं,
जिनकी संख्या 1 अरब हो सकती है और यह अधिकांश
के पास पहुंच चुके हैं। इस सब्सिडी देने के तरीके में बदलाव की साधारण सी चाल थी,
जिसका इस दिशा में सबसे बड़ा योगदान रहा। पूरे तकनीकी वातावरण के
दूसरे पक्ष लगभग एक जैसे ही थे, लेकिन परिणाम बहुत अलग थे।
असरदार सब्सिडी
ग्रामीण क्षेत्रों में टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने का मुख्य तरीका, प्रत्येक उपभोक्ता को सब्सिडी देना था। सब्सिडी यूनिट की
लागत के अनुपात के रूप में दी जाती है। यदि मैं एक सौर-प्रणाली स्थापित करना चाहता
हूं, तो मुझे इसके लिए एक राशि की आवश्यकता है और उस राशि का
50% या 60% मुझे सब्सिडी के रूप में
मिलता है।
सब्सिडी
के इस तरीके से जुड़े चार मुद्दे हैं। सबसे पहले, जिस व्यक्ति को यह चाहिए, उसे सम्बंधित विभाग में लम्बी लाइन में लगना पड़ता है। जिलों और उप-जिला
स्तरों पर संबंधित विभाग की क्षेत्रीय इकाइयों के पास सब्सिडी के लिए एक बजट होता
है। क्योंकि सब्सिडी के लिए बजट कुल आवश्यक संख्या से कम है, इसलिए अधिकारियों को इसको राशन करके देना पड़ता है। प्रशासन की ईमानदारी का
बेजोड़ इतिहास देखते हुए, इस प्रक्रिया में बहुत सी धांधली
होती है।
दूसरा
मुद्दा यह, कि हालांकि सेवा प्रदान करने वाली कंपनी अपने को पवित्र दिखाती हैं,
लेकिन हर कोई यह स्वीकार करेगा, कि सेवाओं की
सब्सिडी सामान (गैजेट) की कीमत को बढ़ाने की गुंजाइश पैदा कर देती है। इस तरह,
एक वस्तु, जिसकी कीमत मान लीजिये 100 रुपये है, उसकी कीमत अब 150 रुपये
रख दी जाती है, और 75 रुपये की सरकारी
सब्सिडी (मान लीजिए 50%) का उपयोग सामान के प्रचार से हटकर
दूसरे उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता है।
तीसरा
मुद्दा सब्सिडी के रास्ते और समय का है। ड्रिप सिंचाई के मामले में, लंबे समय तक
सामान के डीलर बिक्री प्रयासों और दस्तावेजीकरण आदि का काम खुद देखते थे, और खरीददार को केवल अपने हिस्से का भुगतान करना पड़ता था। यह सुनिश्चित
करता था कि उसकी सब्सिडी जारी हो जाए। लेकिन सीधे लाभ हस्तांतरण (डायरेक्ट बेनिफिट
ट्रांसफर) के नए तरीके, जिसमें यह सब्सिडी सीधे लाभार्थी के
बैंक खाते में हस्तांतरित हो जाती है, के अनुसार अब वह पूरा
भुगतान करने के बाद, लाभार्थी को जारी होता है।
सब्सिडी
अब डीलर को नहीं दी जाती है। ऐसा भी होता है,
कि खरीदार के पास खरीदने के लिए पैसे नहीं हों, और यदि वह डीलर से उधार लेता है, तो किसी सिक्योरिटी
के अभाव में डीलर पैसा आ जाने के बाद खरीददार से बकाया लेने के लिए उसके चक्कर
लगाए। इससे उसका लाभ पूरी तरह ख़त्म हो जाता है और उसने अब बिक्री के लिए कोशिश
करना बंद कर दिया है, जिससे प्रसार की गति को धीमा कर दिया।
आखिरी
मुद्दा, प्रति मद सब्सिडी उस तरह का प्रोत्साहन पैदा नहीं करती, जैसा टावरों के मामले में बहुत से सप्लायरों की कीमत में हिस्सेदारी के
कारण हुआ था। इसलिए, जहां भी बाजार पैदा करने के लिए लगने
वाली निश्चित लागत बड़ी है, वहां गति कम है। तो सवाल यह है
कि इस तरह की कितने अलग-अलग हालात और प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में ऐसे टावर
उपलब्ध हैं? यहाँ टॉवर का अर्थ है वह आवश्यक बुनियादी ढांचा,
जिससे पहुँच सम्बन्धी विस्तार होता है, और
परिणामस्वरूप प्रति यूनिट लागत को कम करता है।
विभाजन का मुद्दा
कीमत विभाजन सम्बन्धी मुद्दा कहीं आसान है। आमतौर पर, किसी भी उपयोगकर्ता को किसी गैजेट की 24 घंटे – सातों दिन जरूरत नहीं होती। इसलिए, एक गैजेट
का कई उपयोगकर्ता इस्तेमाल कर सकते हैं। कुछ मामलों में, ये
हमें अनौपचारिक साझीदारी या औपचारिक ठेके के माध्यम से होते हुए दिखाई पड़ते हैं।
लोग जुताई के लिए और ट्रॉलियों में ढुलाई के लिए, ट्रैक्टर
किराए पर लेते हैं। सिंचाई पंप उधार लिए और साझा किए जाते हैं। खेत के औजार और
यहां तक कि बैल कई लोगों द्वारा किराए पर लिए और उपयोग किए जाते हैं, हालाँकि उसका मालिक उनमें से सिर्फ कोई एक ही होता है।
प्रौद्योगिकी
के विभाजन को कैसे बढ़ावा दिया जाए?
इसे बाँटने लायक बनाने का तत्व कौन सा है? मुझे
लगता है, इसमें तीन मुद्दे हैं – परिवहन, सुरक्षा और उपयोगकर्ताओं की जानकारी, किसी भी वस्तु
को विभाजन के लायक बनाती हैं। स्पष्ट रूप से, यदि कोई गैजेट
बहुत भारी और बड़ा है, तो उसे एक जगह से दूसरी जगह आसानी से
नहीं ले जाया जा सकता है, जो उसके विभाजन को हतोत्साहित करता
है।
यदि
वस्तु के उपयोग में महत्वपूर्ण व्यक्तिगत जानकारी (जैसे स्मार्टफोन या लैपटॉप में)
का अवांछित बंटवारा शामिल है,
तो भी लोग उसे साझा नहीं करना चाहेंगे। और निश्चित रूप से, यदि टेक्नोलॉजी के जानकारों और उसे उपयोग करने के इच्छुक लोगों की संख्या
कम है, तो सिर्फ उसका विभाजन के लायक होना काफी नहीं है।
अच्छा यह होगा कि टेक्नोलॉजी तैयार करने वालों, प्रमोटरों, विक्रेताओं के साथ-साथ, सरकार भी टेक्नोलॉजी को विभाजन के लायक बनाने और उतने ही बजट में टेक्नोलॉजी के बेहतर प्रसार के लिए सामूहिक रूप से टॉवर बनाने के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करे।
संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद से फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।