लॉकडाउन के दौरान बाउल गायकों ने प्रदर्शन के लिए अपनाया डिजिटल माध्यम
पारम्परिक बाउल गायन में लगे, बंगाल के लोक गायकों पर लॉकडाउन का बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी जीविका में और कला को जीवित रखने में उन्हें टिकट-आधारित जीवंत प्रस्तुति से मदद मिली है
कोलकाता से करीब 160 किलोमीटर दूर, सुरिपारा गाँव के अपने एक-मंजिला घर में बैठे, अपने हाथ में एक-तार से बजने वाले अपने पारम्परिक वाद्ययंत्र, एकतारा थामे, देबदास बाउल (67) गा रहे हैं – “जैसे मधुमक्खी एक फूल से दूसरे फूल, शहद इकट्ठा करने के लिए उड़ा करती है, वैसे ही बाउल भगवान कृष्ण के नाम के गायन और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए, एक जगह से दूसरी जगह घूमता है।”
देबदास बाउल के मन को सुकून देने वाले भजन ने संक्षेप में, बंगाल के आध्यात्मिक लोक गायक, बाउल फ़क़ीरों के जीवन को बयां कर दिया, जो जाति और पंथ से हटकर, धर्म की समानता में विश्वास करते हैं। उनके सदस्यों में बाउल कहे जाने वाले हिंदू, जो मुख्य रूप से वैष्णव या भगवान विष्णु के अनुयायी हैं, और फ़क़ीर कहे जाने वाले मुसलमान, जो आमतौर पर सूफी हैं, शामिल हैं।
बाउल गायन की उत्पत्ति ज्ञात नहीं है, लेकिन इस शब्द का 15वीं शताब्दी के बंगाली ग्रंथों में जिक्र मिलता है। बाउल का जिक्र वृंदावन दासा ठाकुर के चैतन्य भागवत और कृष्णदास कविराज के चैतन्य चरितामृत में भी पाया जाता है।
देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान, परम्परा को जारी रखने वाले गायकों की आजीविका चली गई। कला के प्रति उत्साही लोगों के सहयोग से, उन्होंने बदलते समय के अनुरूप खुद को ढाला है, जैसे कि लॉकडाउन के दौरान हाल ही में डिजिटल हो जाना।
आजीविका के लिए प्रस्तुतियाँ
देबदास बाउल कहते हैं – “हम सदियों से बंगाल की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं और हमारे पूर्वजों ने मधुकरी करते जीवन बिताया, जो एक प्राचीन प्रथा है, जिसमें बाउल गाँवों में घर-घर जाकर गीत गाते हैं और खाद्यान्न प्राप्त करते हैं।”
मधुकरी प्रथा समय के साथ कम हो गई, क्योंकि बाउलों ने स्टेज शो करना और मेलों में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया, जिससे उन्हें अपनी आजीविका कमाने में मदद मिली।
देबदास बाउल ने VillageSquare.in को बताया – “इसने हमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। हम अपने प्रदर्शन के माध्यम से अपने परिवारों को चलाने में कामयाब रहे।” उन्होंने यूके, जापान और मैक्सिको जैसे देशों का दौरा किया है, और लेखक विलियम डेलरिम्पल और गायिका सुशीला रामन के साथ प्रदर्शन किया है।
लॉकडाउन प्रभाव
देबदास बाउल बताते हैं – “लेकिन लॉकडाउन हमारे जीवन में एक अभिशाप की तरह आया। हमारे कई कार्यक्रम रद्द हो गए और दूसरे कई स्थगित हो गए। अपने बच्चों को खिलाने के लिए वापिस मधुकरी अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होने के कारण हम कंगाल हो गए थे।” वह अकेले नहीं हैं। महामारी के चलते लॉकडाउन होने के कारण, बंगाल में कई हजारों बाउल असल में दरिद्र हो गए|
बीरभूम जिले के पारुलडांगा गाँव के रहने वाले, प्रसिद्ध बाउल गायकों में से एक, 50 वर्षीय दिबाकर दास बाउल ने बताया – “लॉकडाउन का हम पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और हमें सरकार द्वारा बाँटे जा रहे मुफ्त राशन पर जीवित रहना पड़ा। आमदनी का कोई श्रोत नहीं होने के कारण, हमें अपने परिवारों को खिलाना मुश्किल हो गया।”
हालात इस हद तक पहुंच गए थे कि अपने परिवारों को खिलाने के लिए, कुछ बाउलों को ई-रिक्शा चलाना पड़ा, सब्जियां और लॉटरी के टिकट बेचने पड़े। दिबाकर दास बाउल ने VillageSquare.in को बताया – “जीविका के लिए वे अब भी कुछ-कुछ काम कर रहे हैं और यहां तक कि आजीविका के लिए किसी भी तरह का काम करने के लिए, दूसरे शहरों में चले गए हैं।”
डिजिटल प्लेटफॉर्म
आखिरकार, गंभीर आर्थिक संकट में रह रहे बाउलों को अपनी दुर्दशा से निकलने के लिए आशा की किरण मिल गई, जब कला के प्रति उत्साही लोगों के एक समूह ने, उनके सहयोग के लिए आने का फैसला किया। प्रनॉय चक्रबर्ती कहते हैं – “हम बंगाल की कला और संस्कृति का लंबे समय से अनुसरण कर रहे हैं और लॉकडाउन के दौरान उनकी दयनीय स्थिति से असल में ही हिल गए थे।”
प्रोनॉय चक्रवर्ती कोलकाता के एक कला इतिहासकार हैं, जो युवा कलाकारों और कला इतिहासकारों का एक समूह, ‘सहजे स्वाधीन’ चलाते हैं। चक्रवर्ती ने VillageSquare.in को बताया – “हमने उन्हें संकट से बाहर निकालने के तरीके तलाशने शुरू किए।”
चक्रवर्ती ने अपने समूह के माध्यम से, बाउल कार्यक्रमों की जीवंत (लाइव) प्रस्तुति के लिए, एक डिजिटल मंच बनाने का फैसला किया। “हमने महसूस किया कि ऑनलाइन संगीत कार्यक्रम न केवल बाउलों को कुछ आर्थिक सहायता प्रदान करेंगे, बल्कि उनके संगीत को विश्व स्तर पर फैलाने में भी उनकी मदद करेंगे।”
व्यापक पहुंच
चक्रबर्ती का कहना है – “समूह के सदस्यों ने तिपाए (ट्राइपॉड), कैमरे और दूसरे उपकरणों की व्यवस्था की, क्योंकि हम में ज्यादातर कला प्रेमी हैं और हमारे पास इस तरह के सामान हैं। हमने संगीत कार्यक्रमों के आयोजन के लिए बाउलों से कोई पैसा नहीं लिया।”
टीम ने पिछले साल 15 अगस्त को आयोजित होने वाले पहले कार्यक्रम के लिए 150 रुपये का मामूली शुल्क लिया, जिसमें देबदास बाउल ने अपने बेटों, लक्ष्मण दास (48), गौतम दास (40) और उत्तम दास (36) के साथ लगभग 90 मिनट तक प्रस्तुति दी।
सहजे स्वाधीन के एक सदस्य ऋषिराज चक्रबर्ती (29) ने बताया – “प्रतिक्रिया हमारी उम्मीद से परे थी और हमने दान और टिकटों की बिक्री से मिले 50,000 रुपये उन्हें दिए। महत्वपूर्ण बात यह है कि ज्यादातर श्रोता बंगाल के बाहर से और विदेशों से भी थे, जिससे साबित होता है कि बाउल संगीत गैर-बंगालियों में भी लोकप्रिय है।”
उत्साहजनक सहयोग
सहजे स्वाधीन ने अक्टूबर और दिसंबर में दो और टिकटों वाले शो आयोजित किए, जिनमें लोगों ने बाउलों को चंदा भी दिया। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में खराब इंटरनेट कनेक्टिविटी के कारण लाइव प्रस्तुति मुश्किल हो जाती है। चक्रवर्ती कहते हैं – “हम प्रस्तुतियों को रिकॉर्ड करने और भुगतान करने वालों के साथ लिंक साझा करने के बारे में विचार कर रहे हैं।”
भारत में समन्वयवादी संस्कृतियों के लिए काम करने वाले दिल्ली-स्थित संगठन, ‘दारा शिकोह सेंटर फॉर द आर्ट्स’ से भी मदद मिलती है। ज्योत्सना सिंह कहती हैं – “यह वास्तव में दुख की बात है कि बाउलों की युवा पीढ़ी की पारिवारिक परम्परा को जारी रखने में दिलचस्पी नहीं है और वे आजीविका के दूसरे विकल्प चुन रहे हैं। यह हमारा कर्तव्य है कि हम कई सदियों पुरानी बाउल संस्कृति की रक्षा करें।”
ज्योत्सना सिंह संगठन की निदेशक हैं और जम्मू-कश्मीर के अंतिम शासक महाराजा हरि सिंह की पोती भी हैं। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “हमने बाउलों को कुछ आर्थिक सहायता प्रदान की और लाइव प्रस्तुति और दूसरी व्यवस्थाओं के लिए तकनीकी सहायता भी दी।”
नए मार्ग
लॉकडाउन के बाद से अमेरिका और भारत में छह ऑनलाइन शो कर चुके दिबाकर दास की पत्नी, रीना दास बाऊलिनी (46) को लगा, कि महामारी ने उनके लिए आजीविका का नया द्वार खोल दिया है। उन्होंने कहा – “यह सही है कि महामारी ने हमें काफी नुकसान पहुंचाया। बहुत से लोगों ने अपनी आमदनी का श्रोत खो दिया। लेकिन हमने कुछ महीनों के समय में अंतरराष्ट्रीय दर्शकों के लिए, लगातार शो करने की कल्पना नहीं की थी।”
रीना दास ने VillageSquare.in को बताया – “जब तक हालात पूरी तरह सामान्य नहीं हो जाते, हमारे पास अपने श्रोताओं से जुड़ने का एक माध्यम है। हम कलाकार हैं और संगीत हमारी ऑक्सीजन है। हम शून्य में नहीं जी सकते। लॉकडाउन के शुरुआती महीनों में, अकेलेपन और बिना प्रस्तुतियों के हालात ने हमारे जीवन को लगभग छीन लिया था।”
देवदास बाउल के पुत्र लक्ष्मण दास बाउल (48) ने बताया, कि राज्य सरकार द्वारा बीरभूम जिले के एक छोटे से गांव जयदेव केंदुली में एक बाउल अकादमी और बाउल गायकों का एक केंद्र बनाया जा रहा है, जहां मौजूदा बाउल उन लोगों को प्रशिक्षण देंगे, जिनकी कला सीखने और इसे जीवित रखने में गहरी रुचि है।
लक्ष्मण दास बाउल ने VillageSquare.in को बताया – “इस पहल से न केवल बाउलों की आजीविका को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि यह हमारी संस्कृति को भी संजो कर रखेगी। अकादमी में एक संग्रहालय भी होगा, जहां बाउलों से सम्बंधित कुछ विशेष कलाकृतियां रखी जाएंगी। इसमें हमारे संगीत वाद्ययंत्र जैसे एकतारा, दोतारा और डुगी बिक्री के लिए भी रखे जाएंगे।”
उनका कहना है – “यह प्रयास हमारी सदियों पुरानी संस्कृति को संरक्षित करने में एक बड़ी भूमिका निभाएगा। ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म एक स्वागत योग्य पहल है, लेकिन इसमें सभी को मौका नहीं मिलेगा, क्योंकि बंगाल में हज़ारों बाउल हैं। हमारे लिए आजीविका के अधिक विकल्प होने चाहिए।”
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं। ईमेल: gurvinder_singh93@yahoo.com विचार व्यक्तिगत हैं।
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