एक सहायक वातावरण प्रदान करने से ग्रामीण महिलाओं में परिवर्तन आता है और वे सशक्त होती हैं। अपनी क्षमताओं का विकास करते हुए, महिलाओं को नेतृत्व प्रदान करने और बदलाव लाने की अपनी क्षमता का एहसास होता है
वैश्विक दुनिया में जहाँ लैंगिक अधिकारों
का महत्त्व है, जहाँ समाज के समग्र विकास
के लिए महिलाओं की बढ़ती भागीदारी की उम्मीद की जाती है। यह एक सिक्के की तरह है,
जिसका एक पहलू कई सामाजिक क्षेत्रों में व्याप्त और पनपने वाले बहुत
से खतरों को रोकने के लिए, संसाधन डालने वाली सरकारों और
गैर-लाभकारी संगठनों के कार्यों को परिभाषित करता है।
सिक्के का दूसरा पहलू असफल कार्यों और
अध्ययनों का चित्रण करता है, जो बुनियादी जरूरतों तक से
वंचित होने से बचने के लिए, सतत लड़ाई लड़ रही महिलाओं के
संघर्ष और चुनौतियों को समझने में विफल रहते हैं।
भारत में कृषि कार्यों से जुड़े कुल कार्यबल
का 65% हिस्सा महिलाएँ हैं। स्वभाव से
महिलाएं मल्टी-टास्कर (एक समय में कई प्रकार के कार्य कर पाने वाली) होती हैं। वे
कार्य और घर के मोर्चों का प्रबंधन और नेतृत्व करती हैं। बहु-कार्यों की पूरी प्रक्रिया
में, नेतृत्व एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व-गुण है। एक सहायक
वातावरण कायापलट के लिए प्रेरित करके नेता पैदा करता है।
हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड के सहयोग से और
गैर-लाभकारी संगठन, मंजरी फाउंडेशन द्वारा
कार्यान्वित, सखी परियोजना ने बहुत सी महिलाओं के सशक्तीकरण
में मदद की है। इनमें से कुछ सशक्त महिलाएँ अपने नेतृत्व और कायापलट करने के गुणों
का प्रदर्शन करते हुए, इसे अगले स्तर पर ले गई।
परिवर्तन का
उत्प्रेरण
सखी परियोजना 2015 में शुरू की गई थी। यह परियोजना ग्रामीण महिलाओं
को एकजुट करके और परिवर्तन लाने वाली बनने के लिए, उनकी
सामूहिक क्षमता को बढ़ाने के लिए, स्वतंत्र महिला संस्थाओं
के निर्माण पर केंद्रित है।
इसका उद्देश्य सूक्ष्म-वित्तपोषण और
उद्यमों के विकास के माध्यम से, टिकाऊ आजीविका को बढ़ावा
देते हुए, महिलाओं के नेतृत्व वाली विकास पहलों के माध्यम से,
ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाना है। इस पहल
में क्षमता निर्माण, आर्थिक समावेश, आजीविका
सृजन और सूक्ष्म-उद्यम प्रबंधन मुख्य विषय हैं।
गृहिणी से
सरपंच
अनुसंधान से साबित हो चुका है कि नेता
अधिकतर बनाए जाते हैं। यह राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के कई गाँवों की उन निवासियों
पर लागू होता है, जिन्होंने कई वर्जनाओं को
तोड़ा है और युगों पुरानी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से बाहर आए हैं।
आशा देवी बलाई (27) राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुल्तानपुरा गाँव की
निवासी हैं। स्थानीय रिवाज के अनुसार, 18 साल की उम्र में
उसकी शादी कर दी गई, जिसका मतलब था कि बारहवीं कक्षा में
उसकी पढ़ाई रुक गई। फिर भी, उन्होंने शादी के बाद ग्रेजुएशन
की पढ़ाई की।
दो बच्चों की मां, बलाई, वीर तेजाजी स्वयं सहायता
समूह (SHG) की सदस्य बन गई। सखी परियोजना के हिस्से के रूप
में, उन्होंने कई बैठकों और प्रशिक्षणों में भाग लिया,
जिससे उनका दृष्टिकोण व्यापक हुआ। उन्होंने अपने परिवार की मदद के
लिए अपनी SHG से ऋण लिया। उन्होंने बहीखातों का रखरखाव करके SHG
की मदद की।
बाद में उन्हें अपने ग्राम संगठन के
प्रतिनिधि के रूप में चुना गया, जो स्वयं सहायता समूहों का
एक संघ है। उन्होंने अपने गाँव में एक भोजन कोष (फूड-बैंक) शुरू किया और उनकी पहल
से कई बेसहारा लाभान्वित हुए। उनके नेतृत्व-गुणों के कारण, उन्हें
2018 में बनी सखी उड़ान फेडरेशन की अध्यक्ष चुना गया।
उन्होंने COVID-19 महामारी के दौरान कई जागरूकता और राहत अभियानों का नेतृत्व किया। मास्क
बनाने से लेकर राशन किट बाँटने तक, एक प्रतिरक्षा-बढ़ाने
वाला हर्बल काढ़ा तैयार करने से लेकर, इसके वितरण तक, रक्तदान शिविर के आयोजन से लेकर संकटग्रस्त बेसहारा लोगों की सहायता तक,
में वह सबसे आगे थी।
उनकी भागीदारी ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया कि महिलाओं के नेतृत्व वाली संस्थाओं ने उनसे संपर्क किया और उनके पंचायत चुनाव लड़ने पर जोर दिया। उन्हें बडला पंचायत के सरपंच पद के लिए मनोनीत किया गया। उन्होंने अक्टूबर 2020 में हुए चुनाव में जीत हासिल की और अपने पैतृक गांव की सरपंच बनीं। अब वह छह गांवों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
मुद्दों का
समाधान
हुरडा तहसील के निवासियों ने पाया कि
उन्हें सप्लाई होने वाले पानी की गुणवत्ता ख़राब है, जिसके कारण पेट और आँतों संबंधी समस्याएं हो रही हैं। महासंघ की अध्यक्ष,
आशा बलाई और सखी महिलाओं ने कानून का पालन करते हुए शांतिपूर्ण
आंदोलन किया। 15 दिनों के अंदर, प्रशासन
ने हुरडा के निवासियों को पीने योग्य पानी की आपूर्ति सुनिश्चित कर दी।
आशा बलाई द्वारा प्रोत्साहित सखी महिलाओं
ने रक्तदान कर जीवन बचाने की पहल की। प्रत्येक रक्तदाता जीवन रक्षक है और महिला
प्रधान संस्थाएं इस नेक काम के लिए आगे आईं। कई महिलाओं के कमजोर होने और विटामिन
की कमी के बावजूद, उनमें योगदान देने का
उत्साह था। उन्होंने 51 यूनिट रक्त दान किया।
महामारी के दौरान, ग्राम संगठनों के माध्यम से, सखी
महिलाओं ने एक प्रतिरक्षा बढ़ाने वाला हर्बल पेय, काढ़ा तैयार
किया और समुदाय में वितरित किया। इसके अलावा वे जरूरतमंदों के लिए राशन, मास्क, सैनिटाइज़र, फल एवं
सब्जियाँ और जरूरत की दूसरी वस्तुओं की खरीद और वितरण में सक्रिय रूप से शामिल थी।
आगे का
रास्ता
इस समय महिला लाभार्थियों की संख्या लगभग 27,000 है। इस परियोजना का लक्ष्य पांच वर्षों में 27,500
परिवारों तक पहुंचने के लिए 2,300 स्वयं
सहायता समूहों का निर्माण करना है।
ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाएं अब एक नवोदित
सामाजिक विकास संस्था का हिस्सा हैं, जो महिलाओं की संस्थाओं को
बढ़ावा देने के लिए कटिबद्ध हैं। सामाजिक न्याय और समानता के इन सक्रिय केंद्रों
ने वंचित समुदायों की असंख्य महिलाओं को ग्रामीण कायापलट की ओर अग्रसर किया है।
परिवर्तन एक नियमित प्रक्रिया है और एक
क्षेत्र के रूप में सामाजिक विकास का मतलब ही मानसिकता, दृष्टिकोण और मानव स्थितियों को बदलना है। एक
प्रक्रिया के रूप में बदलाव के लिए अनुकूलन, मार्गदर्शन,
प्रेरणा और सतत सहयोग की आवश्यकता होती है।
बदलाव की प्रक्रिया का परिणाम एक स्थिति है, जो प्रतिनिधित्व की भावना को प्रेरित करता है।
नेतृत्व उसी का परिणाम है। इसमें समय लग सकता है, यह धैर्य
की परीक्षा ले सकता है, यह चुनौतियों को आमंत्रित कर सकता है,
लेकिन एक मंच तैयार करने के लिए यह एक उपयुक्त कदम है, जो लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है, और महिला
नेताओं को बदलाव के लिए उत्प्रेरक बनने में मदद करता है।
नरेश नैन वैगनिंगन युनिवर्सिटी, नीदरलैंड से डेवलपमेंट स्टडीज़ में शिक्षा पूरी करने के बाद, विकास क्षेत्र में कार्य करते रहे हैं। मयंक मुंद्रा ने खाद्य
प्रौद्योगिकी और कृषि व्यवसाय प्रबंधन में डिग्री प्राप्त की है। दोनों लेखक मंजरी
फाउंडेशन के साथ काम करते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। नरेश नैन को naresh@manjarifoundation.in
पर और मयंक मुंद्रा को mayank@manjarifoundation.in पर ईमेल किया जा सकता है|
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?