पहाड़ों में बड़े बांधों के निर्माण और पर्यावरण असंतुलन के दुष्प्रभावों के प्रति समय रहते सजग होने और जरूरी कदम उठाने की जरूरत है| छोटे-छोटे गड्ढों में प्लास्टिक शीट से पानी संचयन, पहाड़ों में व्यापक स्तर पर एक टिकाऊ और व्यावहारिक समाधान साबित हो सकता है
उत्तराखंड में 2013 में आई आपदा
और 7 फरवरी, 2021 को चमोली के तपोवन
में आई जलप्रलय की घटनाएँ, पूरी दुनिया को बड़े बांधों के
निर्माण और पर्यावरण असंतुलन से होने वाले दुष्परिणामों के प्रति आगाह कर रही हैं।
वर्ष 2013 में
केदारनाथ आपदा में भूस्खलन या ग्लेशियर के टूटने से मन्दाकिनी नदी में अचानक भयंकर
बाढ़ आ गयी थी और सैकड़ों लोग मारे गए या लापता हो गये थे| इसके
अतिरिक्त संपत्ति का भी अत्यधिक नुकसान हुआ था।
इसी वर्ष 7 फरवरी को गढ़वाल
क्षेत्र के तपोवन के पास ऋषि गंगा में ग्लेशियर टूटने से भयानक बाढ़ आ गई, जिसमें बिजली उत्पादन सयंत्र और जलाशय को क्षति पहुंची और जान-माल का काफी
नुकसान हुआ। यदि कभी इस तरह का भूस्खलन बड़े बांधों के प्रभाव क्षेत्र में हुआ,
तो निश्चित रूप से देश को भयानक परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।
जल संकट और स्थानीय
समाज
यह बड़े बांध
स्थानीय जनता को न तो सिंचाई की आपूर्ति करते हैं और न ही पेयजल की| उल्टे ये
प्राकृतिक रूप से संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं।
बड़े बांधों में बहुत अधिक जलराशि एकत्रित होने से पहाड़ों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है।
इसके अतिरिक्त इनके
निर्माण में भारी मशीनरी और विस्फोटकों आदि का प्रयोग होता है, जो पहाड़ों की
नींव को भी हिला देते हैं| इससे पहाड़ों में भूस्खलन,
भूकंप आदि की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। क्योंकि बड़े बांधों को भरने के
लिए नदियों का प्रवाह रोकना पड़ता है, इसलिए नदी के पानी से
जो नैसर्गिक भूमिगत जलसंचय होता है, उसमें भी व्यवधान पड़ता
है।
पर्वतीय क्षेत्र
उत्तराखंड में असंख्य नदियों में पानी की प्रचुर उपलब्धता के बावजूद यहाँ का आमजन
युगों से उस पानी का दोहन नहीं कर पाया है। कारण है कि पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण
खेत खलियान ऊंचाई पर स्थित होते हैं और नदी का बहाव नीचे की ओर होता है। हालांकि
पूर्व में कई जगह नदियों से नहर प्रणाली द्वारा खेतों की सिंचाई के लिये पानी की
व्यवस्था की गयी, परंतु
वह नाकाफी साबित हुई और कालांतर में अधिकांश परियोजनाएं ठप पड़ती गयीं।
पहाड़ों में वर्षा
ऋतु और उसके तीन चार महीने बाद तक तो पानी की उपलब्धता ठीक रहती है, क्योंकि बरसात
के कारण भूमि में नमी रहती है और प्राकृतिक जलस्रोतों से भी पानी का उत्पादन अधिक
मात्रा में होता रहता है। लेकिन ग्रीष्म ऋतु की आहट के साथ ही जहाँ एक ओर भूमि की
नमी खत्म होने लगती है, वहीं प्राकृतिक जलधाराओं में भी पानी
की उपलब्धता कम हो जाती है। मानसून से पहले, मार्च से जुलाई
तक, उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पानी की विकट समस्या
रहती है।
इसे ग्लोबल वार्मिंग
कहें या कोई और प्राकृतिक घटनाचक्र, पिछले कुछ समय से प्राकृतिक
जलस्रोतों पर भी खतरा मंडराने लगा है। आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में कई
प्राकृतिक जलस्रोत या तो सूख चुके हैं या सूखने की कगार पर हैं। उत्तराखंड जल
संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार राज्य के 500 जलस्रोत सूखने की
कगार पर हैं।
सरकारी कार्यक्रम
उत्तराखंड सरकार ने
भी जल नीति घोषित की है। इसमें वर्षा जल संग्रहण के साथ-साथ पारंपरिक स्रोतों को
बचाने का लक्ष्य रखा गया है। इस नीति में भूमिगत जल के अलावा बारिश के पानी को
संरक्षित करने की बात कही गयी है| परंतु अभी तक के हालातों और अनुभवों को देखते हुए यह
योजनाएं जमीन पर उतरती नहीं दिखाई पड़ती।
यदि सरकार चाहे तो
किसी भी बड़ी नदी या झरने से पंपिंग व्यवस्था द्वारा हर पहाड़ी गाँव को पानी उपलब्ध
करा सकती है। इसके अलावा पहाड़ी नदियों पर छोटे-छोटे जलाशय/बांध या बैराज बनाकर
संचित पानी ग्रामीणों को उपलब्ध कराया जा सकता है। इस तरह से संग्रहित किया गया
पानी न सिर्फ पहाड़ी लोगों की, अपितु पहाड़ के नीचे तराई के लोगों के लिए पानी की कमी को
काफी हद तक पूरा कर सकता है।
अभी तक के अनुभवों
से सरकारों की इस दिशा में संजीदगी नजर नहीं आती। इसकी बजाए सरकारों का ध्यान पूरी
तरह राजस्व प्राप्ति पर रहा है। उत्तराखंड के पहाड़ों में जगह जगह बड़े डैम बनाये
गये हैं या बनाये जा रहे हैं, जिनसे बिजली उत्पादन कर प्रदेश से बाहर भी भेजी जाती है।
अंतर्राष्ट्रीय
परिदृश्य
“रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून” – रहीम ने आज से सैकड़ों साल पहले ये बात समझ ली थी, कि
पानी का होना कितना जरूरी है। हालांकि रहीम के समय भी सदा नीरा गंगा, यमुना जैसी नदियां बहती थीं, फिर भी उन्होंने पानी
की महत्ता समझ ली थी। वर्तमान में पानी की जरूरत और किल्लत की संभावना को देखते
हुए कई विश्लेषक यहां तक कह रहे हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये होगा।
अभी तक पानी बनाने
वाली तकनीकी चलन में नहीं है। समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने की तकनीक
कुछ देशों में जरूर है, परंतु
बहुत ही ख़र्चीला होने के कारण गरीब देशों की हैसियत से बाहर की चीज़ है। घूम फिरकर
वही प्रश्न उठता है कि आखिर पानी की किल्लत कैसे दूर किया जाये, ताकि सभी को समान रूप से आवश्यकतानुसार न केवल पानी उपलब्ध कराया जा सके,
बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए भी पानी को बचाया जा सके?
छोटे जलाशय, छोटे बाँध – एक समाधान
इसे ग्लोबल
वार्मिंग कहें या कोई और प्राकृतिक घटनाचक्र, पिछले कुछ समय से प्राकृतिक
जलस्रोतों पर भी खतरा मंडराने लगा है। आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में कई
प्राकृतिक जलस्रोत या तो सूख चुके हैं या सूखने की कगार पर हैं। उत्तराखंड जल
संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार राज्य के 500 जलस्रोत सूखने की
कगार पर हैं।
जलसंचय के लिए
पहाड़ी क्षेत्र में बड़े जलाशयों/बांधों का निर्माण अत्यधिक जोखिम भरा है। इनकी बजाए
जगह-जगह छोटे-छोटे बांध बनाये जाएं, तो न सिर्फ भूमिगत जलस्तर बढ़ेगा,
बल्कि पानी के प्राकृतिक जलस्रोत भी रिचार्ज होते रहेंगे। इसके
अलावा बरसाती नालों में चेक-डैम बनाये जा सकते हैं, जिससे
धरती की जलधारण क्षमता बढ़ती है और वर्षा जल का भूमिगत जल संचय होता है। इससे पानी
की कमी से जूझ रहे ग्रामीणों को बड़ी राहत मिल सकेगी।
सूक्ष्म पहल –
व्यापक सम्भावना
अब प्रश्न यह उठता
है कि इसके अतिरिक्त क्या कुछ किया जा सकता है, जिससे कम संसाधनों से पहाड़ में पानी
की सुलभता सुनिश्चित की जा सके? इस दिशा में कई लोगों और
संगठनों ने अलग-अलग स्थानों पर रचनात्मक प्रयास किये हैं। इसी समस्या को ध्यान में
रखते हुये विगत दिनों नैनीताल जिले के रामगढ़ और धारी क्षेत्र में एक स्वयंसेवी
संगठन ‘जनमैत्री संगठन’ ने पानी को
बचाने की दिशा में सराहनीय कार्य किया है।
क्योंकि पहाड़ों में
जब-तब बारिश होती रहती है और बारिश का पानी बहकर नदियों में समा जाता है, इसलिये जरूरत
थी कुदरत के इस निःशुल्क उपहार को समेटने की। इस तथ्य पर ध्यान केंद्रित करते हुए,
संस्था ने बारिश के पानी को समेटने, सहेजने के
लिये जमीन में गड्ढे खोद कर कच्चे टैंक बनाये, जिस पर
प्लास्टिक शीट डालकर बरसात के पानी को जमा करने की व्यवस्था की।
जनमैत्री संगठन के
संयोजक बची सिंह बिष्ट ने बताया – “पानी बचाने के इस कार्य में उन्हें
कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का भी सहयोग मिला| उन्होंने जल संचय
के लिए गड्ढों में बिछाने के लिए प्लास्टिक शीट उपलब्ध करवाने हेतु आर्थिक सहायता
प्रदान की। इस तरह वह अब तक हजारों गड्ढे बनवाकर लाखों लीटर पानी का संचय कर चुके
हैं। इससे ग्रामीणों की पेयजल, पशुओं के लिए पानी तथा फल और
सब्ज़ी उत्पादन के लिए जरूरतें पूरी हुई हैं, जिससे इन
ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।”
प्रयास का पहला कदम
जनमैत्री संगठन ने
वर्ष 2017-18 से 2019-20 में कुल 314 टैंक
बनाये, जिनमें 73 नैनीताल के धारी
ब्लाक के बुढ़िबना गाँव में, 16 रामगढ़ ब्लाक के सूपी में,
4 लोद और गल्ला में तथा 2 नथुवाखान गाँव में
बनाए गए। शेष सतबुंगा ग्राम पंचायत के पाटा, धुरा, दुत्कानधार, लोधिया में बनाये गए हैं। वर्ष 2015
व 2016 में भी गल्ला व आसपास के क्षेत्रों में
जनमैत्री द्वारा 100 प्लास्टिक के टैंक बनाये गए थे, जिनमें अभी भी बहुत से टैंक जिंदा और कार्यरत हैं।
इस तरह जनमैत्री के
सहयोग से बनाये गए पानी के टैंको से लगभग 50 लाख लीटर पानी संचय किया गया,
जिसका उपयोग स्थानीय ग्रामीणों ने किया। जल संचय की उनकी इस मुहिम
में रामगढ़ और धारी ब्लॉक के सूपी, पाटा, बूढीबना, देवटांडा, जयपुर,
लोद, अल्मोड़ी, गल्ला,
कोकिलबना आदि अनेकों गांवों के ग्रामीण शामिल होकर लाभ उठा चुके
हैं।
स्थानीय कृषक महेश
गलिया ने बताया – “इस
क्षेत्र में पानी की बहुत किल्लत है। पीने के पानी के लिये भी ग्रामीणों को जूझना
पड़ता है। गृह निर्माण आदि के लिये डेढ़ रुपया प्रति लीटर मूल्य चुका कर टैंकर से
पानी खरीदना पड़ता है। मुझे अपने घर के निर्माण के दौरान इन टैंकों की उपयोगिता का
पता लगा।”
महेश गलिया के पास
तीन पानी के टैंक हैं, जिनमें
हरेक की क्षमता लगभग 10 हजार लीटर है। इस तरह उन्होंने घर के
निर्माण के लिए 30 हजार लीटर पानी इन टैंकों से इस्तेमाल
किया, जिससे उन्हें लगभग 45 हजार रुपये
की बचत हुई। वे घर के पास बनाए गए टैंक का पानी घर की जरूरतों और जानवरों को पिलाने
के लिए करते हैं, जबकि खेतों के बीच में बनाये टैंकों का
पानी फल और सब्ज़ी उगाने के लिए करते हैं।
स्थानीय किसान हरि
नयाल के अनुसार, उन्हें
जनमैत्री के मार्फ़त 2007 में प्लास्टिक शीट मिली, जो उन्होंने गड्ढा खोदकर उसमें बिछाकर पानी बचाया और पहले ही साल लगभग 30
हजार रुपये का खीरा पैदा किया। इस समय उनके पास 4 टैंक हैं, जिनमें वे लगभग 40 हजार
लीटर तक पानी जमा करते हैं। वे इस पानी का इस्तेमाल सेब, खुमानी,
आड़ू, नाशपाती और मटर,आलू,
खीरा आदि सब्जियों की सिंचाई में करते हैं। इस तरह बचाये हुये पानी
से उन्होंने लगभग 3-4 लाख रुपये की फल और सब्ज़ी का सालाना
व्यवसाय करते हैं। वह कहते हैं कि वह अपनी खेती से आत्मनिर्भर तो हैं ही, नौकरी के तनाव से मुक्त भी हैं।
यह सही है कि गड्ढे खोदकर और उनमें प्लास्टिक शीट बिछाकर पानी बचाना, पहाड़ के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए शुरुआत में थोड़ा खर्चीला कार्य है| लेकिन यदि सामुदायिक और सहकारी रूप में इस कार्य को किया जाए, तो ग्रामीणों के लिए जल-संचय कठिन कार्य नहीं होगा। प्रधानमंत्री भी आज ‘आत्मनिर्भर’ होने की बात करते हैं। संभव है कि वर्षा जल संग्रहण जैसा कदम पर्वतीय क्षेत्रों की उन्नति और आत्म-निर्भरता की दिशा में मील का पत्थर साबित हो।
गिरीश चंद्र ‘गोपी’ चरखा के लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं । चरखा फीचर्स के सौजन्य से ईमेल : charkhahindifeature.service@gmail.com
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?