घोटुल, जहाँ युवा पारम्परिक रूप से जिम्मेदारियाँ निभाना सीखते थे, कई कारणों से पतन का शिकार हो गई। जनजातियों का मानना है कि सरकार की उन्हें पुनर्जीवित करने की योजना से जनजातीय संस्कृति को बचाए रखेगी
छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले की एडका
पंचायत के एक आदिवासी युवक, रामलाल दुग्गा ने
स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की है, जो इन क्षेत्रों में एक
दुर्लभ उपलब्धि है। अपनी पढ़ाई में अच्छा होने के साथ-साथ, दुग्गा
अपनी ख़ास सांस्कृतिक पहचान के संरक्षण के लिए भी उत्सुक हैं।
रामलाल बस्तर संभाग के गाँव में हाल ही में
बने एक आदिवासी युवा समूह के सदस्यों में से एक है। समूह का मुख्य उद्देश्य गोंड
और मुरिया जनजातियों के बीच लोकप्रिय, ज्ञान और संस्कृति के
महत्वपूर्ण केंद्रों, घोटुलों को बढ़ावा देना है। समूह में
रामलाल के अलावा 25 सदस्य हैं।
घोटुल लम्बी-चौड़ी झोपड़ी जैसी संरचनाएं हैं, जो कभी सात जिलों वाले बस्तर संभाग के कई गांवों में
बहुतायत में पाई जाती थी, लेकिन वर्तमान इनमें गिरावट हो रही
है। नारायणपुर कोंडागांव और कांकेर जिलों में, कुछ दशक पहले
तक बहुत से घोटुल अस्तित्व में थे।
इन केंद्रों में भव्य उत्सव मनाए जाते थे।
संगीत और नृत्य से उपस्थित लोगों का मनोरंजन होता था और आदिवासी युवा अपने लिए
जीवन साथी का चयन करते थे। घोटुल की अवधारणा को पुनर्जीवित करने के लिए, छत्तीसगढ़ सरकार ने हाल ही में 100 नई संरचनाओं के निर्माण और बहुत से गाँवों में मौजूद क्षतिग्रस्त ढांचों
की मरम्मत की घोषणा की है।
घोटुलों का
पतन
दुग्गा ने VillageSquare.in को बताया – “कुछ दशक पहले तक प्रत्येक गांव में एक घोटुल हुआ करता था। हम में से बहुत से अब भी घोटुलों में जाते हैं, आमतौर पर शाम 7 से 10 बजे के बीच। आमतौर पर इन केंद्रों में 18-22 आयु वर्ग के युवा आते हैं।”
घोटुलों के धीरे-धीरे इस पतन मुख्य कारणों
में से एक, आधुनिक शिक्षा प्रणाली का
प्रभुत्व है। क्योंकि बहुत से युवा मुख्यधारा में शामिल होने के लिए इन दिनों
स्कूल और कॉलेजों में जाते हैं, इसलिए घोटुलों का उपयोग नहीं
किया जाता। दुग्गा कहते हैं – “कुछ जगहों पर घोटुल
संस्कृति इसलिए भी खत्म हो रही है, क्योंकि बहुत से युवा काम
करने और आजीविका कमाने के लिए बाहर जा रहे हैं।”
जैसे ही आदिवासी बच्चों को शिक्षा प्रदान
करने के लिए स्कूलों के प्रयास हुए, बहुतों ने पढ़ाई के दबाव
में आना बंद कर दिया, जिससे घोटुल बंद हो गए। कभी घोटुलों से
दूसरे उद्देश्यों की पूर्ती भी होती थी, लेकिन गांवों में
सामुदायिक केंद्रों के आने से उनका महत्व कम हो गया है।
बस्तर की संस्कृति और विरासत को बढ़ावा देने
वाली एक यात्रा स्टार्ट-अप, अनएक्सप्लोर्ड बस्तर के
जीत सिंह आर्य के अनुसार, यह एक सीखने की जगह है जहां युवा
उम्र में परिपक्व होने के साथ जीवन की विभिन्न जिम्मेदारियाँ निभाना सीखते हैं।
आर्य ने VillageSquare.in को बताया – “नृत्य और संगीत हमेशा घोटुल संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। परम्परागत रूप से, पुरुष नृत्य करके और उन्हें लकड़ी की कंघी देकर महिलाओं को प्रभावित करते थे।” लेकिन आदिवासी दुनिया के बाहर, घोटुल को अक्सर महिला-पुरुषों के मुक्त रूप से मिलने-जुलने के स्थान के तौर पर देखा जाता है।
विद्रोहियों
का प्रभाव
जनजातीय एकता और विद्रोह के डर से, माओवादियों ने भी सहस्राब्दी (millenium) बदलाव के साथ, घोटुल की अवधारणा को रोकने की कोशिश
की। इसलिए कई गाँवों में, घोटुल निर्जन हो चुके हैं और अतीत
की याद दिलाते हैं।
आर्य के साथ काम करने वाले हेम सिंह ठाकुर ने बताया कि अपने शोध के दौरान उन्हें कई बुजुर्ग लोग मिले, जिन्होंने शिकायत की, कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने बच्चों को घोटुल में आने को लेकर और अध्यापकों को अपनी सांस्कृतिक पहचान में बच्चों की रुचि जिन्दा रखने को लेकर निरुत्साहित किया है।
कुछ ग्रामीणों के अनुसार, वामपंथी उग्रवाद के प्रभुत्व के समय, खासतौर से आदिवासी युवाओं की एक इकाई ‘सलवा जुडूम’
के समय, जिसे सरकार विद्रोहियों का मुकाबला
करने के लिए प्रशिक्षण देती थी, भी घोटुलों को जबरदस्त झटका
लगा, क्योंकि माओवादी युवाओं को अपनी सेना में शामिल करना
चाहते थे।
पाल्की गाँव के सरपंच, लक्ष्मण सिंह दुग्गा ने VillageSquare.in को बताया – “क्योंकि बहुत से महत्वपूर्ण फैसले घोटुलों में होने वाली बैठकों में लिए जाते थे, इसलिए कभी कभी माओवादी वहां जाने वालों पर दबाव डालते थे।”
नारायणपुर के अबूझमाड़ क्षेत्र, जहां अब भी माओवादियों का बोलबाला है, में काम करने वाले एक स्वास्थ्यकर्मी ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर
बताया, कि घोटुल आदिवासी एकता का प्रतीक होने के कारण,
चरमपंथी इन केंद्रों को तोड़ना चाहते हैं। उन्होंने कहा –
“अबूझमाड़ में ठीक से स्कूल न होने के कारण घोटुल अब भी हैं।”
पुनरुद्धार
की योजना
आर्य कहते हैं – “यह अच्छी बात है कि सरकार ने घोटुलों के महत्व
और उनके बस्तर की जनजातीय संस्कृति के साथ विशेष संबंध को समझा है।” सरकारी पहल के हिस्से के रूप में, आर्य और उनकी टीम
ने पिछले साल नवंबर में नारायणपुर जिले के घोटुलों का दौरा किया।
एडका ग्राम पंचायत सचिव, संतूराम सोरी ने कहा, कि क्योंकि कुछ गाँवों में अब भी घोटुल मौजूद हैं, उन्हें बचाने के प्रयास किए जा रहे हैं। सोरी ने VillageSquare.in को बताया – “एक प्रस्ताव पहले ही पारित हो चुका है और पुनरुद्धार पर काम जल्दी ही शुरू हो जाएगा।”
एडका की सरपंच सुनीता मंडावी ने बताया – “नारायणपुर के कातुलबेरा में एक पुराना घोटुल अब भी
मौजूद है। आजकल स्कूलों में पढ़ने वाले कुछ छात्र शनिवार को घोटुलों में जाते हैं,
लेकिन वे रात को नहीं रुकते।”
मंडावी कहती हैं – “उनमें से ज्यादातर 15 या 16
साल की उम्र में घोटुलों में जाना शुरू कर देते हैं। पहले, घोटुल मिट्टी के बने होते थे और इनमें से कुछ खूबसूरत ढांचे कोंडागांव
जिले में अब भी देखी जा सकती हैं।”
आर्य को लगता है कि बस्तर में सामुदायिक
पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए घोटुल एक आदर्श तरीका हो सकता है। उनका कहना है – “हम पर्यटकों के माध्यम से घोटुल का संरक्षण करना
चाहते हैं और चाहते हैं कि आगंतुक आदिवासियों के साथ आनंद लें, नृत्य करें और जश्न मनाएं। हालांकि घोटुल अंदरूनी गाँवों में अब भी मौजूद
हैं, लेकिन उनमें से कुछ में बहुत सारे बदलाव आए हैं,
जहां लड़कियों को रात में रुकने की इजाज़त नहीं है।”
अनूठे
ढांचों का पुनरुद्धार
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की घोषणा के बाद, नारायणपुर जिला प्रशासन इन ढांचों के पुनरुद्धार की
दिशा में काम करने की तैयारी कर रहा है, जिनमें से कुछ
गांवों के बाहर स्थित हैं। कुछ घोटुलों में खुला स्थान होता है, जो नृत्य के लिए आदर्श है, जबकि बंद किस्म वाले रहने
के लिए बने हैं।
नारायणपुर के कलेक्टर धर्मेश साहू ने बताया
कि प्रत्येक घोटुल की मरम्मत पर 5 लाख रुपया खर्च किया जाएगा
और नवीनीकरण एवं मरम्मत के लिए स्थानीय कारीगरों । साहू के अनुसार, प्रक्रिया के हिस्से के रूप में, स्थानीय संस्कृति
का सम्मान किया जाएगा और काम के लिए उपलब्ध स्थानीय सामग्री उपयोग की जाएगी।
परामर्श के लिए रायपुर के पं. रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों की एक
टीम भी रखी गई है।
गढ़ बंगाल गाँव के प्राथमिक विद्यालय के
शिक्षक, महेंद्र मंडावी का कहना था – “यह सौभाग्य की बात है कि अंदरूनी गाँवों में कुछ घोटुल अभी भी इस्तेमाल
होते हैं। हम बैठकों के लिए इनका दौरा करते हैं और बहुत सारे युवा आते हैं। वे
नृत्य करते हैं और संगीत बजाते हैं। हमारे समुदाय के कुछ लोग घोटुलों के बारे में लोगों
को जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं।”
वह कहते हैं – “बहुत से माता-पिता आजकल अपने
बच्चों को घोटुल में नहीं भेजते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है
कि यह समय की बर्बादी है। लेकिन घोटुल हमारी संस्कृति की निरंतरता सुनिश्चित
करेंगे।”
दीपान्विता गीता नियोगी दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल- deepanwita.t@gmail.com
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?