जैविक कपास उगाकर किसान हुए “हरित”

and राजकोट, गुजरात

जैविक खेती के तरीके अपनाने के फलस्वरूप मृदा-स्वास्थ्य (मिट्टी की गुणवत्ता) में सुधार हुआ है। जैविक कपास का बाजार में उतना ही मूल्य मिलने के बावजूद, इससे किसानों के लिए खेती की लागत कम हुई है

हेमंतभाई मेटालिया और हरेशभाई काकड़िया कपास उगाने वाले युवा किसान हैं। मेटालिया की राजकोट जिले के विच्छिया प्रशासनिक ब्लॉक के लालावदार गांव में एक एकड़ जमीन है। काकड़िया जसदान प्रशासनिक ब्लॉक के भड़ला गांव में एक एकड़ जमीन में खेती कर रहे हैं।

बहुत से किसान जैविक खेती के तरीकों से परिचित हैं। लेकिन जब इसे लागू करने की बात आती है, तो ज्यादा किसान इसके लिए तैयार नहीं होते। ज्ञात हुआ है कि पहले कुछ सालों में जैविक खेती लाभदायक नहीं है और ज्यादा किसान ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं।

मेटालिया और काकड़िया के साथ भी ऐसा ही था। उनका कहना था कि मोबाइल फोन, रेडियो और टेलीविजन तक आसान पहुंच होने से, उन्होंने जैविक खेती के बारे में बहुत कुछ सुना था। लेकिन 15 सालों से खेती करते होने के बावजूद, उन्होंने जैविक खेती के लिए प्रयास नहीं किया।

जब वे आगा खान रूरल सपोर्ट प्रोग्राम-इंडिया (AKRSPI) द्वारा राजकोट में टिकाऊ खेती के तरीकों को बढ़ावा देने के लिए संचालित परियोजना, बेहतर कपास पहल (बैटर कॉटन इनिशिएटिव-BTI) में शामिल हुए, तो उन्हें जैविक खेती के बारे में अधिक जानकारी मिली। जैविक खेती अपनाने के बाद, उन्हें अपने खेतों में अंतर दिखाई देता है।

स्थिरता (टिकाऊपन) को प्रोत्साहन

राजकोट जिले की मुख्य फसलें कपास और मूंगफली हैं। लगभग 60% किसान कपास उगाते हैं। लगभग 60% भूमि पर कपास की खेती होती है। लेकिन आमतौर पर पारम्परिक खेती होती रही है। किसान प्रतिबंधित मोनोक्रोटोफोस जैसे कीटनाशक का उपयोग करते थे, जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा हुईं। खेत से लाभकारी कीट गायब हो गए।

टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने के उद्देश्य से, बेटर कॉटन इनिशिएटिव (BTI) के अंतर्गत कार्यशालाओं का आयोजन किया जाता है। कार्यशालाओं का जोर किसानों को खेती के उन तरीकों के बारे में जानकारी प्रदान करने पर है, जिनसे सामग्री (इनपुट्स) की लागत कम और उत्पादन बेहतर होता है।

कार्यशालाओं का आयोजन किसानों की जमीन पर या उन स्थानों पर किया जाता है, जहां ज्यादा से ज्यादा किसान शामिल हो सकें। तकनीकी मॉड्यूल फसल की बुआई से पहले, बुआई के बाद और तुड़ाई के समय के अनुसार साझा किए जाते हैं, जबकि दूसरे मॉड्यूलों का समय मौसम और किसानों की जरूरतों के अनुसार तय किया जाता है।

लीलाबेन लख्तारिया जैविक घी और नागफनी का जूस बेचने वाली एक उद्यमी होने के अलावा, जैविक खेती में अग्रणी हैं (छायाकार – सुनील गदाधर)

इस पहल में सम्बंधित सरकारी विभाग, कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विज्ञान केंद्र (KVK), कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन एजेंसी (ATMA), भारतीय कृषक उर्वरक सहकारी लिमिटेड (IFFCO) और गुजरात राज्य उर्वरक एवं रसायन लिमिटेड (GSFC) शामिल हैं। 

जैविक की ओर बदलाव

किसान अक्सर बदल कर जैविक तरीकों को अपनाने में संकोच करते हैं, क्योंकि इससे तत्काल आर्थिक लाभ नहीं मिलता। कृषि-कार्यशालाओं के संसाधन-व्यक्तियों में से एक, अशोक मेर ने कहा – “मिट्टी का उपजाऊपन इस हद तक कम हो गया है, कि सिर्फ जैविक खाद डालने से फसलों का 100% उत्पादन नहीं हो सकता।”

वैसी ही चुनौती की सम्भावना के बावजूद, कपास उगाने वाले युवा किसान मेटालिया और काकड़िया जैविक खेती के फायदों के बारे में आश्वस्त थे, और लगभग दो साल पहले उन्होंने इसे आजमाने का फैसला किया। पहले मेटालिया अपनी एक एकड़ भूमि में मिश्रित रासायनिक खाद के 17 बैग इस्तेमाल करते थे। उन्होंने महसूस किया कि उर्वरक की लागत उन फायदों से कहीं ज्यादा थी, जो उन्हें उससे प्राप्त होते थे।

उन्होंने यह भी देखा कि दिन प्रतिदिन उनकी मिट्टी की गुणवत्ता बिगड़ती जा रही है, क्योंकि वह छूकर महसूस कर रहे थे कि मिट्टी सख्त हो रही है। उन्होंने देखा कि उनके खेत से केंचुए गायब हो गए थे। फिर उन्होंने अपने खेत की मिट्टी की जाँच कराने का निर्णय लिया, जिससे उनके विचार की पुष्टि हुई कि जैविक कार्बन बेहद कम है। इसलिए उन्होंने इसके लिए कदम उठाने का फैसला किया।

किसानों ने अपने खेत में जीवामृत, दशपर्णी, अकाडानो, आजमस्त्र, छाछ का घोल और नीमस्त्र जैसे जैव-कीटनाशक तैयार करने शुरू कर दिए। इन जैव-कीटनाशकों की मुख्य सामग्री में गोमूत्र, गोबर, नीम के पेड़ के पत्ते, पपीता, अरंड, करंज और कस्टर्ड सेब का पेड़, छाछ, अजवाईन के बीज, आदि शामिल हैं, जिन्हें किसान बिना ज्यादा खर्चा किए आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

वे हाथों से या ड्रिप तकनीक का उपयोग करके जैव कीटनाशक का छिड़काव करते हैं। इनका इस्तेमाल करके वे कीटों के हमलों और बीमारियों को रोकने और नियंत्रण में सफल हुए हैं। उर्वरक के तौर पर वे खेत की खाद का इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने मिट्टी के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए, मिट्टी की नाइट्रोजन को ठीक करने में सहायक काले चने और हरे चने उगाने के अलावा, वैकल्पिक फसल-शैली को भी अपनाया है। परिवार की खपत के लिए वे जैविक सब्जियां भी उगाते हैं।

जैविक खेती में अग्रणी

जहाँ युवा किसानों ने जैविक खेती को हाल में अपनाया है, लीलाबेन लख्तारिया ने इसे 15 साल पहले शुरू कर दिया था। लख्तारिया का खेत पिछले 15 सालों से एक जैविक-खेत है, जिसने उनके गांव, लालवदार में बाकी समुदाय के लिए एक उदाहरण का काम किया है।

गाँव में जैविक खेती के अग्रदूतों में से एक के रूप में, वह जैविक खेती में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए एक खजाना हैं। इस क्षेत्र में उनके ज्ञान और काम ने उन्हें पुरस्कार और केवीके की वैज्ञानिक सलाहकार समिति में एक स्थान दिलवाया है।

जैविक खेती को आसान बनाने के लिए एक गाय में निवेश करने के बावजूद, काकड़िया खुश हैं, क्योंकि खेती में उनकी लागत कम हो गई है (छायाकार – अश्विन जाटापारा)

वह न सिर्फ एक किसान हैं, बल्कि एक सिलसिलेवार उद्यमी भी हैं। उनके पास एक गिर गाय है, जिसका मूत्र जैविक खेती के लिए महत्वपूर्ण है; और दूध परिवार के लिए अतिरिक्त आमदनी प्रदान करता है। दूध से वह जैविक घी बनाती हैं और हर साल अहमदाबाद के मेलों में बेचती है।

सकारात्मक बदलाव

किसान क्योंकि बीटी बीज का इस्तेमाल करते हैं, इसलिए वे अपनी फसल आम बाजारों में बेचते हैं। संसाधन-व्यक्तियों में से एक का कहना था – “शुद्ध जैविक बीजों से पैदावार कम होती है और इसलिए किसान बीटी बीज पसंद करते हैं। इसके अलावा, बाजार में जैविक कपास के लिए बहुत ज्यादा कीमत मिलना जरूरी नहीं है, इसलिए किसानों को समझाना मुश्किल है।”

फिर भी, नतीजों से किसान खुश हैं। जैविक तरीकों को अपनाने के बाद, वे बदलाव देख पाए हैं। मिट्टी की एक जाँच से पता चला कि मिट्टी में जैविक कार्बन का प्रतिशत बढ़ गया था। गुबरैले (लेडीबग), क्राइसोपरला, मेंटिस, तितली और केंचुए जैसे लाभकारी कीट लौट आए और फसलें स्वस्थ दिखने लगीं।

खेती की लागत काफी हद तक कम हो गई। काकड़िया कहते हैं – “जैविक अपनाने से पहले, खाद और कीटनाशकों की लागत प्रति एकड़ लगभग 6,000 रुपये थी। अब मेरे पास अपनी गाय है और दूसरी चीजें आसानी से उपलब्ध हैं और इस तरह मैं बहुत बचत कर सकता हूं। कीटों के हमलों में काफी कमी आई है।”

मेटालिया, जिनके पास तीन गाय थी, के लिए जैविक खेती अपनाना अपेक्षाकृत आसान था। वे पिछले हालात पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं – “यदि किसान अपने खर्चे भी पूरे न कर सके और मिट्टी का स्वास्थ्य भी ख़राब होता हो, तो किसान कैसे बचेगा।”

काकड़िया इस बदलाव से बेहद खुश हैं। वह कहते हैं – “हालांकि जैविक खेती पर जाने के लिए गाय खरीदने पर मुझे काफी पैसा खर्च करना पड़ा, लेकिन मैं खुश हूँ, क्योंकि इसने मेरे लिए कई दरवाजे खोल दिए हैं।” क्योंकि वह कपास के अलावा मूंगफली भी उगाते हैं और क्योंकि मूल्य-वर्द्धित (वैल्यू ऐडिड) जैविक उत्पाद से ज्यादा आमदनी होती है, इसलिए उन्होंने अपने खेत पर अपने भाई के साथ, मूंगफली तेल उत्पादन की एक छोटी इकाई शुरू की। तेल की बिक्री से उनकी आमदनी में कई गुना वृद्धि हुई है।

पीयूष वड़ोदरिया कृषि में स्नातकोत्तर हैं। देबंजना पॉल विकास अध्ययन में स्नातकोत्तर  हैं। दोनों AKRSP (I) से सम्बद्ध हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल: debanjana.paul@akdn.org