हम जानते हैं कि पुरातन काल में, ग्रामीण कारीगर विभिन्न प्रकार के शिल्प-आधारित उत्पादन करते थे, और लोगों की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करने के लिए वस्त्र-उत्पादों ने स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान दिया। अधिकतर स्थानों पर क्राफ्ट या शिल्पकारी, विशेषज्ञों का व्यापार खानदानी पेशा बन गया। इसका आगे चलकर जातिगत नामकरण हो गया और सदियाँ बीतते सामाजिक व्यवस्था का एक अभिन्न अंग बन गया।
आधुनिक समय में, शहरी निर्माण-क्षेत्र ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर गंभीर चोट पहुँचाई, यहां तक कि कुछ मामलों में इसने इतना नुकसान किया, कि उसकी वापसी असंभव हो गई। इस घुसपैठ ने शिल्पकारों और कारीगरों द्वारा बनाए गए शिल्प और वस्त्र-उत्पादों की स्थानीय मांग को नष्ट कर दिया है। इस तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आर्थिक लाभ और इससे जुड़े रोजगार नष्ट हो गए, इसके बावजूद यहां की सीढ़ीनुमा जाति-व्यवस्था बरकरार है।
उन मामलों में, जहां ऐसे शिल्पकारों और महिलाओं के उत्पादों ने शहरी अभिजात वर्ग के लोगों को आकर्षित किया या धनी विदेशी पर्यटकों को लुभाया, वे शिल्प बच गए। कई मामलों में, शिल्पकारों द्वारा अपने शिल्प से उन व्यवसायों की ओर भारी पलायन देखा गया है, जिनमें अधिक व्यावहारिक और लाभदायक आजीविका प्राप्त हु़ई।
सांस्कृतिक मोज़ेक (विविधता)
इसमें कोई संदेह नहीं, कि डिजाइन, सामग्री, शिल्प कौशल और उपयोगिता का विविधता में बहुत योगदान है, जिसने ग्रामीण भारत को एक सच्चा सांस्कृतिक मोज़ेक (बहुरंगी शिल्प/संस्कृति वाला देश) बना दिया है। शहरी अमीर लोग अक्सर पारंपरिक वस्तुएं, विशेष रूप से समारोह इत्यादि के अवसर के लिए कपड़ा और वस्त्र, खरीदना चाहते हैं, जिसके लिए वे ऊंचे दाम देने के लिए तैयार होते हैं। यह उनके कुछ आकर्षक खरीदने की क्षमता से जुड़े गर्व या घमण्ड को दर्शाता है।
इस तरह की मार्केट बहुत जल्दी बिचौलियों को आकर्षित करती है, जो विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को जुटा कर संभ्रांत वर्ग के सामने इच्छा और जरूरत के अनुसार माल ख्ररीदने के लिए विकल्प पेश करते हैं। ये बिचौलिये शायद ही कभी कारीगरों के दीर्घकालिक हितों की पर्वाह करते हैं। अमीर खरीदारों की मांग को पूरा करने के लिए अधिक चिंतित, बिचौलिए कई बार नकली उत्पादों का भी सहारा लेते हैं। उदाहरण के लिए, पारंपरिक डिजाइन को पावर-लूम पर बनवाकर उसे ओरिजिनल बताकर बेच देना।
बीच रास्ते धराशाही
इसका परिणाम यह है कि अत्यंत महंगे पारंपरिक हाथ से बुने कपड़े और शिल्प उत्पादों के निर्माताओं तक को व्यवसाय के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक नहीं मिल पाता। इस तरह के अनेक शिल्प, इतिहास के कूड़ेदान की भेंट चढ़ चुके हैं। इसका परिणाम सांस्कृतिक विविधता के एक बड़े हिस्से का अवशेष बनकर अतीत में समा जाना है।
हथकरघा कपड़े और शिल्प की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण उन शहरी रईसों के लिए यदि एक देव-प्रतिमा नहीं, तो कम से कम एक शौक का घोड़ा जरूर है, जिनकी उच्च आय के चलते उनकी जरूरतें कई गुणा तक पूरी हो जाती हैं। ये शहरी रईस वर्ग, जो मुख्य रूप से सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के उद्देश्य से शिल्प और उत्पादों को संरक्षित करने की कोशिश कर रहा है, आमतौर पर एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है।
उत्पादकों को देखें तो ये कुलीन प्रयास उन्हें उचित आय प्रदान करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। वहीं उपभोक्ताओं में, बदलती शहरी पसंद और आधुनिक जीवन शैली के प्रति लचीलेपन और उसके अनुरूप ढलने की योग्यता में कमी दिखाई पड़ती है।
भ्रामक व्यावसायिक व्यावहारिकता
बुटीक-स्तर के स्मारकनुमा चंद शिल्प-संरक्षण के उदाहरण छोड़ दें, तो कई शिल्पों को व्यवहारिक आजीविका के विकल्प के रूप में नहीं पाया जाता। इस प्रकार के सीमित स्तर के संरक्षण को अक्सर पर्याप्त और निरंतर गैर-लाभकारी समर्थन की आवश्यकता होती है, ताकि नए शिल्पकारों का प्रशिक्षण, नए डिजाइन बनाने और सम्वेदनशील व अनुकूल मार्केट तक पहुंचने में मदद मिल सके। इस तरह की कठिन कोशिशों के कई शानदार उदाहरण देश में देखे जा सकते हैं, लेकिन उनकी अपनी व्यावसायिक व्यावहारिकता अक्सर भ्रामक और लचर रही है।
विविध आजीविका संवर्द्धन के सरकारी कार्यक्रमों ने अतीत में गंभीरता से ध्यान दिया था और इन शिल्पों के बूते ग्रामीण आजीविका के निर्माण के लिए संसाधन प्रदान किये थे। प्रत्येक राज्य ने हथकरघा और हस्तशिल्प के तथाकथित विकास के लिए अपने निगम बनाए थे। कई मामलों में, ऐसे निगम आज भी मौजूद हैं और कई शहरों में प्रमुख स्थानों पर बड़ी दुकानें चलाते हैं।
वहाँ का दौरा करने पर उनकी पीछे की कुछ अलमारियों पर जमी धूल से पता चलता है कि उनका धंधा कितना मंदा चल रहा है। शहरी रईस वर्ग के सांस्कृतिक संरक्षण के मधुर मुहावरे के साथ, और आजीविका को बढ़ावा देने के लिए विकल्प खोजने के लिए बेताब, राज्य एजेंसियां इन उपक्रमों में बेतहाशा पैसा झोंकती रहती हैं। हमें इतिहास को अलविदा कहना कठिन लगता है।
एक उल्लेखनीय अपवाद
उत्तर-पूर्व (नोर्थ-ईस्ट) उपरोक्त निराशाजनक कहानी को एक उल्लेखनीय अपवाद प्रदान करता है। और अच्छे कारणों के लिए। सबसे पहले तो यह कि असम या अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में, कम से कम हथकरघा बुनाई, समाज के एक वर्ग मात्र का एक विशेष व्यवसाय नहीं बना। यहां तक कि ग्रामीण असम में लगभग सभी जातियों के लोगों के घरों में अब चलते हथकरघे मिल सकते हैं। बहुत से घरों में बुनाई का काम आजीविका गतिविधि की बजाय, उनकी जीवनशैली की एक गतिविधि के रूप में किया जाता है।
दूसरे, उनके आम जीवन में उन्हें लगातार हथकरघा उत्पाद खरीदने की आवश्यकता होती है। खास मेहमानों को सम्मानित करने के लिए अलंकृत-पीतल या बांस की ज़ापी और गमछा प्रदान करना आज भी एक शानदार और जीवंत परंपरा है। ज़ापी का महत्व और उपयोग अब काफी हद तक खत्म हो चुका है, लेकिन इस क्षेत्र में अत्यधिक नमी को देखते हुए, हाथ से बना कपास का गमछा अभी भी लगभग सभी के लिए व्यावहारिक रूप से उपयोगी है।
ग्रामीण महिलाओं को अभी भी हाथ से बने अपने पारंपरिक मेखला-चादर पहनने पर गर्व महसूस होता है। एक ऐसा उत्पाद, जिसने पावर-लूम सेक्टर को अधिक आकर्षित नहीं किया है। सस्ते पावर-लूम उत्पाद भी रास्ता बना रहे हैं, लेकिन फिर भी हथकरघा को पसंद किया जाता है और वह प्रचलन में है। अर्थात उसके लिए बाजार है।
समृद्धिशाली परंपरा
वास्तव में, जो लोग अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए खुद बुनना नहीं चाहते, वे अक्सर सूत खरीदकर बुनकरों को देते हैं, जो उन्हें आवश्यकतानुसार वस्त्र बुन कर दे देते हैं। इस प्रकार, पारंपरिक करघा यहां वस्तुओं के डिजाइन में अधिक बदलाव किए बिना भी जीवित रहता है। क्या यह व्यावसायिक रूप से जीवंत है और बढ़ती आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आजीविका समाधान प्रदान करता है, यह एक और अधिक गहराई से खोज का मुद्दा है।
असम के इस सबक को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है। पहला सवाल यह है कि क्या पारंपरिक शिल्प व्यापक रूप से व्यवहार में है या यह एक विशिष्ट एवम् विशेषज्ञ गतिविधि है। दूसरा प्रश्न यह है कि क्या इससे बनी वस्तुएं तात्कालिक और व्यावहारिक रूप से रोजमर्रा के इस्तेमाल में हैं या केवल एक सजावटी वस्तु हैं। तीसरा प्रश्न यह है कि क्या इस तरह का उपयोग एक बड़े और अनुकूल बाजार के लिए प्रासंगिक है या उसे बनाया जा सकता है अथवा नहीं।
जब ये स्थितियां प्राप्त नहीं होती हैं, तो शिल्प अनुपयोगी होने के कारण व्यवहार में नहीं रहता। लेकिन संभवतः खो भी नहीं जाता है। बदलते बाजार में भी कम से कम कुछ पारंपरिक शिल्प मौजूद रखने की समस्या का एक संभावित समाधान हो सकता है, कि एक तरफ वस्तुओं के डिजाइन में उचित बद्लाव और गुणवत्ता पर काम किया जाए, और दूसरी ओर कार्पोरेट गिफ्ट दाताओं को चमचमाते आधुनिक ऑडियो-स्पीकर और पेन-ड्राइव की बजाए शिल्प के नए डिजाइन गिफ्ट करने के लिए राजी किया जाए। इस तरह के उपहार देने से एक नया बाजार तैयार हो सकता है और गरीब ग्रामीण कारीगरों के साथ-साथ शिल्पों के संरक्षण में भी मदद मिल सकती है।
संजीव फनसालकर “ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन” के साथ निकटता से जुड़े हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फनसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।