21 मार्च को मनाए जा रहे अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस और सिमलीपाल के जंगलों में लगी आग की ख़बरों के चलते, इस जीवमंडल क्षेत्र के प्रशासकों को आशा है कि शिक्षा और रोजगार के माध्यम से विस्थापित वनवासियों की मानसिकता बदली जा सकेगी
जनवरी 2020 में, सिमलीपाल टाइगर रिजर्व के अंदर खेजुरी गांव से 60 परिवारों के 110 वयस्क सदस्य विस्थापित किए गए थे। रिजर्व के अंदर रहने वालों का आरोप है कि वन विभाग के अधिकारी उन्हें धमकाकर पुनर्वास कर रहे हैं।
ओडिशा के मयूरभंज जिले के सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व के अंदर आदिवासी गाँवों के निवासियों को, बाघों, बाघों के शिकार क्षेत्रों, और व्यापक रूप से जंगल के संरक्षण और सुरक्षा के उद्देश्य से रिज़र्व की सीमा के बाहर के स्थानों पर विस्थापित किया जा रहा है।
सिमलीपाल के भीतर गाँवों में रहने वाले अधिकांश लोग कोल, हो, संथाल, भूमिज, आदि आदिवासी हैं, और हिल-खड़िआ या खड़िआ और मांकड़िआ जैसे विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह (PVTG)। वे लगभग सभी, अपनी आजीविका के लिए सिमलीपाल वन पर निर्भर हैं।
वायदे पूरे न होने के कारण, बहुत से विस्थापित आदिवासी लोग नाखुश हैं, जिससे गाँवों में रह रहे पुनर्वास के लिए चिन्हित लोग, आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा सम्बन्धी कानूनों के उल्लंघन का आरोप लगा रहे हैं। इसके कारण बाघ संरक्षण महत्वाकांक्षाओं और कई पीढ़ियों से जंगल में रहने वाले स्थानीय समुदायों के निवसीय-अधिकारों के बीच संघर्ष पैदा हो गया है।
बाघों के लिए जगह
सिमलीपाल टाइगर रिजर्व (एसटीआर) भारत का पांचवा सबसे बड़ा बाघ अभयारण्य है। 2750 वर्ग किमी में फैले इस क्षेत्र में, एक वन्यजीव अभयारण्य और एक प्रस्तावित राष्ट्रीय उद्यान शामिल हैं। हालांकि पिछले कुछ सालों में इस रिज़र्व में बाघों की आबादी में कोई उत्साहजनक वृद्धि नहीं हुई है।
ओडिशा वाइल्डलाइफ ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार, एसटीआर इसके इर्द गिर्द रहने वाले चार लाख लोगों और अंदर रहने वाले 10,000 लोगों से, और 20% की दर से बढ़ती आबादी से बड़े खतरों का सामना कर रहा है।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा नियुक्त एक समिति द्वारा, एसटीआर के संरक्षण की स्थिति पर किए गए 2009 के एक अध्ययन द्वारा बाघों एवं अन्य वन्य जीवों के लिए निर्विघ्न स्थान पैदा करने के लिए स्वैच्छिक पुनर्वास की मदद से, लोगों और वन्यजीवों के बीच संसाधनों के संघर्ष को कम करने के लिए रणनीतियों की सिफारिश की थी।
लोग बनाम बाघ
अनुसूचित जनजातियां एवं अन्य पारम्परिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम या वन अधिकार अधिनियम (FRA) 2006 और वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम (WLPA), 1972, जिसे 2006 में संशोधित किया गया था, के अनुसार यह आवश्यक है कि स्वैच्छिक पुनर्वास तब विकल्प होना चाहिए, जब यह सिद्ध हो जाए कि अधिकार-धारकों की उपस्थिति के कारण बाघों और उनके आवास को अपरिवर्तनीय क्षति होगी और उनके अस्तित्व को खतरा होगा।
पर्यावरण और वन अधिकारों पर विशेषज्ञता प्राप्त कर रहे, भुबनेश्वर स्थित वकील, शंकर प्रसाद पाणी ने VillageSquare.in को बताया – “सरकार को उन विशेषज्ञों के नाम सार्वजनिक करने चाहियें, जिन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि आदिवासी बाघों के आवास को अपरिवर्तनीय नुकसान पहुंचाएंगे और सह-अस्तित्व का कोई विकल्प नहीं है।”
बाघों और उनके आवास के संरक्षण पर जोर देते हुए, एसटीआर के सेवानिवृत्त वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी, लाला अश्विनी कुमार सिंह ने कहा, कि बाघों के आवास अधिकार का महत्व जनजातियों जैसा होना चाहिए। उनका कहना था – “क्योंकि जंगली जानवर अपने अधिकारों का दावा नहीं कर सकते, इसलिए बड़ी बिल्लियों के लिए निर्विघ्न स्थान और उनके शिकार के क्षेत्र सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है।”
लम्बा खिंचता विस्थापन
एसटीआर प्रबंधन योजना के अनुसार, अंदरूनी क्षेत्र के केवल चार गांवों, कबाताघई, जमुनागढ़, जेनाबिल और बाकुआ को रिजर्व से बाहर स्थानांतरित किया जाना था। हालांकि पूरे अभयारण्य में 61 गांव हैं, राज्य सरकार ने जुलाई 1988 में इन चार गांवों को स्थानांतरित करने के लिए फैसला किया।
मानव-विज्ञानी, मधुलिका साहू के एक शोध पत्र के अनुसार, 1994 और 2003 के बीच, जमुनागढ़, जेनाबिल और कबाताघई गांवों से 72 परिवारों को पुनर्स्थापित किया गया था।
अपर बरहकामुड़ा और बहाघार के परिवारों को 2013 में पुनर्वास का सामना करना पड़ा। वर्ष 2015 में, कबाताघई में रहने वाले 47 परिवारों और जमुनागढ़ के 35 परिवारों को, क्रमशः मानंदा और नबरा में पुनर्स्थापित किया गया। इस बीच, क्याझरी और रामजोड़ी के ग्रामवासियों और नुआगाँव, बनियाबासा, गुडगुडिया और मटिगाडिया के कुछ परिवारों को स्थानांतरित किया गया।
जबरन विस्थापन
एसटीआर अधिकारियों का दावा है कि सभी विस्थापन स्वैच्छिक थे। हालाँकि आदिवासी लोगों का कहना था कि उन्हें स्थानांतरण के लिए मजबूर किया गया था।
खेजूरी गाँव के मधु देहुरी (56) कहते हैं – “वन विभाग के कर्मचारियों ने स्थानांतरण के लिए हम पर दबाव डाला और कहा कि यदि हम उनके प्रस्ताव पर सहमत नहीं हुए, तो हम अपनी सारी जमीन और विशेषाधिकार खो देंगे। हम एक प्रतिबंधित जीवन जीने के लिए मजबूर हैं और हमारे लोगों को झूठे मुकदमों में उलझाया जा रहा है।”
हालांकि जशिपुर स्थित सिमलीपाल उत्तर वन्यजीव डिवीजन के उप-निदेशक, कपिल प्रसाद दास कहते हैं – “हम कभी भी जबरन पुनर्वास नहीं करते, बल्कि लोगों को बाघों के संरक्षण, पुनर्वास पैकेज और जंगल के बाहर बेहतर जीवन के अवसरों के बारे में शिक्षित करके, स्वैच्छिक पुनर्वास सुनिश्चित करते हैं।”
असंतोष की आवाजें
नई बस्तियों में पुनर्वास के बाद, लोगों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। असताकुमार पंचायत के सरपंच, महंती बिरुआ ने कहा – “एसटीआर अधिकारी स्वैच्छिक पुनर्वास के सभी मामलों में ऐसा ही करते हैं और लोगों को महीनों तक अस्थायी छप्पर में रहने के लिए छोड़ देते हैं।”
एक खड़िआ आदिवासी का कहना था – “तीन महीने बीत चुके हैं और जब से अधिकारी हमें खेजुरी से सलेईबेड़ा में अस्थायी शेड में लाए थे, हम टिन की छत के नीचे रहते हैं। हालांकि आवास के लिए प्रत्येक परिवार के लिए 10 डेसीमल भूमि चिह्नित की गई है, घरों का निर्माण किया जाना बाकी है।”
रामचंद्र देहुरी ने VillageSquare.in को बताया – “अधिकारी कहते हैं, कि निर्माण में देरी देशव्यापी लॉकडाउन के कारण हो रही है। अब जैसे-जैसे गर्मियाँ आ रही हैं, जीवन मुश्किल होता जा रहा है। वे हमें स्थानांतरित करने से पहले घरों का निर्माण कर सकते थे।”
क्याझरी से खंडियादर में पुनर्वासित खड़िआ और कोल आदिवासी दुखी हैं, क्योंकि सरकार ने वादे के अनुसार 10 डेसीमल (लगभग 4350 वर्ग फुट) भूमि न देकर 6 डेसीमल भूमि ही दी। खंडिआदर में पुनर्वासित एक खड़िआ आदिवासी, रणजीत देहुरी (40) ने कहा – “हमारे पास अपनी आजीविका में सहयोग के लिए, साग और सब्जियां उगाने के लिए कोई आँगन नहीं है। भूमि के चार डेसीमल के बारे में अधिकारी चुप हैं।”
पहुँच से बाहर मुआवजा
केवल आवास की बात नहीं है, बल्कि मुआवजे के पैसे का उपयोग के लिए स्वतंत्रता का सीमित होना भी कठिनाइयों का कारण बनती है। कबातघई गाँव से विस्थापित लोगों के लिए बनी मानंदा कॉलोनी में रहने वाली विधवा और चार बच्चों की माँ, माया मुर्मू (40) ने VillageSquare.in को बताया – “क्योंकि मुआवजे का पैसा एक संयुक्त खाते में है, जिसमें उप-जिलाधिकारी सह-हस्ताक्षरकर्ता है, हम आपातकाल में अपना पैसा निकालने और उपयोग करने में असमर्थ हैं।”
घासीराम मरांडी मानंदा की अपनी नई बस्ती के पास जमीन खरीदना चाहते थे, लेकिन नहीं खरीद सके। उन्होंने कहा – “मैं अपनी इच्छा से पैसे नहीं निकाल सकता।” इससे पहले कुछ लोगों ने ऐसे ही उद्देश्यों के लिए पैसे निकालने के लिए उप-जिलाधिकारी से अनुमति मांगी थी। प्रशासन ने उन्हें सरकारी दरों पर जमीन खरीदने के लिए कहा। घासीराम कहते हैं – “हमें उस कीमत पर कौन जमीन बेचेगा?”
तीन बच्चों की माँ, बसंती देहुरी (40) ने VillageSquare.in को बताया – “क्योंकि मुआवजे के पैकेजों के बारे में वन विभाग द्वारा बताया जाता है, लोगों को लगता है कि हमें बहुत पैसा मिल गया और हम अमीर बन गए। लेकिन वास्तव में, हमें कई बार आपात स्थिति में भी मुआवजे के पैसों तक पहुंच न होने के कारण, मासिक ब्याज पर जिन्दा रहते हैं।”
जशिपुर से विधान सभा के सदस्य, इं. गणेश राम सिंह खुंटिया का कहना था – “विस्थापित लोगों की दुर्दशा को दर्शाती ऐसी कहानियां सिमलीपाल के गांवों में पहुंचती हैं, जिससे बचे हुए लोग विस्थापन से हिचकते हैं।”
लाला अश्विनी कुमार सिंह ने VillageSquare.in को बताया – “यह जरूरी है कि विस्थापित परिवारों को जंगल से बाहर होने के सभी लाभ मिलें। उन्हें यह महसूस करने की जरूरत है कि पुनर्वास के बाद बेहतर परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, आजीविकाओं के नए अवसरों, आदि के साथ उनके जीवन बदल गए हैं। उनकी कहानियाँ दूसरों को विस्थापन के लिए प्रेरित करेंगी।”
खुंटिया ने कहा कि आदिवासियों को पुनर्वास के फायदों को समझना चाहिए। “जंगलों के अंदर कोई विकास नहीं है। वे मानसून में कई महीनों तक अपने गाँवों में ही बंध कर रहते हैं। वहां कोई स्कूल नहीं हैं। एक अस्पताल तक पहुंचने में घंटों लग जाते हैं। ऐसा जीवन कौन चाहता है? वे जंगल के अंदर रहते हैं, क्योंकि वे बाहर क्या करेंगे? वे कैसे बच पाएंगे? ”
खुंटिया ने VillageSquare.in को बताया – “अच्छी शिक्षा और रोजगार के अवसर जंगल, उसके वन्य जीवन और साथ ही आदिवासियों के लिए खेल बदलने वाले (गेम-चेंजर) हो सकते हैं। आपको उन्हें पुनर्वास के लिए मजबूर करने की जरूरत नहीं है, वे बेहतर सेवाओं और अवसरों का लाभ उठाते हुए बेहतर जीवन जीने के लिए स्वेच्छा से पुनर्वास करेंगे।”
बासुदेव महापात्र भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल: mahapatra.basudev@yahoo.in
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