गोमूत्र एवं मानव-मल: आस्था, लोककथाएँ और विज्ञान
जबकि चमत्कारी सामग्री के रूप में गोमूत्र पर लोकगीतों की एक झलक है, अन्य मवेशियों और मनुष्यों का अपशिष्ट, जो भरोसेमंद संसाधन भी हैं, उन्हें प्रभावकारिता के लिए जाँचना चाहिए
जबकि चमत्कारी सामग्री के रूप में गोमूत्र पर लोकगीतों की एक झलक है, अन्य मवेशियों और मनुष्यों का अपशिष्ट, जो भरोसेमंद संसाधन भी हैं, उन्हें प्रभावकारिता के लिए जाँचना चाहिए
लोककथाओं के अनुसार, गाय एक भारतीय चमत्कार है। जब देश में हरियाली हुआ करती थी, तो गाय ठीक उन्हीं घास और पत्तियों को खाने के लिए चुनती थी, जिससे वैसा दूध बने, जो उसे पीने वाले बच्चे के लिए सर्वोत्तम था। अपनी निराशावादी सोच के कारण हम हैरान होते हैं कि ये लोककथाएं कैसे इतनी टिकाऊ होती हैं, और क्या इनमें कोई सच्चाई भी है।
लोककथा आखिर लोककथा है। लोककथा वैज्ञानिक है या नहीं, यह बहस अप्रासंगिक है। यह उस बहस की तरह है कि आकाश मीठा है या कड़वा। मजेदार बात यह है, कि लोककथाओं में अक्सर ज्ञान के ‘कीटाणु’ होते हैं, जो कि अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञान से संबंधित हो सकते हैं या लोककथा और विज्ञान के मध्य में कहीं हो सकते हैं।
लोककथाओं और आस्था के दो आयामों की चर्चा नीचे की गई है। दोनों के आर्थिक और सामाजिक आयाम संभावित रूप से विशाल हैं। मैं शुरुआत करता हूँ गोमूत्र से। सभी जैविक या दीर्घकालिक कृषि कार्यों में, गोमूत्र के उपयोग पर भारी और व्यापक निर्भरता पाई जाती है। गोमूत्र को “आधार” बनाकर, उसमें विभिन्न चीजों को और अलग-अलग तरीकों से मिलाकर या तो पौधों के पोषक तत्वों के “अमृत” के रूप में तैयार किया जाता है या पौधों की सुरक्षा-सामग्री, “अस्त्र” के रूप में।
उदाहरण के लिए, पांच विषैले पौधों की पत्तियों को, निश्चित मात्रा में गोमूत्र में उबाला जाता है और उस काढ़े को पतला करके, उनका अनेक प्रकार के कीटों के खिलाफ कीटनाशक के रूप में छिड़काव किया जाता है।
लोककथाओं के अनुसार, गोमूत्र में ऐसे तत्व होते हैं, जो इसे खासतौर पर इस भूमिका के लिए उपयुक्त बनाते हैं। इन विधियों के कुछ उत्साही समर्थकों ने मुझे जोर देकर कहा, कि एक गाय के शरीर में 33000 देवताओं का वास होता है, जो गोमूत्र को ऐसी अनूठी विशेषता प्रदान करते हैं। जब मैंने कहा कि बैल या भैंस का मूत्र भी इस तरह की भूमिका निभा सकता है, तो इनमें से एक महाश्य ने सोचा कि मैं काफिर (धर्म-विरोधी) की तरह बर्ताव कर रहा हूं।
इन सामग्रियों में गोमूत्र के उपयोग की जरूरत को लेकर यह आस्था इतनी गहरी है, कि यदि गाँव में गाएँ नहीं हैं या कम हो गई हैं, तो किसान इन सामग्रियों को इस्तेमाल करने से ही इनकार कर देते हैं। वास्तव में, मैंने गोमूत्र इकट्ठा करके इच्छुक किसानों को बेचने वाले एक “गोमूत्र उद्यम” का अध्ययन किया था, और दो साल पहले इसके बारे में एक लेख भी यहाँ लिखा था। लेकिन सवाल यह है कि अगर कोई बैल या गाय नहीं हैं, तो आप इसे प्राप्त कहां से करेंगे? ऐसा प्रतीत होता है, कि ट्रैक्टर दीर्घकालिक कृषि कार्यों के दुश्मन हैं।
“वैज्ञानिक स्वभाव” के कारण कठोर हो चुका मेरा मन, एक तुलनात्मक प्रयोग का सुझाव देता है – लोग गाय, भैंस, बैल, बकरी और यहां तक कि मानव के मूत्र से एक जैसी सामग्री तैयार करें। इन सामग्रियों के प्रभाव का परीक्षण करने के लिए, खेतों में उसी प्रकार इनका फसलों पर उपयोग हो, जिस तरह से ‘अमृत’ और ‘अस्त्र’ का उपयोग किया जाता है। इसके बाद, जहां उचित हो, प्लान-बी आदि के साथ, उनमें से सर्वोत्तम को उपयोग करने का फैसला लिया जाए।
यदि यह सब पहले से ही करके देख लिया गया है, तो मुझे इसकी जानकारी नहीं है। आखिरकार, यदि इन तथ्यों का वित्तमंत्री के बजट-भाषण में उल्लेख हुआ है, तो इन्हें ‘व्यवस्थित रूप से वैज्ञानिक कार्य’ द्वारा प्रमाणित होना ही चाहिए। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) को एक बड़ी परियोजना बनाकर इसका अध्ययन करना चाहिये। इस बात की कितनी संभावना है कि ऐसा किया जाएगा? क्या लोककथाओं का निर्बाध रूप से बोलबाला बना रहेगा?
लोककथा और आस्था की एक और युगलबंदी, मानव-मल से जुड़ी है। मैं अपने मित्रों, जिनमें से एक प्रतिष्ठित संगठन के सीईओ हैं और दूसरे एक प्रख्यात प्रबंधन प्रोफेसर हैं, के साथ एक दिलचस्प बातचीत में शामिल था। सीईओ मित्र ने हमें बताया कि गुजरात के आदिवासी इलाकों में, जहां उन्होंने काम किया, आदिवासी लोग बायोगैस संयंत्रों में गाए के गोबर के साथ साथ मानव-मल भी डालते हैं। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ।
सीईओ ने हमें यह भी बताया कि ऐसा सुदूर पूर्व में आम बात है। इन लोगों में मानव-मल को उपयोग करने को लेकर, किसी प्रकार की दुविधा या घृणा का भाव नहीं होता। इन मित्र का यह भी कहना था कि यदि पाइपलाइन के खर्च की व्यवस्था हो जाए, तो अन्य ग्रामीण लोगों को भी इस पर विचार करना चाहिए।
जब तक मल को पाइप के माध्यम से नहीं पहुंचाया जाता, तब तक यह एक बड़ा सामाजिक मुद्दा होगा। इस पर सम्मानित प्रोफेसर मित्र ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि “मुझे यह बात थोड़ी बेचैन करने वाली लगती है कि मैं उस गैस पर पका भोजन खाऊँ, जिसे मेरे बंधुओं ने पैदा किया है”।
मुझे यह अजीब लगता है। लाखों-करोड़ों महिलाएं जानवरों का मल-मूत्र इकट्ठा करती हैं, उसे कुछ संसाधित करती हैं, सुखाती हैं, और फिर अपना खाना पकाने के ईंधन के रूप में उसका इस्तेमाल करती हैं। कम से कम तब तक तो उन्होंने ऐसा किया, जब तक कि सरकार की उज्जवला योजना के अंतर्गत एलपीजी सिलेंडर उन तक नहीं पहुंचे। वास्तव में, उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार जैसे घनी आबादी वाले राज्यों में, गोबर के उपले, खाना पकाने का मुख्य ईंधन हैं और काफी उंची कीमत पर बिकते हैं। फिर भी, कोई भी महिला कभी भी, मानव-मल को इकट्ठा करके, सुखाकर, ईंधन के रूप में प्रयोग नहीं करती है।
अरे नहीं! मानव-मल की ढुलाई तो एक विशेष उत्पीड़ित समुदाय के लिए संरक्षित थी। तब तक, जब तक कि सरकारों के बार-बार किए गए ‘परोपकार’ के द्वारा मानव-मल की शारीरिक ढुलाई पर प्रतिबंध नहीं लग गया, जैसा कि स्टालिन की फिल्म “Lesser Humans (कम मनुष्य)” में दर्शाया गया है।
तो यहाँ आस्था, सामाजिक रीति-रिवाजों और लोककथाओं का एक समन्वय है, जो एक संभावित संसाधन के पूरी तरह से तर्कसंगत उपयोग में बाधक है। बस एक पल के लिए सोचिए – चाहे फसल अच्छी तरह विकसित हो या न हो, किंतु गांवों में मानव-मल की आपूर्ति शायद सबसे भरोसेमंद चीज है। इसका इस्तेमाल बायोगैस के उत्पादन के लिए किया जा सकता था, जो उन लोगों के रसोईघरों में स्टोव जलाता, जो प्रोफेसर-नुमा बेचैनी महसूस नहीं करते।
अगर हमारे लोग इस मामले को पूरी तरह से वैज्ञानिक सोच और दृष्टिकोण से देखते, तो सभी गांवों में सामुदायिक शौचालय होते। यदि सिर्फ नरेगा की दरों पर भी मेहनताना चुकाया जाता, तो वे लोग, जिन्हें इन शौचालयों को साफ करने का काम सौंपा जाता, शायद अपने गांवों में सबसे अधिक नकदी-संपन्न व्यक्ति होते! इसके बजाय, और बेजवाड़ा विल्सन और आशिफ शेख जैसे सम्मानित व्यक्तियों के अथक प्रयासों के बावजूद, इस व्यवसाय में लगे लोग अब भी सामाजिक-व्यवस्था के बिल्कुल निचले पायदान पर हैं। और इस सबसे अधिक; स्वच्छ भारत मिशन की पूरी संरचना भिन्न और संभवतः अधिक उपयोगी होती, और किफायती भी होती, क्योंकि कम स्थानों पर पानी पहुंचाने की जरूरत पड़ती।
अफसोस! कवि के कथन अनुसार – जो हो सकता था और जो हुआ है, दोनों एक ही ओर इशारा करते हैं। इस सब के बावजूद, अंधविश्वास से लड़ने और सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर शौर मचाने वाले लोगों को बेहतर परिणाम मिलते, यदि उन्होंने लोककथा और आस्था के इन दो आयामों पर ध्यान केंद्रित किया होता; क्योंकि टिकाऊपन उन संसाधनों के प्रभावी उपयोग से प्राप्त होगा, जो भरोसेमंद होंगे।
संजीव फंसालकर “ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन” के साथ निकटता से जुड़े हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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