कोरोना महामारी के इस दौर में ऐसी बहुत सी बीमारियां हैं, जो मानव जीवन को धीरे धीरे अपना शिकार बना रही हैं। महामारी के दौर में ऐसी समस्याओं पर सरकार एवं समाज का ध्यान कम ही जा रहा है| ऐसी ही एक व्यापक समस्या कुपोषण को है, जो युवाओं विशेषकर किशोरी बालिकाओं में काफी पाया जा रहा है। ऐसी ही परिस्थिति राजस्थान के ग्रामीण अंचलो में धीरे धीरे बढती जा रही है| इसके लिए सामाजिक रीती-रिवाज़ एवं जागरुकता की कमी के साथ साथ सरकारी कार्यक्रमों की पहुँच जिम्मेदार है|
युवाओं में कुपोषण का परोक्ष रूप से नकारात्मक प्रभाव आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य पर देखने को मिलेगा। शरीर के लिए आवश्यक संतुलित आहार लम्बे समय तक नहीं मिलना ही कुपोषण है। इसके कारण बालिकाओं और महिलाओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। जिससे वह आसानी से कई तरह की बीमारियों की शिकार बन जाती हैं। अतः कुपोषण की जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है।
किशोरी बालिकाओं मे अधिकांश कुपोषण होने के कारण आगे चलकर कई रोगों का कारक बन जाती हैं। देश का एक बहुत बडा हिस्सा किशोरी बालिकाएं जिनके स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो उनमे भारी कमी आई हैे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैमाने मे किशोरावस्था 10 से 19 साल मानी गई है। जबकी भारत मे हर 10 साल बाद पोषण से जुड़े आंकड़े जारी करने वाले नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों मे किशोरावस्था का कोई जिक्र नहीं है। इन आंकड़ों मे 15 से 19 साल की उम्र के लोगों को व्यस्क माना जाता है। वहीं 6 से 14 साल की उम्र के आयु वर्ग के पोषण से जुड़े आंकड़ों का भी कोई जिक्र नही होता है। 15 से 19 साल के लोगों का बाडी माॅस इण्डेक्स व्यस्कों के पैमानों पर मापा जाता है, जो कि इस उम्र के लोगों के लिए ठीक नही है और इससे पोषण के आंकड़ों की सही तस्वीर सामने नही आ पाती है। बॉडी मॉस इंडेक्स से पता चलता है कि शरीर का वजन कद के अनुसार कितना है। इसे लम्बाई और वजन का अनुपात कहा जाता है।
राजस्थान में किशोरी स्वास्थ्य
किशोरी स्वास्थ्य की दुर्दशा के मामले में अन्य राज्यों की अपेक्षा राजस्थान में भयावक है। बांसवाड़ा, टोंक, सवाईमाधोपुर, अलवर, करोली आदि ज़िले किशोरी स्वास्थ्य के पैमाने पर बहुत नीचे पहुंच गए हैं। इसकी वजह पुरानी कुरुतियां एवं जागरुकता की कमी है और अतिरिक्त समुचित पौषण का अभाव और मानसिक अवसाद की स्थितियां भी जिम्मेदार मानी जा रही हैं। राजस्थान मे बीमार होने पर किशोरियों का इलाज कराने का प्रतिशत लड़कों कि तुलना मे काफी कम है। प्रदेश के प्रमुख अस्पताल जे के लोन के आंकड़े बताते है कि यहां लडके व लडकियों के उपचार का प्रतिशत करीब 60-40 है।
जेके लोन अस्पताल के शिशु रोग विशेषज्ञ डा. जगदीश सिंह बताते हैं कि आज भी राजस्थान के कुछ जिले ऐसे हैं, जहां अभिभावक लड़कियों के उपचार को गैर जरुरी खर्च मानते है और अपने गांव ले जाकर ही उपचार कराने में विश्वास करते है। यह किशोरियों के स्वास्थ्य की दिशा में सबसे बडा आघात है। स्त्री रोग विशेषज्ञ जनाना अस्पताल डा उषा बंसल कहती हैं कि किशोरियों का उपचार सही समय पर उचित तरीके से नहीं होने का असर उनके आगे के जीवन चक्र को बुरी तरह प्रभावित करता है। यह लडकियों के युवा होने की उम्र होती है। इस दौरान उनके शरीर मे कई तरह के प्राकृतिक बदलाव होते है। अगर इस दौरान स्वास्थ्य खराब होता है और उनकी अच्छे से देखभाल नही होती तो उनके आगे के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
दूरदराज के क्षेत्रों में तो ग्रामीण किशोरियों को औसत स्तर तक का पोषण नहीं मिल पा रहा है। 10 से 12 वर्ष के बीच 2000 कैलोरी की प्रतिदिन आवश्यकता होती है, 12 से 13 साल की किशोरी बालिकाओं को 2200 कैलोरी प्रतिदिन की आवश्यकता होती है, जबकि 14 से 19 साल तक 2400 कैलोरी प्रतिदिन की आवश्यकता होती है। लेकिन दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में किशोरियों को प्रतिदिन इसका करीब 50 से 70 प्रतिशत ही मिल पाता है। कुछ जगह तो यह आंकड़ा इससे भी कम है। जो अत्यधिक चिंता का विषय है।
कुपोषण का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव
राजस्थान के एसएमएस मेडिकल काॅलेज के मनोरोग विशेषज्ञ विभाग से जुड़े डॉ अनिल तांबी के अनुसार किशोरावस्था में होने वाले बदलावों की सही जानकारी ना व अपने स्वास्थ्य एवं शरीर के प्रति पूर्ण जानकारी और सजगता नही होने के कारण रोजाना किशोरी बालिकाओं से संबंधित मानसिक विकार वाले कई केस उनके पास आते हैं। उन्होने कहा कि इसकी असली वजह किशोरियों को इस दिशा में सही शिक्षा नहीं मिलना एक बड़ा कारण होता है। जिसके चलते वह मानसिक अवसाद में चली जाती हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थान में लगभग 17 लाख से भी अधिक किशोरियां एनीमिया की शिकार हैं। किशोरावस्था के बाद व्यस्क अवस्था मे प्रवेश करने की इस आयु में खून की कमी का शिकार होकर एनिमिक होने से किशोरियों का आगामी जीवन चक्र प्रभावित हो जाता है।
इस संबंध में निवाई ब्लॉक के सीडीपीओ बंटी बालोटिया ने बताया कि राजस्थान सरकार के चिकित्सा शिक्षा तथा महिला एवं बाल विकास के सहयोग से हाल ही में एनिमिया मुक्त राजस्थान अभियान के जरिए किशोर किशोरियों व महिलाओं की मृत्यु दर में कमी लाने के लिए अभियान शुरू किया गया है। इस अभियान का उद्देश्य खून की कमी से होने वाली बीमारियों पर नियंत्रण तथा हीमोग्लोबिन की मात्रा को बनाए रखना है और हर साल 3 फीसदी एनीमिया को कम करना है। इस हेतु सरकारी विद्यालयों में बच्चों को नीली टेबलेट भी दी जाती है। परन्तु कोरोना के चलते वर्तमान समय में किसी आंकड़े पर पहुंचना मुश्किल है।
सामाजिक रीतियों से रुकता विकास
राजस्थान में किशोर स्वास्थ्य का कार्यक्रम देख रहे चिकित्सा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते है कि सरकार जिलों को चिन्हित कर ही अपने कार्यक्रम चलाती है। उन्होने कहा कि अभी भी कुछ जिलों में सामाजिक परम्पराएं और रीति रिवाजों के ऐसे कार्यक्रम आड़े आते हैं, जिन पर सामाजिक स्तर पर जागरुकता की जरुरत है। निवाई ब्लॉक के सीएमएचओ सतीश सेहरा बताते है कि टोंक जिले के ग्रामीण अंचलो में किशोरियों का पोषण और कमजोरी सबसे बडा मुददा है। यहां कुछ विशेष समुदाय के लोग आज भी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से बेहद पिछड़े हैं। जहां आज भी लड़कियों के पोषण पर कम ध्यान दिया जा रहा है। बांसवाड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता धर्मेश शर्मा कहते हैं कि किशोरियों के स्वास्थ्य की दिशा में जिला में आज तक कोई विशेष काम नहीं हुआ है। जिले के अधिकांश गांवों में आज भी इस तरह के कार्यकर्ता कम नजर आते हैं। जो भी काम हैं वह सरकारी अस्पताल के अंदर तक ही सीमित हैं। लेकिन वहां तक अधिकांश किशोरियों की पहुंच ही नहीं है।
किशोरी मंच की बालिकाएं सरमिना, सायनुम, प्राची, पूनम नामा, उनियारा, कविता यदुवंशी, राधिका शर्मा और कुमकुम केलवाड़ा बताती हैं कि सरकार ने किशोरियों के लिए कहने को तो आदर्श क्लीनिकों की शुरुआत की है, लेकिन वहां जाकर परामर्श लेना किशोरियों के सामाजिक परिवेश में संभव नहीं है। ऐसे में बालिकाओं के स्वास्थ्य सुरक्षा को गंभीरता से लेना बहुत जरूरी है और इसके लिए घर घर सर्वे करने की आवश्यकता है। ताकि बालिकाओं की वास्तविक स्थितियों की जानकारी सामने आए और इसका यथा संभव समाधान हो सके।
(यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवॉर्ड 2020 के अंतर्गत लिखा गया है)
रमा शर्मा चरखा नेटवर्क से जुडी हुई लेखक है| विचार व्यक्तिगत है|
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