बाधाएं, जो किसानों को समृद्ध बनने से रोकती हैं
भूमि-जोत का आकार, पानी की उपलब्धता, धन और बाजार, किसानों की आय को प्रभावित करते हैं। चार-खंड श्रृंखला का यह दूसरा भाग, कृषि समृद्धि के लिए मिश्रित खेती की बाधाओं और व्यवहार्यता की जाँच करता है
श्रृंखला के इस दूसरे भाग में, मैं दो मुख्य मुद्दों पर चर्चा करना चाहता हूँ। पहला मुद्दा असली, बड़ी बाधाओं से जुड़ा है, जो किसान कृषि से अपनी आय बढ़ाने की दिशा में पाते हैं। दूसरा यह समझना है, कि क्या बागवानी और पशुपालन समृद्धि के लिए किसी भी खेती के आवश्यक घटक हैं।
यह देखते हुए कि लगभग हर छह में से पांच कृषक परिवार एक हेक्टेयर या उससे कम भूमि जोतते हैं, किसानों की समृद्धि के लिए कोई भी चर्चा छोटे किसानों के बारे में होनी चाहिए। उनके बारे में ज्ञात मुख्य पर्याप्त जानकारी यह है, कि इन सभी के पास एक हेक्टेयर या उससे कम जमीन है।
कुछ संख्याओं के आधार पर, उनका भूमि/व्यक्ति अनुपात प्राप्त किया जा सकता है। फिर भी, उस स्थिति को समझने के लिए, जिसमें वे अपने फैसले लेते हैं, ज्यादा विशिष्ट जानकारी की जरूरत होगी। हमें यह जानने की जरूरत है कि क्या एक किसान के पास उसके खेत के अलावा किसी प्रकार की जमीन का टुकड़ा है और उसके खेत की मिट्टी की किस्म क्या है।
इसके अलावा हमें जानना होगा कि क्या उसकी जमीन की सिंचाई के लिए जल-स्रोत उपलब्ध है, उस जल-स्रोत पर उसका कितना नियंत्रण है, पानी लगाना कितना महंगा है, वह एक लाभकारी बाजार से कितनी दूर है, क्या उसके लिए भंडारण सुविधाएं उपलब्ध हैं, माल की ढुलाई कितनी आसान या मुश्किल है, आदि। इस तरह की विस्तृत जानकारी वर्णन से हमें यह पता लगाने में मदद मिलेगी, कि एक किसान समृद्धि के लिए खेती क्यों नहीं करता है।
मुख्य बाधाएं
इस लेख के अंत में दी गई तालिका कुछ प्रमुख कारकों को दर्शाती है, जो किसान की समृद्धि के लिए प्रयास करने की क्षमता को परिभाषित करते हैं। तालिका काफी हद तक आत्म-व्याख्यात्मक यानि स्पष्ट है। हम नीचे केवल कुछ चुनिंदा पहलुओं पर चर्चा करेंगे।
एक आम छोटा किसान जिन हालात में काम करता है, उन्हें चिह्नित करने वाली प्रमुख बाधाओं में से एक है, उसका दृष्टिकोण। प्रतिकूल मौसम की मार से बार-बार उत्पीड़ित, बाजार के संचालकों द्वारा शोषणकारी व्यवहार और बार-बार स्वास्थ्य-संबंधी खर्चों का बोझ, कुछ हद तक ज्ञात बेबसी और जोखिम से बचाव, भारतीय किसानों की कुछ सामान्य विशेषताएं हैं।
दृष्टिकोण सम्बन्धी पहली बाधा कभी-कभी “खेती में कुछ भी संभव नहीं है” या “हम नहीं कर पाएंगे” या इसी प्रकार की दूसरी बातों से व्यक्त की जाती है। दृष्टिकोणों का यह समूह उसे नकारात्मक (ज़ेनोफोबिक) और विशेषतौर से नई लाभकारी फसल, खेती संबंधी व्यवहार और तकनीकों को अपनाने के लिए विमुख बनाता है।
हस्तक्षेप करने वाले आमतौर पर मौजूदा आमदनी में बढ़ोत्तरी तक सीमित रहने का फैसला लेना चाहते हैं, जिससे आय पर केवल मामूली असर पड़ता है। इन दृष्टिकोणों को कुछ हद तक प्रशिक्षण, प्रदर्शनों और प्रदर्शन-यात्राओं के माध्यम से बदला जा सकता है। समृद्धि के लिए खेती के प्रयासों में विफलता की स्थिति के लिए, आश्वस्त करने वाली और बैक अप प्रदान करने वाली व्यवस्था लागू करके, उन्हें काफी हद तक प्रभावित किया जा सकता है।
हस्तक्षेप करने वालों द्वारा यह अंतिम भाग शायद ही कभी कार्यान्वित किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप गुजारे पर आधारित वृद्धिशील परिवर्तनों की प्रमुखता हो जाती है। कुछ हद तक इसकी जरूरत स्पष्ट नहीं होती और कुछ हद तक, उनके पास व्यावहारिक जोखिम के मामलों में से विफलता के वास्तविक मामलों को जानने के लिए संसाधनों और तरीकों का अभाव होता है।
धनापूर्ति (Cash Flow)
दूसरी आम और बेहद गंभीर बाधा, निवेश और कार्यशील पूंजी की कमी है। ज्यादातर किसान गरीब हैं और उन्हें नकदी की दबावपूर्ण जरूरत का बार-बार सामना करना पड़ता है। पारम्परिक खेती से साल में एक या ज्यादा से ज्यादा दो बार अच्छी आमदनी होती है।
ईमानदारी से कहूं, तो किसान क्रेडिट कार्ड, आदि जैसी कई दिलचस्प योजनाओं की शुरुआत के बावजूद, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों की निवेश और कार्यशील पूंजी की जरूरतें, औपचारिक बैंकिंग स्रोतों से बहुत कम सीमा तक ही पूरी की जाती हैं। उन्हें या तो खुले बाजार से या स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) जैसे अपने स्वयं के ऋण संस्थानों से, अधिक महंगे ऋण पर निर्भर रहना पड़ता है।
जैसे-जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से सस्ते खाद्य पदार्थों की आपूर्ति में सुधार होता है, गुजारे के लिए कार्यशील पूंजी की जरूरत कम होती जाती है। लेकिन स्वास्थ्य सेवाएं और अधिक महंगी हो गई हैं। हस्तक्षेपकर्ताओं को नियमित नकदी उपलब्धता की जरूरत के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है।
उन्हें एक ऐसा पैकेज प्रस्तुत करने की जरूरत है, जिसमें किसी फसल को शुरू करके उसके भुगतान के लिए साल या उससे ज्यादा समय में एक समाधान देने की बजाय, लगातार नकदी प्रवाह के तरीके शामिल हों। वाडी कार्यक्रम ने आम तौर पर वहां अच्छी तरह काम किया है, जहां धीमी गति से बढ़ने वाले फलदार वृक्षों के बीच, किसानों को तेजी से नकदी प्रदान करने वाली बागवानी को शामिल किया जाता है जो किसानों को नकद प्रदान करता है।
सिंचाई की जरूरत
तीसरा पक्ष, जिसके बारे में संवेदनशील समझ और व्यवहार की जरूरत है, वह है पानी के साथ किसान का रिश्ता। बहु–फसली, साल भर फसल के बिना, छोटी जोत पर कृषि-आधारित समृद्धि संभव नहीं है। यह कहने की जरूरत ही नहीं है, कि साल भर फसल उगाने के लिए सिंचाई की जरूरत होती है।
सिंचित क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता, नहरों में पानी छोड़े जाने की अनुसूची द्वारा निर्धारित की जाती है। दूसरी जगहों पर, किसान के पास जमीन से पानी खींचने के लिए अपना या कोई विश्वसनीय व्यवस्था होनी चाहिए। गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटियों के निचले बेसिन के अलावा, ज्यादातर स्थानों पर भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है।
ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की आपूर्ति एक समस्या रहती है। डीजल इतना महंगा हो गया है, कि यदि किसी फसल से बहुत अधिक लाभ नहीं मिलता है, तो डीजल पंपों से सिंचाई करना संभव नहीं होता। गुजारे के स्तर पर, घरेलू बेकार पानी का आँगन या पिछवाड़े में ही उपयोग, प्लास्टिक की बोतलों से “भूमिहीन उद्यानों” के जल-पौधों तक, आदि कुछ समाधान हैं, जिन्होंने किसानों की भलाई की दिशा में सुधार किया है।
बाजारोन्मुखी, समृद्धि-संचालित खेती के प्रयासों में, जल भंडारण और जल कुंड, हापा और खेत-तालाब जैसे जल संचयन की संरचनाओं के निर्माण से उसी खेत में (इन-सीटु) जल संरक्षण करना सहायक हो सकता है। इन्हें सांझा जल संचयन की पारम्परिक दोहा मॉडल जैसी नई और सस्ती रणनीतियों के साथ संयोजन के द्वारा किया जा सकता है।
ऐसे सभी कदम समग्र जल-उपलब्धता में बढ़ोतरी करते हैं। फसल की जड़ों तक पानी पहुँचाने के लिए, छोटे किसानों को सोलर पंप, ओवरहेड स्टोरेज और बिना दबाव वाली ड्रिप के साथ संयोजन में, इनके उपयोग में सक्षम बनाने की जरूरत है।
मिश्रित खेती
खेती में डाली जाने वाली सामग्री (इनपुट्स) या उत्पाद के एकत्रीकरण के साथ-साथ, साझा सुविधाओं का निर्माण, बाजार से जुड़ाव, संचालन सम्बन्धी बाधाओं पर काबू पाना, आदि, सभी को किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) जैसे समूह-उद्यमों के नियम माना जाता है।
मैंने इन व्यापक विषयों पर ‘विलेजस्क्वेयर’ में छपे अपने पहले के कुछ लेखों में चर्चा की थी। इस श्रृंखला में, पूर्णता के लिए, इस बारे में मैं एक अलग लेख में एकत्रीकरण और समूह-उद्यमों के मुद्दे पर चर्चा करूंगा। (किसान उत्पादक कंपनियों की सफलता और जीविका पर श्रृंखला का पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा लेख पढ़ें)
जिन किसानों ने उचित सफलता प्राप्त करके समृद्धि के लिए खेती करने का प्रयास किया, उन किसानों का एक दिलचस्प अवलोकन है, कि उन्होंने अपने खेत में अनाज वगैरह के अलावा या तो कुछ पशुपालन (मछली पालन सहित) किया या बागवानी के उत्पादक बन गए।
क्या यह एक तार्किक आवश्यकता है? क्या अनाज की फसल उगाकर खेती आधारित समृद्धि का लक्ष्य बनाना संभव नहीं है? और क्या खेती के कामों में इन गतिविधियों को शामिल करने और उन पर जोर देने से हमेशा समृद्धि आती है? इन गतिविधियों से जुड़े कुछ फायदे हैं।
पहली बात तो यह, कि आमतौर पर सरकार के मूल्य नियंत्रण या न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के संचालन में उनकी भागीदारी नहीं होती है। दूसरी, उनकी मौसम पर निर्भरता कम गंभीर होती है। एक फसल एक बार के पाले में नष्ट हो सकती है, लेकिन पशुपालन अधिक स्थिर है, यदि पशु चिकित्सा सेवाएं अपनाई जाएं।
तीसरी, “बहु-पैदावार” किस्म की गतिविधियाँ होने के कारण, इन गतिविधियों से ज्यादा निरंतर नकदी प्रवाह प्राप्त होता है। दूध और अंडे रोजाना पैदा होते हैं और उनकी बिक्री होती है। ब्रॉयलर के एक साल में आठ बैच तक पैदा किए जा सकते हैं।
एक बार उत्पादन शुरू होने पर सब्जियों और फूलों को कई बार काटा जा सकता है। व्यावहारिक रूप से, थोड़ी थोड़ी कई फसलें, मूल्यों में बदलाव से होने वाली बरबादी को भी कम करती हैं। आखिरी, कई आय वृद्धि करने वाली आय-योजनाओं की बदौलत, इन वस्तुओं को स्थानीय स्तर पर भी बेचा जा सकता है।
निसंदेह, इसके कुछ नकारात्मक पक्ष भी हैं: वे देखभाल और शारीरिक श्रम के मामले में अधिक मांग वाले होते हैं। हमें सावधानीपूर्वक जांच करनी होगी, कि क्या समृद्धि आधारित खेती में, किसानों की गतिविधियों की टोकरी में ऐसी गतिविधियों को शामिल किया जाना चाहिए।
बाधाएँ | यह प्रभावित कैसे करता है | बाध्य करने वाली बाधा या बदलाव संभव | बाधाओं का प्रभाव कम करने के तरीके |
दृष्टिकोण (ज्ञात मजबूरी, आसान आय-विकल्प, जोखिम के लिए तत्परता, नकारात्मकता) | सभी मुद्दों पर गहरा प्रभाव डालता है | बदलाव संभव है | प्रशिक्षण, प्रदर्शन, आश्वस्त करना |
अन्य कोई जमीन? | वांछित फसल की नर्सरी और खाद बनाने, आदि के लिए स्थान मिल सकता है | व्यक्तिगत रूप से बाध्यकारी | सामूहिक नर्सरियां |
मिट्टी की किस्म | खेत में संभव कार्यों को परिभाषित करता है | काफी हद तक बाध्यकारी, लेकिन टुकड़ों में सुधार संभव | मिट्टी सुधार सामग्री (जैसे-जिप्सम, देसी खाद, मल्चिंग) |
जल श्रोत तक पहुँच | सिंचाई की सम्भावना बनाती या ख़त्म करती है | बाध्यकारी, लेकिन नमी-व्यवस्था में बेहतरी संभव | स्थानीय संग्रहण तकनीक, जल खरीद |
जमीन कार्यों के लिए मशीनों तक पहुँच | एक फसल से दूसरी के बीच बदलाव के नियंत्रण को बनाता या बिगाड़ता है | बाध्यकारी | बांटी जा सकने वाली तकनीक, आपस में साँझा करने की व्यवस्था |
जल वितरण तकनीक | उपलब्ध संसाधन का विस्तार कितना संभव | सूक्षम-सिंचाई द्वारा कम किया जा सकता है | किफायती सूक्षम-सिंचाई किट |
जल-नियंत्रण का स्तर | फसल चुनाव के लचीलेपन को परिभाषित करता है | यदि श्रोत सार्वजनिक या बंटवारा आधारित है, तो बाध्यकारी | मध्यवर्ती संग्रहण |
जल उपयोग की कीमत | सिंचाई की क्षमता और लाभ को प्रभाषित करती है | पारम्परिक ऊर्जा के मामले में बाध्यकारी | सौर-आधारित सिंचाई, संभवतः सांझी |
बाजार से दूरी | खरीद-फ़रोख़्त में सहजता, उत्पाद की ताजगी | एकल किसान के लिए बाध्यकारी, फसल चुनाव के लिए मजबूर करता है | कई लोगों का एकत्रीकरण |
भंडारण और प्राथमिक प्रोसेसिंग का अभाव | उपज को रोक रखने की क्षमता, मूल्य संवर्धन और लचीलेपन को परिभाषित करता है | बाध्यकारी नहीं | कोई नहीं |
भौतिक संपर्क | बाजार के साथ व्यवहार की सहजता और गति को परिभाषित करता है | बाध्यकारी | बाजार के खिलाड़ियों को एकत्रीकरण स्थल तक लाना |
सूचना तक पहुँच और संपर्क | सूचना संबंधी विषमता मिटाने की सम्भावना परिभाषित करता है | बाध्यकारी | सूचना और इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन की व्यवस्था स्थापित करना |
निवेश एवं ऋण | इनमें से कितना पहुँच में है, इसे परिभाषित करता है | बाध्यकारी | SHG, सूक्षम-वित्त, आदि |
संजीव फणसलकर “विकास अण्वेष फाउंडेशन”, पुणे के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान, आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फणसलकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?
यह पूर्वोत्तर राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां कई ऐसे स्थान हैं, जिन्हें जरूर देखना चाहिए।