निवारण के लिए उपायों में इस तथ्य को समझने की जरूरत है कि भेदभावपूर्ण और असंवेदनशील दृष्टिकोण के कारण गाँवों में संक्रमित महिलाओं और देखभाल करने वाली महिलाओं के प्रति अलग व्यवहार किया जाता है।
सुरेंद्रनगर जिले के बजाना गांव की 33 वर्षीय निर्मला सोलंकी* अपने पति के COVID -19 से संक्रमित पाए जाने के पांच दिन बाद, कोरोनवायरस से संक्रमित हो गई। उसे उसका भोजन तैयार करना था, समय पर दवा देनी थी, उसके कपड़े और बर्तन धोने थे। वह रोगी द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं के संपर्क से बचने की COVID-19 के अंतर्गत दी गई सलाह का पालन नहीं कर सकती थी।
दंपति ने परिवार के एक अलग घर में शिफ्ट कर लिया। निर्मला सोलंकी ने अपने पति की देखभाल करना, खाना बनाना, सफाई करना और दोनों के कपड़े धोना जारी रखा। जहां उसका पति आराम कर सकता था और स्वस्थ हो सकता था, उसके पास ऐसा कोई विकल्प नहीं था। उसके ससुराल के परिवार का कोई सहयोग नहीं था।
यह उन अनगिनत ग्रामीण महिलाओं की कहानी है, जो COVID-19 से संक्रमित होती हैं, या परिवार के संक्रमित सदस्यों की देखभाल करती हैं। उनमें लक्षण दिखाई पड़ने पर भी, वे जितना हो सके, जाँच करवाना टालते रहते हैं। वे गर्म पानी पीती हैं, हर्बल पेय पीती हैं, दवा लेती हैं और अपने काम में लगी रहती हैं। क्योंकि वे देखभाल करने वाली प्रमुख सदस्य हैं, इसलिए परिवार उन्हें जाँच के लिए प्रोत्साहित नहीं करता।
महिलाओं की हालत को समझने के लिए, सोसाइटी फॉर विमेन एक्शन एंड ट्रेनिंग इनिशिएटिव्स (SWATI – स्वाती) में हमने ग्रामीणों से बातचीत की। ‘स्वाती’ आमतौर पर महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार की हिंसा की रोकथाम पर काम करती है।
हमने गुजरात के गांवों में कई महिलाओं, मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात की, जहां हम इस महामारी के दौरान जीवन के बारे में महिलाओं के दृष्टिकोण को समझने के लिए काम करते हैं। हमने पाया कि महामारी की इस दूसरी लहर में देखभाल करने वाली महिलाओं पर शारीरिक एवं भावनात्मक रूप से और स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभाव की अनदेखी की जा रही है।
उपेक्षित गर्भवती महिलाएं
आशा कार्यकर्ताओं ने हमें बताया कि परिवार के पोषण और भोजन के सेवन में कमी आई है और पिछले एक साल में एनीमिया (खून की कमी), कुपोषण और गर्भपात की शिकायतें बढ़ी हैं। एक संक्रमित सदस्य वाले परिवार में एक गर्भवती महिला की जरूरतों की उपेक्षा होती है।
अपने सामान्य दौरे के समय, एक ‘आशा’ ने पाया कि पाटन जिले के सांथली गाँव की कृष्णा सेमना, जो पाँच महीने की गर्भवती थी, थकावट और कमजोरी से पीड़ित थी। कृष्णा के ससुर की पांच दिन पहले COVID-19 से मृत्यु हो गई थी और उसने तब से बहुत कम खाना खाया था। जांच करने पर उसका ऑक्सीजन स्तर 90 पाया गया।
इससे सतर्क होकर, ‘आशा’ ने परिवार को कृष्णा को तुरंत नजदीकी अस्पताल ले जाने का निर्देश दिया। जब परिवार ने ध्यान नहीं दिया, तो आशा ने एम्बुलेंस हेल्पलाइन पर कॉल किया और वहां से भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर, एक एम्बुलेंस ड्राइवर को फोन किया, जिसे वह जानती थी। कृष्णा को नजदीकी कस्बे के अस्पताल ले जाया गया, जब उनकी हालत बिगड़ी, तो जिला अस्पताल ले जाया गया। जाँच में उन्हें संक्रमित पाया गया और आईसीयू में भर्ती करना पड़ा।
परिवार की जरूरतों को प्राथमिकता
अधिकतर परिवारों और स्वयं महिलाओं में यह एक सामाजिक नियम है, कि महिलाएं देखभाल करने वाली प्रमुख सदस्य हैं। महिलाएं किसी भी बीमारी का समय पर पता लगाने और उसके इलाज के लिए अपने काम के बोझ का हवाला देती हैं और यह COVID-19 के मामले में यह अलग नहीं है।
पाटन जिले के जवाहरनगर गांव में, शांता चंदे टीका लगने के कुछ दिनों बाद जाँच में संक्रमित पाई गई। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के डॉक्टर ने उन्हें घर पर ही क्वारंटाइन रहने और निर्धारित दवा लेने और आराम करने की सलाह दी।
क्योंकि यह फसल कटाई का समय था और क्योंकि उसका खेत गांव से काफी दूर था, इसलिए उसने खेत में ही खुद को क्वारंटाइन करने और फसल के काम में परिवार की मदद करने का फैसला किया। एक हफ्ते बाद उसकी नींद में ही मौत हो गई। उसकी बिगड़ती हालत पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था।
चंदे की मौत के लिए सभी ने वैक्सीन को जिम्मेदार ठहराया। स्थानीय ‘आशा’, रमा ने कहा कि इस तरह की घटनाओं ने वैक्सीन के बारे में भ्रांतियों को और बढ़ा दिया है। विशेष रूप से महिलाएँ मृत्यु या अन्य बीमारियों के डर से टीका लेने से बच रही हैं, क्योंकि यह उनके परिवार और खेती के काम की उनकी जिम्मेदारी को प्रभावित करेगी।
लॉकडाउन का प्रभाव
कई क्षेत्रों में लॉकडाउन प्रतिबंधों ने सार्वजनिक बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था और यहां तक कि छकड़े और ऑटो जैसी निजी परिवहन सुविधाओं को प्रभावित किया है, क्योंकि लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे हैं। इसका महिलाओं पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है, क्योंकि वे सार्वजनिक परिवहन पर सबसे ज्यादा निर्भर करती हैं।
एक सामुदायिक कार्यकर्ता ने देखा कि एक महिला अपनी बीमार जवान बेटी के साथ, गांव में जंक्शन पर इंतजार कर रही थी, इस उम्मीद में कि उन्हें शहर में डॉक्टर के क्लिनिक तक कोई सवारी मिल जाए। दो घंटे इंतजार करने के बाद, महिला को वापस लौटना पड़ा, क्योंकि जब तक वह पहुंचती डॉक्टर का सलाह-परामर्श का समय खत्म हो चुका होता।
जेंडर-आधारित भेदभाव
हमारी बातचीत में, COVID-19 प्रभावित महिलाओं के इलाज में परिवारों द्वारा भेदभाव का भी पता चला। एक आशा ने हमें एक 37 वर्षीय महिला के बारे में बताया, जिसकी हाल ही में COVID-19 से मौत हो गई थी। सुरेंद्रनगर जिले के सदला गांव की, कमला भोई घर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र द्वारा उपलब्ध कराई गई और आशा की देखरेख में दवा ले रही थीं।
कुछ दिनों बाद उसकी तबीयत बिगड़ गई और आशा ने परिवार को सलाह दी कि वह उसे तुरंत डॉक्टर के पास ले जाए। डॉक्टर ने कहा कि भोई को तत्काल ऑक्सीजन की जरूरत है और यह 20 किमी दूर जिला अस्पताल में उपलब्ध है।
लेकिन परिवार वाले भोई को घर वापस ले गए और अगले दिन उसकी मृत्यु हो गई। आशा जिस दूसरे परिवार में गई, उसमें एक पुरुष संक्रमित था। उनका संक्रमण बहुत गंभीर नहीं था, लेकिन उस व्यक्ति का इलाज एक निजी क्लिनिक में चल रहा था, जहां परिवार हर दिन 10,000 रुपये का भुगतान कर रहा था।
बहुओं की स्थिति दयनीय है। यदि वह परिवार के किसी संक्रमित सदस्य की देखभाल करते हुए संक्रमित हो जाए, तो परिवार उस स्थिति को स्वीकार कर लेता है। लेकिन यदि वह संक्रमित होने वाली पहली सदस्य हो, तो उसे पूरे परिवार के क्रोध का सामना करना पड़ता है। यह उसकी गलती मानी जाती है और पूरे घर को जोखिम में डालने के लिए उस पर इल्जाम लगता है। संक्रमित होने के बावजूद वह घर के काम करती रहती है।
COVID देखभाल केंद्र
एक जरूरी पहल के अंतर्गत, गुजरात सरकार ने पंचायतों की मदद से, मरीजों को क्वारंटाइन करने के लिए गांव स्तर पर कोविड देखभाल केंद्र स्थापित किए हैं। लेकिन इनके उपयोग के लिए, जागरूकता पैदा करने और रोगियों की गरिमा सुनिश्चित करने की जरूरत है।
फ़िलहाल इन्हें उन रोगियों के केंद्र के रूप में देखा जाता है, जिनके परिवार उनकी देखभाल नहीं कर सकते हैं। इसलिए इनका उपयोग करने में हिचकिचाहट हो रही है। ज्यादातर केंद्रों में बिस्तर फर्श पर लगे हैं। महिलाओं के लिए अलग, सुरक्षित एवं साफ़ कमरे, पानी और स्वच्छता सुविधाओं को सुनिश्चित की जानी चाहिए।
महामारी प्रबंधन
कोरोनावायरस महामारी के प्रबंधन के ज्यादातर उपाय या तो जेंडर-उपेक्षा या जेंडर-तटस्थ हैं और बड़े पैमाने पर इस तथ्य की अनदेखी करते हैं, कि महामारी में महिलाओं के प्रति विशेष रूप से सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक क्षेत्र में भेदभावपूर्ण रवैया रहता है। इस वास्तविकता को समझे जाने की जरूरत है कि महिलाओं को दोयम दर्जे की स्थिति और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है और कि वे परिवार की एकमात्र देखभालकर्ता हैं।
हाल के आंकड़ों में टीकाकरण में भी जेंडर-आधारित भेद दिखता है। मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार गुजरात में, महिलाओं की टीकाकरण दर पुरुषों की तुलना में 13% कम है। परिवार पुरुष सदस्यों को पहले टीका लगवाने का भेदभावपूर्ण विकल्प अपनाते हैं, इस तर्क के साथ कि वे घर से बाहर ज्यादा जाते हैं। हालांकि इस तर्क में कुछ दम है, लेकिन यह महिलाओं के स्वास्थ्य की प्राथमिकता को लगातार कम करता है और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए परिवार और पति पर उनकी निर्भरता बढ़ाता है।
गर्भवती, स्तनपान कराने वाली, विकलांग, एकल, बुजुर्ग महिलाओं और अतिरिक्त बीमारी से ग्रस्त महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्हें मिलने वाला पूरक राशन दोगुना किया जाना चाहिए। पंचायतों और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं को सभी महिलाओं के टीकाकरण को प्रोत्साहित करना चाहिए।
COVID-19 प्रभावित रोगियों के परिवारों के लिए भोजन सेवा सुविधाएं शुरू करने से महिलाओं पर देखभाल का कुछ बोझ कम हो सकता है। इसके लिए धन महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS), स्थानीय दाताओं या सामुदायिक सेवा संगठनों (CSO) के माध्यम से जुटाया जा सकता है।
समुदाय के नेताओं, पंचायत सदस्यों और अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, महिलाओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने के लिए समुदाय को संवेदनशील बनाने में अग्रणी भूमिका निभाने की जरूरत है, विशेष रूप से महिलाओं के लिए COVID-19 उपचार और टीकाकरण प्रदान करने में।
* गोपनीयता की दृष्टि से नाम बदल दिए गए हैं।
लेखिका ‘स्वाती’ से जुड़ी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल: Pkathuria.swati@gmail.com
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?