कोरोना वायरस से गांव में कैसे बदल रहा है जीवन

पश्चिम मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल

शांत खेल के मैदान से लेकर स्कूलों तक के क्वारंटाइन केंद्र बनने तक, COVID-19 ने गाँव के जीवन को पलट कर रख दिया है। देश का पेट भरने वाले किसान के लिए, महामारी का राशन मिलना सबसे दुखद बदलाव है

“मैं 65 वर्षीय सौगत पात्रा हूं। मैं पश्चिम बंगाल में, ‘सिटी ऑफ़ जॉय’, कोलकाता से लगभग 200 किमी दूर कृष्णाबल्लवपुर नाम के गाँव में रहता हूँ। मेरा गांव पश्चिम मेदनीपुर जिले में है और तीन प्रशासनिक ब्लॉक की सीमा में है। यहाँ अच्छी पक्की सड़कें हैं, लेकिन सार्वजनिक परिवहन नहीं है। लगता है ग्रामीणों को इससे कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि कुछ लोग साइकिल पसंद करते हैं; और आजकल लगभग सभी के पास मोटरसाइकिल है।

मेरे गांव में ही नहीं, बल्कि लगभग 50 गांवों के पूरे इलाके में आपको ज्यादा युवा नहीं मिलेंगे। उनमें से ज्यादातर अलग अलग शहरों में चले गए हैं, और विभिन्न प्रकार के कार्यों में लगे हुए हैं। देश में COVID-19 की चपेट में आने के बाद उनमें से कई वापस आ गए, लेकिन आखिर में फिर शहरों को लौट गए।

दूसरी लहर के दौरान, बहुत से वापिस नहीं आए। शहरों में काम और आमदनी है, लेकिन यहां नहीं। गाँव में जीवन आमतौर पर बदल गया है। लेकिन बदलाव अलग तरह के हैं और महामारी में अप्रत्याशित तरीके से घटित हो रहे हैं। मेरे जैसे किसान के लिए और भी ज्यादा।

विभिन्न श्रम कार्य

मेरे पास सात बीघा या लगभग दो एकड़ जमीन है। इस क्षेत्र में भूमि उपजाऊ है। सर्दी के मौसम में हम धान और सब्जियां उगाते हैं। यदि आपके परिवार में खेतों में काम करने के लिए कुछ सदस्य हैं, तो सब्जियां अच्छा लाभ देती हैं। क्योंकि मजदूर मिलना बहुत मुश्किल है।

मेरी सात बीघा भूमि में हम लगभग 800 किलो चावल पैदा करते हैं और यह मेरे काम और आय का मुख्य स्रोत है। आजकल खेती करना बहुत मुश्किल है।

मेरे पास मनरेगा कार्ड भी है। (मनरेगा अधिनियम के अंतर्गत महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, जिस कारण इसे मनरेगा कहा जाता है) कोरोनावायरस महामारी के दौरान, मनरेगा के अंतर्गत काम में वृद्धि हुई है। सड़क निर्माण का काम नहीं होने के कारण, आजकल तालाब खोदे जा रहे हैं। कुछ दिन मैं मनरेगा के काम के लिए जाता हूँ; पैसे के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ काम का आनंद लेने के लिए। मेरे परिवार के लगभग सभी सदस्य मनरेगा के काम पर जाते हैं।

महामारी के दौरान मनरेगा के अंतर्गत काम बढ़ा है (छायाकार – सत्य सांतरा)

अमीर हो या गरीब, हर कोई मनरेगा के काम में जाता है। इसका एक कारण यह है कि बिना ज्यादा मेहनत किए और कुछ ही घंटों के काम से हम आसानी से पैसा कमा सकते हैं। क्योंकि ज्यादातर युवा पलायन कर चुके हैं, इसलिए मनरेगा का काम मिलना आसान है। उस पर मुफ्त मिलने वाले राशन के चलते, लोग खेत में काम करने के लिए इच्छुक नहीं हैं।

घाटे का सौदा खेती

हर किसी की आस-पास की दुकानों और बाजारों में काम करने में दिलचस्पी है, लेकिन धान के खेत में नहीं। मजदूरी बढ़कर 292 रुपये प्रतिदिन हो गई है। क्योंकि मजदूर बहुत जल्दी आते हैं, इसलिए हम उन्हें नाश्ता और दोपहर का भोजन प्रदान करते हैं, जो ज्यादातर उनका पसंदीदा फर्मेन्टेड चावल से बना व्यंजन, पंता भात होता है।

यदि वे प्रवासी मजदूर हैं, तो काम के आधार पर कुछ दिनों के लिए जमीन के मालिक के घर में रहते हैं। तब रात का खाना भी दिया जाता है। कई बार जमीन के मालिक को आराम के समय में कुछ देना पड़ता है। मजदूरी और भोजन मिलाकर प्रति मजदूर लगभग 350 रुपये खर्च होते हैं।

खेती तभी लाभदायक है, जब परिवार के सदस्य खेत में काम करें, क्योंकि मजदूर मिलना मुश्किल है (छायाकार – संगीता साऊ)

इसके अलावा, हम पानी के लिए भुगतान करते हैं। गांवों में बड़े किसानों के पास बिजली कनेक्शन वाले पंप हैं। सीमांत किसानों की भूमि बिखरी हुई होती है और उनके पास अपने स्वयं के जल स्रोत का अभाव होता है। इसलिए हम बड़े किसानों से पानी खरीदते हैं। हम एक सीजन के लिए 2,000 रुपये प्रति बीघा चुकाते हैं। बरसात के दिनों में यह दर लगभग आधी हो जाती है। पानी, कीटनाशक और खाद की बड़ी कीमत चुकाने के बाद, मुनाफा कमाना बहुत मुश्किल है।

यदि मैं अपने मेहनत और मजदूरी का हिसाब लगाऊं, तो 1 किलो चावल पैदा करने में लगभग 22 रुपये का खर्च आता है। लेकिन यह बाजार में 18 रुपये किलो बिकता है। जब तक मजदूरों को काम पर रखने की बजाय परिवार के सदस्य काम नहीं करते, तब तक एक किसान कोई लाभ नहीं कमा सकता। यही कारण है कि बहुत से किसान अपनी जमीन रखना नहीं चाहते।

प्राप्तकर्ता के रूप में निर्माता

मेरे क्षेत्र में बहुत से लोग हैं, जो गरीबी रेखा से नीचे नहीं हैं, लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से खाद्यान्न के लाभार्थी हैं। पीडीएस से अब गेहूं मिल रहा है; लोग बदल गए हैं और अपने खाने की आदतों को बदलना जारी रखे है। अपने पारंपरिक भोजन चावल की बजाय, लोग रात में गेहूं की रोटी खा रहे हैं। मधुमेह के बढ़ते मामलों के साथ, डॉक्टर गेहूं से बनी चीजें भी लिख रहे हैं।

साथ ही, कई परिवार ऐसे भी हैं जो पीडीएस राशन ले रहे हैं, लेकिन वे उसका सेवन नहीं करते। वे अनाज स्थानीय बाजार में बहुत कम कीमत पर बेच देते हैं, क्योंकि बिक्री से उन्हें जो कुछ भी मिलता है, वह उनके लिए मुनाफा ही होता है। लेकिन किसानों के लिए यह बहुत मुश्किल समय है। क्योंकि पीडीएस से आपूर्ति किया जाने वाला अनाज स्थानीय किसानों से नहीं खरीदा जाता। स्थानीय स्तर पर मांग कम होने के कारण, किसान अपनी उपज नहीं बेच पा रहे हैं।

महामारी की पिछली लहर के दौरान, हमें सरकार से 35 किलो अनाज मिला। क्या यह विडंबना नहीं है कि हम किसान, जो देश का पेट भरने के लिए अनाज पैदा करते हैं, उन्हें दान के रूप में भोजन मिलता है? मैंने सरकार द्वारा बांटे गए अनाज को अस्वीकार करने के बारे में सोचा, लेकिन कर नहीं सका।

यदि मैं स्वीकार नहीं करता, तो मुझे सरकार विरोधी या सत्ताधारी-पार्टी विरोधी की छाप लगा दी जाती। लेकिन मैंने दृढ़ता से महसूस किया कि ये खाद्यान्न जरूरतमंद परिवारों, प्रवासी मजदूरों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को दिया जा सकता था, जो भोजन पैदा नहीं कर सकते और बाजार पर निर्भर हैं।

दरवाजे पर बाजार

COVID-19 महामारी के दौरान बाजार हमारे दरवाजे पर आने लगा। क्योंकि मेरे गाँव और आस-पास के गाँवों में सब्जियां और दूसरी महँगी वस्तुओं का उत्पादन होता है, इसलिए व्यापारी और कारोबारी दूसरे गाँवों में बेचने के लिए हमारे गाँवों में उपज की खरीद के लिए आने लगे।

अब आपको गांव में सब कुछ मिल जाएगा – मछली, सब्जियां, कपड़े। पहले हम सप्ताह में एक बार ‘हाट’ (स्थानीय बाजार) और त्योहारों के दौरान मेले में जाते थे। लेकिन पिछले साल लॉकडाउन के प्रतिबंध के समय, छोटे व्यापारियों को घर पर बेकार रहना मुश्किल हो गया था। उन्हें भी अपने परिवार का भरण पोषण करना होता है। इसलिए वे गांवों में आने लगे। मैं इसे महामारी के एक नए रुझान के रूप में देखता हूं।

अब कई काम ऑनलाइन या टेलीफोन पर किए जा सकते हैं। जैसे मोबाइल रिचार्ज, टीवी रिचार्ज, गैस सिलेंडर की बुकिंग और यहां तक ​​कि किराने का सामान भी। रसोई गैस सिलेंडर की होम डिलीवरी गांवों में नहीं हो रही है। हम आम तौर पर ये लगभग 20 किमी दूर दुकान से लाते हैं।

बिजली का बिल भरने के लिए भी जाना पड़ता है। लेकिन आजकल कुछ युवाओं ने यह काम हाथ में ले लिया है। वे 75 रुपये चार्ज करते हैं और घर पर गैस सिलेंडर पहुंचाते हैं। वे मेरा बिजली बिल का भुगतान भी करते हैं। इसके लिए वे प्रति बिल 15 रुपये वसूलते हैं। उन्हें कुछ जेब खर्च मिल जाता है और ग्रामीणों को भी फायदा होता है।

सन्नाटा

बात सिर्फ इतनी है कि वे बहुत दिनों से स्कूल नहीं जा रहे हैं। मेरी उम्र में कोई कॉलेज नहीं जाता था। लेकिन अब कईयों ने स्कूल और कॉलेज में दाखिला ले लिया है। उनमें से कुछ इस शैक्षणिक वर्ष में पहली बार स्कूल गए। मैंने सुना है कि लॉकडाउन के कारण वे सभी पास हो जाएंगे। लेकिन शायद उन्होंने सीखा कुछ भी नहीं होगा।

मेरे गाँव में, ज्यादातर युवा दसवीं या बारहवीं कक्षा पास करके काम की तलाश में पलायन कर जाते हैं। वे जो कमाते हैं, उससे वे अपनी बहनों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। आप पाएंगे कि सभी माध्यमिक, उच्च माध्यमिक विद्यालयों और महाविद्यालयों में लड़कियों की संख्या ज्यादा है।

ग्रामीणों के योगदान से दोबारा बनाया गया स्कूल, महामारी के कारण बंद कर दिया गया है (छायाकार – नबीन सांतरा)

लेकिन जब लड़कियां पढ़ाई पूरी कर लेती हैं, तो एक पढ़ा-लिखा, अच्छी नौकरी वाला  दूल्हा मिलना मुश्किल है। लेकिन महामारी के दौरान जिस चीज की कमी हम महसूस करते हैं, वह है विवाह समारोह। पहले पूरा गांव या बस्ती इसमें शामिल होती था।

गरीब परिवारों के लिए हम सामूहिक रूप से खर्चों का बंदोबस्त करते थे और जश्न मनाते थे। आखिर ये हमारे गांव के बच्चे हैं। लेकिन अब COVID-19 के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान, शादियां बिना किसी मेहमान के हो रही हैं। 

मेरे गाँव में प्रवेश करते ही बड़ा खेल का मैदान अब झाड़ियों से ढका हुआ है। हाल के वर्षों में खेल और खेल-गतिविधियों की संख्या में कमी आई है। लेकिन अब कुछ भी नहीं है। क्रिकेट के खिलाड़ियों के बिना और खेल में कैच या विकेट के साथ चिल्लाने के बिना, मैदान के चारों ओर सन्नाटा होता है।

फिर से खुला स्कूल

गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय है। करीब 20 साल पहले स्कूल की इमारत ढह गई थी। क्योंकि सरकार हमारी दरख्वास्त का जवाब देने में अपना समय ले रही थी, इसलिए हम ग्रामीणों ने, चंदा इकठ्ठा किया और एक अच्छी इमारत का निर्माण किया। प्रवास के कारण और माता-पिता की निजी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की पसंद के कारण, हाल के वर्षों में छात्रों की संख्या में कमी आई है। लेकिन यह कुछ स्थानीय छात्रों को शिक्षा प्रदान करता है।

महामारी आने और लॉकडाउन की घोषणा पर स्कूल बंद कर दिया गया। लेकिन अब इसे फिर से खोल दिया गया है। विद्यालय के रूप में काम करने के लिए नहीं, बल्कि एक दूसरे उद्देश्य के लिए। इसे हमारे गांव में लौटकर आने वाले प्रवासी मजदूरों के लिए एकांतवास-केंद्र में बदल दिया गया है।

इस बीच मेरे समेत लगभग सभी को बुखार हो गया और हमने स्थानीय झोलाछाप डॉक्टर से दवा ले ली। मैंने पिछले एक साल में अपने घर से बाहर कदम नहीं रखा है। मेरा बेटा एक शहर में नौकरी करता है। मैंने उसे न आने के लिए कहा है, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरी छोटी पोती को बुनियादी सुविधाओं से रहित स्कूल में क्वारंटाइन किया जाए। मैं महामारी के खत्म होने का इंतजार कर रहा हूं, ताकि मैं अपनी पोती को देख सकूं, जिससे मैं डेढ़ साल पहले मिला था।”

ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन के श्यामल सांतरा को जैसा वर्णन किया गया। सौगत पात्रा पश्चिम बंगाल के कृष्णाबल्लवपुर में रहने वाले एक सीमांत किसान हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।