इस कहानी के पहले भाग में, हमने उन कारणों पर प्रकाश डाला था कि पंचायती राज संस्थानों और स्थानीय प्रशासन से उचित प्रशासनिक सहायता मिलने पर, एक समुदाय के नेतृत्व में हुई पहल से कैसे स्थानीय विकास के लिए बेहतर परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। इस भाग में हमने ठोस उदाहरण प्रस्तुत किए हैं कि यह कैसे हुआ है और उसके बाद जरूरी आपस में जुड़े प्रक्रियात्मक बदलावों पर चर्चा की है।
मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले में, समुदाय के नेतृत्व में हुए प्रयासों ने COVID-19 महामारी की दूसरी लहर में भारी प्रभाव डाला। दूसरी लहर के शुरू में सबसे खराब संक्रमण दर के साथ जिला सबसे नीचे था। जिले में महाराष्ट्र की सीमा से लगे प्रशासनिक ब्लॉक राजपुर और सेंधवा की संक्रमण दर और भी बुरी थी। झाबुआ जिले में भी हालात लगभग ऐसे ही थे।
लेकिन समुदाय से लिए गए सदस्यों की सामूहिक संस्थाओं ने स्थानीय प्रशासनिक निकायों के साथ मिलकर काम करते हुए, मामलों को विधिपूर्वक सुलझाया। संयुक्त प्रयासों के कारण जिलों में महामारी की स्थिति में बदलाव आ गया।
इलाका आधारित कार्यपद्धति
नागरिक समाज संगठनों (CSOs) के फील्ड कार्यकर्ताओं के सहयोग से, स्वयं सहायता समूहों (SHGs) में संगठित समुदायों ने, व्यापक ‘इलाका आधारित कार्यपद्धति’ पर पंचायतों के साथ सामूहिक अभियान, घर में ही आइसोलेशन, ‘कोविन’ पर पंजीकरण, और टीकाकरण अभियान के लिए काम किया। इसके अलावा, उन्होंने विभिन्न बीमा योजनाओं और प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (पीएमजेजेबीवाई), अंत्येष्टि योजना, अनुग्रह सहायता योजना और प्रधान मंत्री सहायता राशि योजना जैसी अन्य पात्रताओं तक पहुंच सुनिश्चित की।
समुदाय ने अग्रणी स्वास्थ्य सुविधाओं में क्षमता सुनिश्चित करने के लिए, ब्लॉक प्रशासन के साथ काम किया, जिसमें एसडीएम कार्यालय, जनपद कार्यालय, एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) और स्वास्थ्य विभाग शामिल थे। ग्राम पंचायत और स्थानीय प्रशासन के साथ समुदाय के इस तरह के गहन जुड़ाव के कारण, बड़वानी ने राज्य में अपनी रैंकिंग में सुधार किया। बहुत ही कम समय में यह सबसे कम संक्रमण दर वाला सबसे अच्छा जिला बन गया।
टिकाऊ मॉडल?
स्वयं सहायता समूहों और उनके ग्राम संगठनों जैसे समुदाय आधारित संगठनों ने उपरोक्त कार्यों को संचालित किया। इसके अलावा, समुदाय आधारित संगठनों ने ग्रामीणों को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के अंतर्गत रोजगार दिलाने में आजीविका सहायता सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया।
ग्राम पंचायतों के सहयोग से, ग्राम संगठन COVID-19 का अभूतपूर्व तरीके से मुकाबला कर रहे हैं। साथ ही, PRI और CBO सभी COVID-19 संक्रमित व्यक्तियों के लिए दवा-किट जुटा रहे हैं। राज्य सरकार ने 14वें वित्त आयोग के अंतर्गत, पंचायतों को दी गई धनराशि को पंचायतों और ब्लॉकों के प्रयासों के लिए संसाधन के रूप में उपयोग करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
हम समझते हैं कि केंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया कार्यक्रम कार्यान्वयन का बोझ बढ़ा देती है। इस कार्यपद्धति ने एक अलग मॉडल प्रदर्शित किया है। यह पता लगाना दिलचस्प होगा कि क्या स्थानीय ग्राम पंचायतों और स्थानीय प्रशासन के साथ समुदाय आधारित संगठनों का इतना गहरा सहयोग केवल एक महामारी के गहन और व्यापक रूप से महसूस किए गए खतरे के समय ही संभव था, या ‘सामान्य’ समय में भी काम कर सकता है।
यह प्रश्न तब बेहतर समझ में आता है, जब देखते हैं कि मध्य प्रदेश के दूसरे जिलों में CBO, PRI और स्थानीय प्रशासन के बीच इतना गहन जुड़ाव और तालमेल नहीं हुआ। तो बड़वानी या झाबुआ में ऐसा क्यों हुआ? यह हमें इस तालमेल से जुड़े मुद्दों पर ले जाता है कि यह हो कैसे।
प्रक्रियात्मक उपाय
हमारा मानना है कि यह संभव हो सका, क्योंकि आपस में जुड़े प्रक्रियात्मक उपाय लागू किए गए थे। जिले में CSOs एवं सम्बंधित विभागों के साथ एक ब्लॉक स्तरीय समन्वय समिति (बीएलसीसी) या ब्लॉक स्तरीय टास्क फोर्स का गठन किया गया। इस समिति का संयोजक CBO के डीपीएम-एसआरएलएम के काम से गहनता से जुड़ा या सीईओ (जनपद) या एसडीएम जैसा प्रशासनिक पक्ष का कोई व्यक्ति था।
बीएलसीसी के सदस्यों में जनपद कार्यालय के साथ-साथ निर्वाचित पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिनिधि थे।
समिति की बैठकों की कार्यवाही लिखी जाती थी और की गई कार्यवाही पर अगली बैठक में चर्चा होती थी।
जिला प्रशासन ने बीएलसीसी के मुद्दों को उठाने और प्रबंधन का समर्थन किया। जिला कलेक्टर जिले के खराब रैंक को उलटने के लिए बहुत उत्सुक थे और इसलिए बीएलसीसी की चर्चाओं और निर्णयों की निगरानी करते थे, और बीएलसीसी के निर्णय के अनुसार काम हो, इसकी जिम्मेदारी उन्होंने जनपद सीईओ (बीडीओ के समकक्ष) को दी थी।
यदि सार्थक और प्रभावी सामुदायिक भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए ये प्रक्रियात्मक बदलाव महत्वपूर्ण हैं। एक विश्वसनीय प्रक्रिया के अभाव में, इसे एक तरफ सरकार के आम व्यावहारिक तरीकों से मिलान के लिए, और दूसरी ओर समुदाय की आवाज को नियमितता और वजन दोनों प्रदान करने के लिए, सामुदायिक जुड़ाव संभव नहीं है।
सामान्य परिणाम यह है कि सामुदायिक भागीदारी एक बहुप्रचारित शब्द है, जिसे आमतौर पर खाली बयानबाजी के स्तर पर छोड़ दिया जाता है। यह तथ्य कि बड़वानी और झाबुआ में बीएलसीसी केवल COVID-19 तक सीमित नहीं रही और मनरेगा जैसे मामलों में प्रभावी हुई, यह दर्शाता है कि एक बार कोई प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद, इसका उपयोग गैर-आपातकालीन हालात में भी किया जा सकता है।
सहक्रियाशील (synergetic) विकास
CBO के नेतृत्व वाले विकास को वास्तविक रूप देने के लिए, समुदाय के सदस्यों को प्रशिक्षित करने, साथ देने और जानकारी-आधार तैयार करने और उनके प्रतिनिधित्व को प्रज्वलित करने की जरूरत है। इसके साथ-साथ दोनों वर्ग की संस्थाओं के एक साथ काम करने के लिए, पंचायती राज संस्थान जैसी औपचारिक संस्थाओं के साथ गहनता से काम करने की जरूरत है।
रचनात्मक रूप से हमें यह जांचना होगा कि मौजूदा स्वयं सहायता समूह – ग्राम संगठन – क्लस्टर लेवल फेडरेशन (एसएचजी-वीओ-सीएलएफ), कैसे टोला – राजस्व ग्राम – पंचायत – ब्लॉक जैसे राजनीतिक-प्रशासनिक इलाका आधारित फ्रेमवर्क के साथ सह-स्थानक बन सकता है। स्थानीय लोकतंत्र के ढांचे के साथ उच्च सामंजस्य की एक सामुदायिक संरचना, प्राकृतिक तालमेल लाएगी। 15वीं वित्त समिति का पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय प्रावधान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में विशिष्ट दिशानिर्देश, ऐसे सीबीओ-पीआरआई तालमेल को सक्षम बनाते हैं। यदि भारत को 2030 तक अपने लक्ष्यों को प्राप्त करना है, तो हमें SDGs (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) के प्रभावी स्थानीयकरण के लिए एक व्यवस्था का निर्माण करना होगा – जो पंचायती राज व्यवस्था के स्थानीय स्व-शासन के साथ, महिलाओं के समूह में मौजूद सामाजिक पूंजी का लाभ उठाता है और एकीकृत करता है।
मांग पक्ष की एक मजबूत आवाज बनने के लिए, सामुदायिक सामूहिक संस्थाओं की शक्ति के साथ पंचायती राज संस्थाओं का संतुलन और स्थानीय प्रशासन से सहयोग बहुत महत्वपूर्ण हैं। उतना ही महत्वपूर्ण है, स्थानीय नेतृत्व, विशेष रूप से युवाओं का अधिकार। ऐसा लगता है कि महिला समूह जाति, पितृसत्ता और धन के मजबूत हितों से जूझ रहे हैं। वे प्रथाओं, असमान सामाजिक संबंधों को चुनौती देते हैं और स्थानीय नेतृत्व के साथ जुड़कर, सामाजिक समानता के लिए हालात तैयार करते हैं, और अंततः प्रभावी स्थानीय स्व-शासन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
कई जिलों में समूह निर्माण और पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत बनाने और उन्हें मिलकर काम करने के प्रयास हुए हैं। फिर भी, इस प्रक्रिया का जिला और ब्लॉक स्तर के विकास प्रशासन में परिचय नई बात है, हालांकि इसे भी कई मौकों पर आजमाया गया था – जिनमें लगभग दो दशक पहले समुदाय आधारित अभिसरण (convergent) सेवाएं और हाल ही का कार्यान्वयन के लिए ‘मिशन अंत्योदय फ्रेमवर्क’ प्रमुख हैं।
इसका थोड़ा अलग प्रकार का रूप ‘ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ़ एस्पिरेशन डिस्ट्रिक्स’ में है – सभी मामलों में एक जन-सार्वजनिक तालमेल को आजमाया जा रहा है। इन प्रक्रियाओं के मूर्तरूप होने में एक चुनौती, प्रभाव के बिंदु यानी परिवारों या गांवों से दूरी है।
दूसरी चीज जो गायब पाई जाती है, वह है सहयोग व्यवस्था को औपचारिक रूप देने वाली प्रशासनिक प्रक्रियाओं के साथ शुरू से जोड़ना और स्थानीय प्रशासन की सक्रिय भागीदारी को जोरदार तरीके से उपयोग करना।
सामुदायिक समूहों का मजबूतीकरण
कोई समन्वय समितियां बना सकता है, जैसा कि कई अन्य अवसरों पर किया गया है। लेकिन यदि समितियों का आयोजन जिला कार्यालय या उप-मंडल प्रशासनिक कार्यालयों पर छोड़ दिया जाए, तो यह आसानी से प्रशासनिक अव्यवस्था में खो सकता है।
ठीक वैसे, जैसे जिला स्तरीय ऋण समिति का आयोजन अग्रणी बैंक द्वारा किया जाता है, जो जिला प्रशासन की प्राथमिकताओं से हट कर अपना कार्य करती है, उसी तरह प्रतिदिन CBOs के साथ काम करने वाले राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन (या इसी तरह की एजेंसी) के एक अधिकारी द्वारा समन्वय समिति का आयोजन यह सुनिश्चित करेगा कि बैठकें हों और CBOs की भागीदारी एक वास्तविकता बने।
संक्षेप में, इलाका-आधारित कार्यपद्धति, समुदाय-स्थानीय शासन तालमेल अभिसरण, विभिन्न सामाजिक-आर्थिक आयामों, शासन के मुद्दों, जलवायु-दबाव आदि के मुद्दों से निपटने की दिशा में, सुधारात्मक लचीला परिवर्तनकारी बदलाव लाने के लिए मौलिक वाहक है।
इस कार्यपद्धति के केंद्र में मजबूत जीवंत सामुदायिक समूहों का निर्माण है। उदाहरण के लिए, एसएचजी या महिलाओं के सूक्ष्म आपसी-सहयोग एकजुटता समूहों ने संवैधानिक रूप से स्थानीय स्व-शासन निकायों (पंचायत), जाति/बिरादरी पंचायत जैसी पारंपरिक सामुदायिक व्यवस्थाओं, या वन संरक्षण समितियों (FPCs) जैसे दूसरे सम्बंधित समूहों को अनिवार्य बनाया।
फिर इन्हें नव-निर्मित प्रक्रियाओं में शामिल करने की जरूरत होती है, जिसके लिए पीआरआई और स्थानीय प्रशासन के साथ समय-समय पर और अनिवार्य अभिसरण बैठकों की जरूरत होती है। इलाका-आधारित कार्यपद्धति, समुदाय-केंद्रित समाधानों पर काम के लिए प्रमुख है: लोगों और समुदायों पर ध्यान केंद्रित रखना, संबंध बनाना, शक्तियों पर ध्यान केंद्रित करना और विकसित करना, आकांक्षाओं को साकार करना और वास्तविक समुदाय-नेतृत्व वाली कार्यपद्धति को सुनिश्चित करना।
इस दो-भाग वाले लेख में रेखांकित कार्यपद्धति, एक क्रॉस-कटिंग लक्ष्य SDG लक्ष्य-17 (कार्यान्वयन और साझेदारी के साधनों का मजबूतीकरण) को स्थानीय संदर्भ में सजीव बनाता है।
[यह लेख लेखक द्वारा अपडेट किया गया है]
अनीश कुमार ‘ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन’ की लीड टीम का हिस्सा हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत ‘प्रदान’ में की। वे वन प्रबंधन में स्नातकोत्तर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।