गांवों के विभिन्न प्रभावशाली लोगों को परामर्श देने और आश्वस्त करने, और युवा स्वयंसेवकों को अपने अभियान के प्रति प्रोत्साहित करने से, समुदायों में टीकाकरण के लिए फैली अफवाहों और आशंकाओं को दूर करने में मदद मिली है।
“आप लोग इस बीमारी को हमारे गांव में लाए हैं। पहले हमें ऐसी कोई बीमारी नहीं थी। और अब आप हमें इन टीकों से मारने की योजना बना रहे हैं।” ये शब्द थे झारखंड के ग्रामीणों के, जो असल में ही मानते थे कि स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमारी लाए थे और कि टीका उनकी जान ले लेगा। इसलिए उन्होंने टीका लगवाने से मना कर दिया।
इलाज के लिए ओझाओं और नीम हकीमों पर निर्भरता, स्थानीय धर्मगुरुओं का प्रभाव, पर्याप्त चिकित्सा बुनियादी ढांचे का अभाव और कई दूसरे कारणों से, राज्य के आदिवासी समुदायों में अधिक भय पैदा हुआ है।
मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा), आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, सहायक नर्स दाइयों (एएनएम) और स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) के सदस्यों से बनी टास्क फोर्स को टीकाकरण अभियान में कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। दूरदराज के गांवों में अधिकारियों को, न केवल महामारी, बल्कि गलत सूचना और अफवाहों से भी जूझना पड़ता है। इन चुनौतियों से निपटने की उनकी रणनीति के धीरे-धीरे परिणाम सामने आ रहे हैं।
पटरी से उतरी योजनाएं
1 मार्च 2021 को, झारखंड के आदिवासी गांवों में 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए COVID-19 का टीकाकरण अभियान शुरू किया गया। लगभग 83 लाख की लक्षित आबादी के लिए, पंचायतों में वॉक-इन (पहले से समय लिए बिना) टीकाकरण केंद्र स्थापित किए गए थे।
टीकाकरण अभियान रणनीतिक रूप से, ग्रामीणों को जुटाने के लिए, मांझी (मुखिया) और पारंपरिक स्थानीय शासन व्यवस्था के दूसरे अगुआओं को शामिल करने पर केंद्रित था। लेकिन दूसरी लहर के व्यापक पैमाने पर फैलने से लोगों में डर पैदा हो गया, जिससे राज्य सरकार के प्रयास खटाई में पड़ गए।
ग्रामीण टीके के दुष्प्रभावों के प्रति आशंकित थे और उन्होंने अपने गांवों में COVID-19 के अचानक फैलने और स्वास्थ्य के ख़राब हालात के लिए टीकाकरण अभियान को जिम्मेदार ठहराया। अधिकारियों के लिए आदिवासियों को टीका लगवाने के लिए राजी करना कठिन हो रहा था।
टीके से जुड़े भ्रम
जिन लोगों ने पहला टीका लगवाया था, वे दूसरे टीके को लेकर चिंता और अविश्वास से ग्रस्त हो रहे थे। COVID-19 के प्रसार से जूझना चिंता का एक प्रमुख कारण था; दूसरा कारण ग्रामीणों की मानसिकता को बदलना था, जो इस भ्रम पर विश्वास करते हुए कि टीका उन्हें मार देगा, टीका लगवाने का विरोध कर रहे थे।
झारखंड के दुमका जिले में, 45 से ऊपर आयु वर्ग में लक्षित जनसंख्या लगभग 3.35 लाख है। काठीकुंड प्रशासनिक ब्लॉक में लक्ष्य 18,111 था। 31 मार्च, 2021 को खत्म हुए पहले चरण में, ब्लॉक में लक्षित आबादी का लगभग 8.5%, यानी 1,540 लोगों को टीका लगाया गया। पहले चरण के अंत तक लोगों का टीकाकरण होता रहा।
लेकिन अप्रैल के शुरू से टीके के प्रति स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में बदलाव हुआ, जब बड़ी संख्या में लोग बीमार पड़ गए। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग वैक्सीन से डरने लगे, और इससे उनमें भारी प्रतिरोध और भ्रांतियाँ पैदा हो गई। भयभीत ग्रामवासियों ने गांवों में काम करने वाले अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं और स्वास्थ्य कर्मियों को धमकाना शुरू कर दिया।
भ्रम ख़त्म करने के लिए रणनीतियाँ
टीके से जुड़ी अराजकता और अविश्वास को देखते हुए, ब्लॉक प्रशासन ने 3 अप्रैल 2021 को प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन (PRADAN) और अभियान में सहायता करने वाले अन्य भागीदारों के साथ एक संयुक्त बैठक बुलाई। बैठक में हमने काठीकुंड ब्लॉक के लिए भ्रांतियों से पैदा हुई चुनौती से निपटने के लिए विस्तृत रणनीति तैयार की।
PRADAN ने आंकड़ों को संकलित करने के उद्देश्य से, हताहतों की संख्या और टीकाकरण के बाद होने वाली मौतों का सर्वेक्षण किया। इसके नतीजे जिला प्रशासन के साथ साझा किए गए। यह पहले स्तर की जानकारी थी, जिसने ब्लॉक और जिला प्रशासन को जमीनी स्तर की सटीक स्थिति प्रदान की।
आंकड़ों से पता चला कि लोगों में डर का एक जायज कारण था: छह लोगों की टीका लेने के दो सप्ताह के भीतर मौत हो गई थी। हालांकि महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन लोगों की मृत्यु हुई, वे टीकाकरण से पहले बीमार बताए गए थे। फिर भी उन्हें टीका लगाया गया था।
मौतों की खबर टीके के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में अफवाहों को जन्म देने के लिए काफी थी। इस डर को ख़त्म करने के लिए, एक सख्त टीकाकरण-पश्चात की व्यवस्था स्थापित की गई। यह सुनिश्चित करने के लिए, PRADAN के पंचायत स्तर के सहयोगियों को, इस डर से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं के साथ काम करने के लिए लगाया गया।
ब्लॉक प्रशासन ने टीका लगवा चुके लोगों की पहचान की, ताकि किसी के टीकाकरण के बाद गंभीर रूप से बीमार होने पर चिकित्सा सहायता प्रदान की जा सके। बुखार होने पर पैरासिटामोल दी जाती थी; सुधार न होने पर हमने उन्हें अस्पतालों में रेफर किया और उन्हें ले जाने के लिए एम्बुलेंस की व्यवस्था की।
प्रभावशाली लोगों को जुटाना
पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के अलावा, COVID-19 के बारे में जागरूकता की कमी भी थी। ग्रामीण तब तक अपने बुखार, खांसी और दूसरे लक्षणों को नजरअंदाज करते रहे, जब तक कि हालात बिगड़ नहीं गए। फिर वे स्थानीय नीम हकीमों के पास गए, जिन्होंने कथित तौर पर टाइफाइड और पीलिया की दवा दे दी।
जब ब्लॉक प्रशासन को इस बारे में पता चला, तो उसने नीम हकीमों (झोला छाप डॉक्टरों और समुदाय के प्रभारी चिकित्सा अधिकारी के साथ तत्काल बैठक की। ओझाओं के विपरीत, झोलाछाप डॉक्टर एलोपैथी दवाएं लिखते हैं। वे ग्रामीणों के लिए अक्सर निकटतम सहारा होते हैं।
डॉक्टर ने बीमारी के बारे में बताया, और संक्रमित होने पर लक्षणों और उपायों के बारे में जानकारी प्रदान की। हालांकि वे पंजीकृत नहीं थे, लेकिन क्योंकि समुदाय उन पर निर्भर है, इसलिए डॉक्टर और ब्लॉक विकास अधिकारी ने झोला छाप डॉक्टरों को उचित दवाएं लिखने के लिए मना लिया। सही जानकारी पाने के साथ, वे टीकाकरण अभियान में भी हमारी मदद करने के लिए सहमत हो गए।
हमने 25 झोला छाप डॉक्टरों, विभिन्न धर्मों के 72 धर्मगुरुओं और समुदाय के 80 अगुआ लोगों के साथ अलग-अलग बैठकें कीं। धर्मगुरुओं और आस्था-आधारित समूहों को उतनी आसानी से नहीं मनाया जा सका, जितनी जल्दी झोला छाप डॉक्टरों को। शुरुआत में स्थानीय धर्मगुरुओं तक पहुंचना भी मुश्किल था।
पुजारियों-पादरियों के साथ दो बैठकों का कोई परिणाम नहीं निकला। काठीकुंड ब्लॉक के सीकरपारा गांव के एक स्थानीय पुजारी कहते हैं – “हम न लोगों को टीका लगवाने के लिए कहेंगे और न ही हम खुद लगवाएंगे। कुछ भी हो, भगवान हमारा ख्याल रखेंगे।”
उन्होंने टीका लगवाने और समुदाय को जागरूक करने का विरोध किया। हालांकि, कुछ धर्मगुरु मान गए और उन्होंने टीका लगवाकर और दूसरों को टीका लगवाने के लिए कहकर मिसाल पेश की। इन धर्मगुरुओं ने रास्ता दिखाकर समाज में कुछ आस्था जगाई।
सामुदायिक समूहों का सहयोग
टीकाकरण जागरूकता अभियान में स्व-सहायता समूहों के सदस्यों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्योंकि वे स्थानीय समुदाय का हिस्सा हैं, इसलिए उनके लिए भाषा कोई बाधा नहीं थी। स्थानीय समुदाय उनसे जुड़ सकते थे, उनके साथ काम कर सकते थे और उनकी सलाह सुनने के लिए अधिक खुले थे।
इसलिए, ये सामुदायिक अगुआ दूसरे पात्र स्व-सहायता समूहों के सदस्यों को आगे आने और टीकाकरण अभियान में शामिल होने को प्रेरित करने के लिए एक बड़ी सहयोग व्यवस्था के रूप में उभरे। काठीकुंड ब्लॉक में, ब्लॉक-स्तरीय फेडरेशन ‘नया सवेरा’ के बोर्ड के सदस्य, COVID-19 का टीका लगवाने वाले 45 से ऊपर आयु वर्ग के पहले लोगों में से थे।
युवा स्वयंसेवकों का अभियान
किसी भी जागरूकता अभियान में स्थानीय युवाओं की भागीदारी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि वे कुछ ही समय में अपने स्मार्टफोन से सही जानकारी पहुंचा सकते हैं। वे ग्रामीण वातावरण से भी परिचित हैं। हालाँकि, इसके अपने जोखिम हैं, क्योंकि स्मार्टफोन के माध्यम से झूठी अफवाहें भी फैलाई जा सकती हैं। इसलिए हमने उन कुछ युवाओं को एक बैठक के लिए आमंत्रित किया, जिनका आदिवासी समुदाय के बीच कुछ सकारात्मक प्रभाव था।
स्थानीय युवाओं ने गांवों में जागरूकता शिविरों का आयोजन किया और साथ ही टीकाकरण को बढ़ावा देने के लिए एक सोशल मीडिया अभियान, #’काठीकुंड के योद्धा’ शुरू किया। अभियान, जिसमें स्लोगन छपी हुई टी-शर्ट शामिल थी, 18 से ऊपर आयु वर्ग के लिए पोर्टल खुलने पर बहुत से लोगों तक पहुंच गया।
कई युवाओं ने टीका लगवाने के बाद अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपलोड कीं और इस अभियान ने आदिवासियों में टीकों के प्रति डर को कम करने में मदद की। उपायुक्त एवं उप विकास आयुक्त, दुमका ने युवाओं के नेतृत्व में चलाए जा रहे जागरूकता अभियान की सराहना की।
टीकाकरण में सहायता
दूरदराज के स्थानों तक पहुंचना एक और बाधा है, जिस पर हमने काम किया। लोग काठीकुंड क्षेत्र के सुदूर गांवों में रहते हैं। महिलाओं को दूरदराज के गांवों से टीकाकरण केंद्रों तक जाना मुश्किल हो रहा था। इस समस्या को हल करने के लिए, इन गांवों से उन्हें टीकाकरण केंद्रों तक लाने के लिए तीन ऑटो रिक्शा की व्यवस्था की गई। इस पहल से उनके आवागमन और टीकाकरण में वृद्धि हुई।
CoWIN पोर्टल शुरू होने पर, तकनीकी संसाधनों की कमी और इसका उपयोग के बारे में जानकारी की कमी अन्य बाधाएं थीं। शुरू में हमने मनरेगा के कार्यों में मदद करने वाले रोजगार सेवकों, समुदायों में बेहतर पोषण के लिए काम करने वाली पोषण सखियों, और लोगों को प्रशिक्षण के बाद पंजीकरण में मदद करने के लिए पंचायत सहयोगियों को शामिल किया; हालांकि इसने अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं किया।
ब्लॉक प्रशासन ने पहले से समय लिए बिना (वॉक-इन) टीकाकरण करवाना सुगम बनाने के लिए एक पंजीकरण काउंटर-सह-सहायता डेस्क की शुरुआत की। इस व्यवस्था की शुरुआत करने वाला काठीकुंड जिले का पहला ब्लॉक बना। बाद में राज्य सरकार ने अन्य सभी ब्लॉकों में इस पद्धति को लागू किया।
सफल बहुआयामी रणनीति
काठीकुंड ने 5 जून को 46% टीकाकरण कर लिया, जबकि दुमका के अन्य ब्लॉक, जैसे गोपीकंद ब्लॉक ने अपनी आबादी का केवल 36% और सीकरपारा ब्लॉक ने 26% टीकाकरण किया था। काठीकुंड ने इसे ऊपर बताई गई रणनीति अपनाते हुए हासिल किया।
हमें एक लंबा रास्ता तय करना है। काठीकुंड ब्लॉक में सात गाँव ऐसे हैं, जिन्होंने 45 से ऊपर आयु वर्ग में शत-प्रतिशत टीकाकरण हासिल कर लिया है। 25 जून 2021 तक, 45 से ऊपर आयु वर्ग के 52% लोगों ने और 18 से ऊपर आयु वर्ग के 4% लोगों ने टीके लगवा लिए थे।
18 वर्ष से ऊपर आयु वर्ग के लिए टीकों की उपलब्धता एक प्रमुख मुद्दा है। टीके उपलब्ध न होने के कारण, काठीकुंड ब्लॉक को कुछ दिनों के लिए अपने केंद्र बंद करने पड़े। असामाजिक तत्व अभी भी विभिन्न माध्यमों से अफवाहें और टीकाकरण-विरोधी संदेश फैलाते हैं।
ऐसी चुनौतियों के बावजूद, काठीकुंड ने दिखाया है कि सख्ती से पहचान करने, जागरूकता पैदा करने और स्थानीय लोगों को परामर्श देने से इन आशंकाओं से निपटने में काफी हद तक मदद मिलती है। समुदाय को संगठित करने के लिए स्वयं सहायता समूहों, स्थानीय चिकित्सकों, धार्मिक गुरुओं और युवाओं का एक साथ आना, एक ऐसा सबक है, जिसे ग्रामीण क्षेत्रों में पूर्ण टीकाकरण के लिए भारत के अभियान में, आगे ले जाया जा सकता है।
आलोक कुमार शर्मा ‘प्रदान’ में कार्यरत दुमका स्थित एक एग्जीक्यूटिव हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की है। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल: alokkumarsharma48@gmail.com
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