महामारी ने गरीब ग्रामीणों को और कर्ज में धकेल दिया
सीमांत जोत और वर्षा आधारित खेती की आय से गुजारा कर पाने में असमर्थ, आदिवासी समुदाय अपना कर्ज़ चुकाने के उद्देश्य से काम के लिए पलायन कर रहे हैं। महामारी ने उन्हें सतत कर्ज के हालात में धकेल दिया है
सीमांत जोत और वर्षा आधारित खेती की आय से गुजारा कर पाने में असमर्थ, आदिवासी समुदाय अपना कर्ज़ चुकाने के उद्देश्य से काम के लिए पलायन कर रहे हैं। महामारी ने उन्हें सतत कर्ज के हालात में धकेल दिया है
राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के कुशलगढ़ प्रशासनिक ब्लॉक में, कर्ज़ के सतत चक्र ने आदिवासी समुदायों को काम के लिए गुजरात और महाराष्ट्र के शहरों में पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया। उन्हें अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए और स्वास्थ्य संबंधी खर्चों के लिए, निजी साहूकारों से बहुत ऊंची दरों पर कर्ज़ लेना पड़ रहा है।
एक ऐसे क्षेत्र में, जो ग्रामीण संकट से त्रस्त है और जहां प्रभावशाली समुदाय के लोगों की स्थानीय ताकत द्वारा शासन व्यवस्था को हड़प लिए गए हैं, आदिवासी प्रवासी मजदूर निरंतर चिंता और पीड़ा का जीवन जीते हैं। COVID-19 महामारी के दौरान, उनकी मुश्किलें और बढ़ गई हैं।
कभी न खत्म होने वाले कर्ज
कुशलगढ़ ब्लॉक के तिमेडा गांव के रहने वाले सत्या, मौसमी प्रवासी मजदूर हैं, जो गुजरात के सूरत और बड़ौदा जैसे शहरों में निर्माण क्षेत्र में काम करते हैं। परिवार में उनकी पत्नी, उनकी मृतक पहली पत्नी से दो बच्चे और एक सौतेली बेटी शामिल हैं।
परिवार की 1.5 एकड़ जमीन चावल और मक्का उगाने के लिए उपयुक्त है। इन दोनों फसलों की मानसून के बाद की कुल पैदावार लगभग 500 किलोग्राम है। परिवार पैदावार का एक तिहाई अपने खाने के लिए और एक तिहाई पशुओं के लिए रखकर, बाकी को बेच देते हैं। उपज की बिक्री से होने वाली आय, परिवार के लिए केवल बुनियादी राशन खरीदने भर के लिए काफ़ी होता है।
इसलिए सत्या के जीवन का वर्णन कर्ज़ के एक अंतहीन चक्र के रूप में होता है। अपनी और परिवार के दूसरे सदस्यों की शादियों के अलावा, अन्य अनुष्ठानों के लिए उधार लिए गए, पिछले 15 साल में उनपर कई कर्ज़ चढ़ गए हैं, जिनमें से कुछ को तो उन्होंने पिछले साल ही चुकता किया है।
बड़ी रकम उधार लेने का मतलब है कि उन्हें काम के लिए पलायन करके यह कर्ज़ चुका पाए हैं। सत्या और उनका बेटा गुजरात चले जाते हैं और वहां आठ महीने काम करते हैं। कुशल श्रमिकों के रूप में, उनमें से प्रत्येक 8 महीने में 30,000 रुपये कमाता है। महामारी के समय में काम, और इसलिए मजदूरी दुर्लभ हो गई है।
सत्या और उनकी पत्नी, अपनी बेटी की शादी के लिए उधार लिए 12,000 रुपये का कर्ज़ चुकाने के लिए, 2019 के अंत में बड़ौदा चले गए। जब मार्च 2020 में लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो दंपति इस उम्मीद में शहर में ही रह गया कि जल्द ही काम मिल जाएगा।
जब कोई काम नहीं मिला, तो वे पुलिस उत्पीड़न से बचते-बचाते पैदल ही अपने गाँव के लिए वापस चल पड़े। इस बीच महाजन ने कर्ज़ का पैसा वसूल करने के लिए उनकी दो बकरियों को उठा लिया था। उसने यह भी दावा किया कि सत्या पर ब्याज सहित 20,000 रुपये बकाया हैं। महाजन की धमकियों के डर से, जैसे ही लॉकडाउन में आंशिक ढील हुई, सत्या और उनका बेटा अहमदाबाद चले गए।
ग्रामीण संकट
कुशलगढ़ के हजारों लोगों की कहानी सत्या जैसी ही है। बांसवाड़ा में खराब मानव-विकास के चलते, उधार का धंधा एक प्रमुख परम्परा है। ग्रामीण संकट, कमजोर कल्याण व्यवस्था, रोजगार के अवसरों का कम से लेकर पूरी तरह न होना और किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) ऋण जैसी वित्तीय सेवाओं तक पहुंच की कमी से त्रस्त आदिवासी, अपनी सभी जरूरतों के लिए बहुत ऊंची ब्याज दरों पर पैसा उधार लेते हैं।
शादियों, अंत्येष्टि, उत्सवों और स्थानीय भोगौलिक परिस्थितियों के पारम्परिक रीति-रिवाजों के लिए खर्च कर्ज़ लेने का प्रमुख कारण है। इसके बाद, कर्ज़ पलायन का मुख्य कारण बन जाता है। शायद यह कहना सही होगा कि लोगों के अस्तित्व के संघर्ष के केंद्र में कर्ज है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS) के अंतर्गत काम के अवसर शायद ही कभी आदिवासी समुदायों के लिए उपलब्ध होते हैं, जो उच्च जाति समुदाय के लोगों से भौगोलिक और सामाजिक रूप से दूर होते हैं।
अक्सर ऊंची जाति के लोगों का योजना के काम और मजदूरी वितरण पर नियंत्रण होता है। औसतन, 220 रुपये रोजाना की अधिकतम मजदूरी पर 100 दिनों के लिए काम मिलता है, जो बड़े परिवारों वाले मजदूरों के लिए अपर्याप्त है।
अविकसित बांसवाड़ा
बांसवाड़ा जिले के आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि सत्या जैसे लोग कर्ज की इस कभी न खत्म होने वाली स्थिति में क्यों फंसते हैं और शहरों की ओर पलायन करते हैं। यहां राजस्थान राज्य के आदिवासी समुदायों (76%) का घनत्व सबसे ज्यादा है। बांसवाड़ा के अंदर, कुशलगढ़ और सज्जनगढ़ ब्लॉक में क्रमशः 88% और 85% आदिवासी हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की औसत साक्षरता 24% है। इस बीच, राजस्थान के ग्रामीण विकास और पंचायती राज विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, जिले की 50% ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। बांसवाड़ा इस क्षेत्र का एकमात्र जिला भी है, जहां से पूरे परिवार पलायन करते हैं। महिलाएँ कुल कार्यबल का 35% हैं, जो काम के लिए पड़ोसी राज्यों में पलायन करती हैं।
बांसवाड़ा की भोगौलिक परिस्थिति मुख्यतः ग्रामीण है। कृषि बड़े पैमाने पर वर्षा पर निर्भर है और इसलिए मौसमी है, जो पलायन के मौसम से जुड़ी है: कटाई के मौसम में मजदूर शहरों से लौटते हैं। फिर भी सत्या जैसे लोगों के लिए कृषि के माध्यम से कमाई की संभावनाएं नाममात्र की हैं। इस क्षेत्र के 61 परिवारों की सीमांत जोत है, और इसलिए बहुसंख्य लोग अपनी घरेलू आय के लिए कृषि पर निर्भर नहीं रह सकते।
जिले में महिलाओं के खिलाफ हिंसा भी बहुत ज्यादा है। कुशलगढ़ में स्थानीय प्रशासन प्रभावशाली समुदाय के लोगों द्वारा चलाया जाता है, जो कानूनी प्रक्रियाओं की परवाह नहीं करते। ऐसा कभी कभार ही होता है, जब पीड़ित, जो लगभग हमेशा आदिवासी होते हैं, शिकायत दर्ज करते हैं, तो आदिवासी लोगों के साथ-साथ पुलिस उन्हें अदालत के बाहर आरोपी से पैसा ले-देकर समझौता करके मामला निपटाने के लिए मजबूर करते हैं।
स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव
COVID-19 जनजातीय समुदायों के लिए और दुख लेकर आया है। अप्रैल के दूसरे सप्ताह और जून के अंत के बीच, बांसवाड़ा और कुशलगढ़ ब्लॉक में COVID-19 संक्रमण बड़े पैमाने पर फैला था। कुशलगढ़ ब्लॉक की 50% से ज्यादा पंचायतों में, जहां ‘आजीविका’ और उसके सहयोगी संगठन काम करते हैं, अनेक मामले सामने आए। बहुत से परिवारों ने कोरोनावायरस के कारण कम से कम एक सदस्य खो दिया।
जब ज्यादातर प्रवासी बिना किसी आमदनी के वापिस आए, और इसलिए इलाज का खर्च नहीं उठा पाए, तो यह बीमारी तेजी से फैली। जिला स्तर पर, बांसवाड़ा में एक प्रमुख सार्वजनिक अस्पताल है, जिसमें जरूरी उपकरणों का भारी अभाव है। ब्लॉक स्तर पर एक निदान (डायग्नोस्टिक) केंद्र, एक प्रसूति/शिशु देखभाल केंद्र और एक आपातकालीन देखभाल केंद्र है।
आदिवासी इन सुविधाओं में जाने से बचते हैं। उनमें सार्वजानिक स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर व्यापक संदेह और अविश्वास है। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि बुनियादी ढांचा ख़राब है, बल्कि इसलिए भी कि अस्पताल के कर्मचारी प्रवासी समुदायों के प्रति दुर्व्यवहार और लापरवाही बरतते हैं।
ज्यादातर लोग या तो स्थानीय उपचार पर भरोसा करते हैं या झोलाछाप डॉक्टरों के फ़टाफ़ट किए अस्थाई निदान पर। ये अपनी निजी डिस्पेंसरी चलाने वाले स्व-घोषित, अप्रमाणित चिकित्सा पेशेवर, मूल रूप से बंगाल से आकर बसे लोग थे। कुछ सालों से, स्थानीय लोगों ने भी इस पेशे में शामिल होना शुरू कर दिया है।
ब्लॉक में झोलाछाप डॉक्टरों की ठोस मौजूदगी ने, उन्हें समुदाय का विश्वास तेजी से हासिल करने में मदद की है, इसकी परवाह किए बिना कि वे कितनी फीस लेते हैं, कैसी दवाएं देते हैं या वे रोगियों के निदान और ईलाज के लिए योग्यता प्राप्त हैं भी या नहीं। व्यापक स्तर की बेरोजगारी और महामारी के संकट के बावजूद, वे मोटी परामर्श फीस वसूलते रहे हैं।
गुप्त भय
सत्या और उनका बेटा, जो अहमदाबाद गए थे, राजस्थान में आंशिक लॉकडाउन की घोषणा के बाद वहीं रह गए। महामारी के दौरान उनकी आय गिरकर लगभग 50% रह गई है। सत्या की पत्नी तिमेदा गांव में अपने घर पर हैं।
सत्या उसे हर महीने पैसा भेजता है, जिससे वह राशन और दूसरी जरूरी चीजें खरीद पाती है। वे अपना पिछला 20,000 रुपये का कर्ज़ और चक्रवृद्धि ब्याज चुका नहीं पाए हैं, जिसके ब्याज मिला कर काफी बड़ी रकम होने की संभावना है।
मुश्किल से ही गुजारा कर पाने वाले सत्या को पता नहीं है कि वह कैसे अपना कर्ज चुकाएंगे, या क्या यह बढ़ता रहेगा, शायद इतना कि वे अपने जीवनकाल में इसका भुगतान न कर पाएं। इन परिस्थितियों में, यदि वह या उनके परिवार का कोई सदस्य कोरोनावायरस की चपेट में आ गया, तो इसका मतलब ईलाज के खर्च का अतिरिक्त बोझ होगा।
सत्या के लिए, COVID शब्द डरावना है; न केवल इसलिए कि वायरस उसके शरीर के साथ क्या कर सकता है, बल्कि इसलिए भी कि यह उसकी और उसके परिवार की कमाई के साथ क्या कर सकता है, और सबसे ज्यादा उनके लगातार बढ़ते कर्ज के लिए। सत्या गरीबी और कर्ज के दुष्चक्र की ऐसी अनेक कहानियों में से एक हैं।
गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।
अनहद ईमान और जिग्नेश डामोर ‘आजीविका ब्यूरो’, राजस्थान से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल anhad.imaan@aajeevika.org
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?
यह पूर्वोत्तर राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां कई ऐसे स्थान हैं, जिन्हें जरूर देखना चाहिए।