शुतुरमुर्ग या याचक? ग्रामीण भारत का लापता गृह बीमा
आपदाओं से घर नष्ट हो जाते हैं। आपदा-संभावित क्षेत्रों में रहने के बावजूद, लोग गृह-बीमा नहीं लेते। वे सरकार द्वारा दी जाने वाली आपदा राहत लेना पसंद करते हैं
आपदाओं से घर नष्ट हो जाते हैं। आपदा-संभावित क्षेत्रों में रहने के बावजूद, लोग गृह-बीमा नहीं लेते। वे सरकार द्वारा दी जाने वाली आपदा राहत लेना पसंद करते हैं
देश के बहुत से क्षेत्रों में ग्रामीण घरों को, आपदा से यदि पूर्ण विनाश नहीं, तो गंभीर नुकसान होने का खतरा जरूर होता है। बाढ़ गंगा के मध्य और निचले मैदानों और पूरे ब्रह्मपुत्र बेसिन को प्रभावित करती है। अचानक आई बाढ़, उसके कारण जमा हुई बालू, नदियों के मार्ग में परिवर्तन और नदी तटों के कटाव, ये सभी घरों को बहुत गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं।
पश्चिमी हिमालय के उप-हिमालयी क्षेत्रों में मिट्टी खिसकने और भूकंप के झटके आने का खतरा रहता है। पूरा उप-हिमालयी मार्ग भूकंप संभावित है। चक्रवात समय-समय पर ओडिशा, पश्चिम बंगाल और हाल ही में पश्चिमी तट पर कहर बरपा रहे हैं।
इस साल बिजली गिरने से रिकॉर्ड क्षति और जानमाल का नुकसान हुआ। इनमें से प्रत्येक कुदरती आपदा ग्रामीण गरीबों के घरों को बहुत भारी नुकसान पहुंचाती है। और फिर निश्चित रूप से दंगों के मानव जनित मुद्दों से जुड़ी कभी-कभी, लेकिन गंभीर घटनाएं होती हैं, जिससे आश्रय और संपत्ति का नुकसान होता है।
बड़े शहर भी ऐसी घटनाओं से अछूते नहीं हैं। पुणे और मुंबई में प्रत्येक मानसून में हर भारी बारिश के बाद भूस्खलन के कारण बड़ी आपदाएँ आती रही हैं और ऐसी आपदाओं से, भूस्खलन के लिए असुरक्षित पहाड़ी किनारों के बहुत नजदीक बने गरीबों के घरों के साथ-साथ अन्य लोगों के घरों को भारी नुकसान होता है।
फिर भी, जैसा कि हमारी प्रारंभिक जांच से प्रतीत होता है, कि कोई भी अपने घर या घरेलू सामान का बीमा नहीं करा रहा है। अन्य मामलों में हमेशा की तरह, आवास ऋण लेने वालों को अक्सर ऋण की भुगतान अवधि में बीमा लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है या मजबूर किया जाता है, लेकिन अन्यथा लोग गृह बीमा नहीं करवाते हैं। हम इस तथ्य का पता लगाते हैं।
हम भारतीयों के प्रति निष्पक्ष होने के लिए यह ध्यान देने की जरूरत है कि यह व्यवहार भारत के लिए अनोखा नहीं है। आपदा-बीमा के एक प्रसिद्ध विशेषज्ञ, हॉवर्ड कंरूदर लंबे समय से तर्क देते हैं कि आपदा राहत कुछ अर्थों में बीमा के विकल्प के रूप में कार्य करती है। उन्होंने हाल ही लिखी अपनी पुस्तक, द ऑस्ट्रिच पैराडॉक्स में यह भी तर्क दिया है कि लोग कम संभावना वाली उन घटनाओं का संज्ञान नहीं लेते, जो उनके लिए विनाशकारी हो सकती हैं। इस प्रकार, गृह बीमा नहीं खरीदना पूरी तरह से सामान्य मानव व्यवहार के अनुरूप प्रतीत होता है, भले ही यह तर्कसंगत न हो!
मैं समझता हूँ कि निम्नलिखित कारण गृह बीमा उत्पादों के खरीद-व्यवहार (या न खरीदने के गुण वाले व्यवहार) को प्रभावित करते हैं –
विक्रेताओं के लिए, बेचने में कई झंझट हैं। सबसे पहले, घरों को नुकसान पहुंचा सकने वाली ज्यादातर आपदाएं गैर-विविधतापूर्ण जोखिम पैदा करती हैं। गृह बीमा उत्पाद तभी लाभदायक हो सकता है, जब बीमाकृत घरों के प्रत्येक 100 मुआवजों की अदायगी के पीछे 1,000 ऐसे घर हों, जिनके मालिकों से बीमे का प्रीमियम तो मिलता रहे, लेकिन उन्हें कभी भी भुगतान न करना पड़े।
यदि इंदौर में रहने वाले लोग, जहाँ भूस्खलन का कोई खतरा नहीं है, गृह बीमा नहीं कराते, तो उत्तराखंड की पहाड़ी ढलानों पर किसी कस्बे में घरों का बीमा करना एक मूर्खतापूर्ण व्यवसाय होगा। निश्चित रूप से आपदा के खास खतरे से बाहर रहने वाले लोगों की तुलना में, आपदा-संभावित जाने पहचाने क्षेत्रों के लोग अपने घरों और सामान का बीमा करने के ज्यादा इच्छुक होंगे। इस तरह यह गैर-विविधता, अपने आप में प्रतिकूल चयन से जुड़ी है।
जैसा कि आम बोलचाल में कहा जाता है, बिहार में तीन मौसम होते थे: खरीफ, रबी और बाढ़! इस उपहास से संकेत मिलता है कि किस तरह गंडक या कोसी के बाढ़ के मैदानों में कुछ लोगों को हर साल बाढ़ के नुकसान से मुआवजे का नियमित फायदा होता है। यह वास्तविकता है या क्रूर मजाक, लेकिन यह विक्रेता के नजरिए से मौजूद विशाल नैतिक खतरे की ओर इशारा करता है।
लोगों द्वारा बाढ़ में अपना घर बह जाने के झूठे सबूत के रूप में कुछ बांस गाड़कर और किसी तार पर चीथड़े लटकाए जाने की काफी कहानियां हैं। वास्तव में, किसी घर के नुकसान की सीमा तो दूर, उसके अस्तित्व को सत्यापित करना भी बहुत मुश्किल है, जब यह बांस, मिट्टी और फूस (या पक्का ही सही) से ऐसी जमीन पर बना होता है, जिसे नदी निगल जाती है और पीछे छोड़ जाती है सिर्फ एक स्मृति और एक दावा।
तो कुछ अर्थों में, आपदा बीमा, कम से कम बाढ़ आपदाओं का बीमा, की विशेषताएं फसल बीमा के समान हैं: गैर-विविधता, नैतिक खतरा और प्रतिकूल चयन। इस प्रकार यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कठोर नेतृत्व वाले समझदार प्रबंधकों द्वारा प्रबंधित बीमा कंपनियां, ग्रामीण क्षेत्रों में गृह बीमा उत्पाद को बढ़ावा नहीं देना चाहती।
असली हैरानी की बात यह है कि आपदाओं से ग्रस्त या आपदा के बाद भी, शहरी क्षेत्रों में गृह बीमा की मांग का अभाव है। असम में हाल ही में आए भूकंप के बाद भी, जिसमें नगांव जैसे दक्षिण तक के स्थानों पर बहुत से घरों को नुकसान पहुंचा, गृह बीमा की मांग में वृद्धि नहीं हुई है। न ही रत्नागिरी या विशाखापत्तनम जैसी जगहों पर गृह बीमा करवाने की बहुत ज्यादा गतिविधि देखी गई है, जहां पिछले दशकों में चक्रवातों के कारण बहुत व्यापक क्षति हुई है।
तो शीर्षक में दिया गया सवाल वहीं मौजूद है: क्या हम शुतुरमुर्ग हैं, जो अपने सिर रेत में डालकर खतरे की अनदेखी करते हैं या सिर्फ याचक हैं, जो किसी आपदा में अपने घरों के नष्ट हो जाने पर माई-बाप सरकार के पास खुले हाथ फैलाए जाएंगे?
संजीव फणसळकर विकास अण्वेष फाउंडेशन, पुणे के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फणसळकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद के फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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