महिलाओं ने स्वदेशी बीजों के संरक्षण की पारम्परिक बुद्धिमत्ता को बरकरार रखा है
फसल विविधता और सहनशीलता के बीच गहरे संबंध को समझते हुए, मंडला की महिला किसानों ने यह सुनिश्चित किया है कि जलवायु-सहनशील पारम्परिक बीजों के संरक्षण की प्रथा जारी रहे
फसल विविधता और सहनशीलता के बीच गहरे संबंध को समझते हुए, मंडला की महिला किसानों ने यह सुनिश्चित किया है कि जलवायु-सहनशील पारम्परिक बीजों के संरक्षण की प्रथा जारी रहे
मुआला सानी गांव की सोमवती उइके कहती हैं – “पुरुष क्या जानते हैं… हम महिलाएं ही हैं, जो बीजों का संरक्षण करती हैं, यह हमारी जिम्मेदारी है। यह हमारे पूर्वजों के समय से हमारी संस्कृति में रहा है। हम ही हैं, जिन्हें पता है कि कौन सा बीज कहां और कितनी मात्रा में लगाना है, भविष्य में उपयोग के लिए कितना बचाना है, खाने के लिए कितना रखना है …पुरुषों को इस सब के बारे में ज्यादा चिंता नहीं हैं।”
बहुसंख्य आदिवासी परिवारों वाला यह गाँव, मध्य प्रदेश के मंडला जिले में स्थित ऐसे कई गाँवों में से एक है। मंडला पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996, के प्रावधानों यानि ‘पेसा’ के अंतर्गत पूरी तरह से अधिसूचित किए गए राज्य के पांच जिलों में से एक है, जो ग्राम सभाओं या ग्राम परिषदों के माध्यम से स्वशासन सुनिश्चित करता है।
सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (SECC)-2011 के अनुसार, जिले के 62% से ज्यादा परिवार अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित हैं, जो राज्य के 25% के आंकड़े और 10% के राष्ट्रीय आंकड़े की तुलना में, एक बड़ी संख्या है। वे मुख्य रूप से गोंड और बैगा आदिवासी समूहों से संबंधित हैं।
इस क्षेत्र में यादव, पणिका और अहीर जैसी अन्य जनजातियों के साथ रहने वाली ये जनजातियाँ, मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। गैर-इमारती वनोपज इकठ्ठा करना और दिहाड़ी मजदूर उनकी आजीविका के अन्य स्रोत हैं।
SECC-2011 के अनुसार, मंडला जिले की लगभग 74% भूमि असिंचित है; लोग धान, मक्का, मसूर व अन्य दालें, सरसों और गेहूं के साथ साथ अन्य फसलों की भी वर्षा आधारित खेती करते हैं। बरखेड़ा गांव की पूना यादव मुस्कुराते हुए कहा कि उनकी खेती ऊपर वाले की दया पर है।
यादव कहती हैं – “धान और मक्का के अलावा, हम अपने आंगन में पत्तेदार सब्जियों और भिंडी, चपटी फलियाँ, टमाटर, बैंगन, मिर्च, कद्दू और हल्दी जैसी अन्य सब्जियों की खेती करते हैं। हमारे पास सहजन जैसे बहुत सारे पेड़ भी हैं, जो हमारी घरेलू जरूरतों को पूरा करते हैं।”
विविधता और लचीलेपन के गहरे संबंध के साथ कृषि के इस जटिल माहौल में, महिलाएं स्वदेशी बीजों की इस विशाल विविधता के संरक्षक के रूप में, सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
महिलाएँ एवं बीज संरक्षण
दुनिया भर के अन्य समुदायों की तरह, इस क्षेत्र के आदिवासी और दूसरे जातीय समूहों से संबंधित महिलाएं, बीज सुरक्षा और बीज संरक्षण सम्बंधित ज्ञान, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
उन्होंने ये कैसे सीखा, कितने समय से वे ऐसा कर रही हैं – इन सवालों पर उलझन भरे भाव देखने को मिलते हैं और प्रतिक्रिया होती है – “जितना हमें याद है, तब से हम ऐसा कर रहे हैं, बचपन से हमने अपनी माताओं को ऐसा करते देखा है और हमने सिर्फ वह करना जारी रखा।”
कृषि व्यवस्था में महिलाओं को मिली सामाजिक भूमिका से भी यह ज्ञान कुछ हद तक प्रभावित हुआ है। पूना यादव कहती हैं – “फसल काटते समय हम देखते हैं कि खेत के किस हिस्से में फसल बेहतर हुई है। हम बीजों का उनके वजन और गुणवत्ता के आधार पर आंकलन करते हैं और थ्रेसिंग करते समय इसे अलग रखते हैं।”
फसल विविधता को बनाए रखना
महिला किसान चुने हुए बीज एक बोरी में भरती हैं, इसे सील करती हैं और इसे अगले सीजन तक के लिए अन्न भंडार में रख देती हैं, जिसे वहां ‘कोठी’ कहा जाता है। यादव कहती हैं – “इसी तरह सब्जी के बीज के लिए, फल पक जाने के बाद, हम इसे सूखने देते हैं, बीज अलग करते हैं और फिर उन्हें स्टोर कर लेते हैं। जब बुवाई का समय नजदीक आता है, तो हम उन्हें उपयोग के लिए निकाल लेते हैं।”
उनकी बात पर सहमति जताते हुए, बरखेड़ा गांव की रामप्यारी उइके कहती हैं – “हम जानते हैं कि आँगन के किस हिस्से में कितना बीज बोना है। आखिरकार, हम जानते हैं कि हमारे परिवार के लिए कितनी जरूरत है, इसलिए हम उसी के अनुसार बीज बोते हैं।”
मुआला सानी गाँव की एक अन्य महिला किसान, गंगा बाई सरोटे ने समझाया कि कैसे यह पद्धति सहनशीलता प्रणालियों को बनाए रखने के ज्ञान के साथ मजबूती से प्रतिध्वनित होती है। उनका कहना था – “हमें विभिन्न प्रकार के बीजों की जरूरत होती है। प्रत्येक जमीन एक अलग तरह की फसल के लिए उपयुक्त होती है। कुछ जल-जमाव वाली मिट्टी में अच्छी उगती हैं, कुछ कम पानी वाली ढलानदार भूमि पर। हम उसी के अनुसार फैसला करते हैं।”
सरोटे कहती हैं – “लुचाई, ओराईभूता, साथिया और लाल धान जैसी धान के बीजों की पारंपरिक किस्मों में बारिश के पैटर्न में बदलाव को झेलने और मानसून के मौसम के बीच सूखे के दौरान बचे रहने की ज्यादा क्षमता होती है।” वर्तमान हालात में, जबकि ग्रामीण समुदाय जलवायु परिवर्तन के विषम प्रभाव का सामना कर रहे हैं, बचे रहने के लिए उतार-चढ़ाव वाली सूक्ष्म-जलवायु की स्थितियों के प्रति सहनशीलता महत्वपूर्ण है।
कम हुई बाजार निर्भरता
बीज संरक्षण का तत्काल प्रभाव यह है कि बीज के साथ-साथ भोजन की खरीद के लिए बाजार पर निर्भरता कम हुई है। बड़े संतोष के साथ रामप्यारी उइके कहती हैं – “इस साल मेरी जरूरत के कुल चार बोरी धान के बीज में से मैंने बाजार से केवल एक ही बोरी बीज खरीदा।”
बाकी मात्रा के लिए उसने पिछले साल के संरक्षित बीज इस्तेमाल किए। खुले बाजार में बीज के एक पैकेट की कीमत लगभग 800 रुपये है। इस प्रकार अपने स्वयं के बीजों को संरक्षित करने से उइके को इस साल 2,400 रुपये बचाने में मदद मिली।
इसी तरह, घर के आसपास उगाई जाने वाली सब्जियां, महिलाओं को सब्जियां खरीदने के लिए बाजार पर निर्भरता कम करने में मदद करती हैं। पूना यादव कहती हैं – “चाहे हम कुछ महीनों के लिए अपने घर की जरूरतें पूरा कर पाते हों, फिर भी यह हमारे लिए काफी है। यह हमें पैसे बचाने में मदद करता है, जो हमें बाजार से सब्जियां खरीदने के लिए खर्च करने पड़ते।”
सोमवती उइके ने जोर देकर कहा – “बाजार में हमें जो सब्जियां मिलती हैं, वे रसायनों से भरी होती हैं। अपने घर के पास की जमीन में हम जो सब्जियां उगाते हैं, उनमें केवल गोबर की खाद डालते हैं। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है। हम स्वाद में भी आसानी से अंतर कर पाते हैं।”
मंडला जैसे जिले में, जहां जिला रोजगार और आय रिपोर्ट के अनुसार, 91% से ज्यादा परिवारों की मासिक आय 5,000 रुपये से कम है, उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए नकद आय पर निर्भरता बेहद महत्वपूर्ण है।
बीजों का आदान-प्रदान
यदि कोई परिवार कोई बीज संरक्षित न कर पाए और उसे इसकी जरूरत पड़ जाए, तो क्या होता है? बीज संरक्षण का चलन, बीज के आदान-प्रदान की एक दूसरी पारम्परिक व्यवस्था के साथ गहराई से जुड़ा है, जो यहां के समुदायों के सामाजिक ताने-बाने में गहराई से गुंथा हुआ है।
पूना यादव बताती हैं – “यदि मेरे पास कोई खास बीज नहीं है, लेकिन मेरे पड़ोसी के पास है, तो मैं उससे कुछ बीज ले लूंगी और बदले में मैं उसे वह दे दूँगी, जो मेरे पास है और उसके पास नहीं है। इस साल मैंने उससे भिंडी और लौकी के बीज लिए और उसे कद्दू के बीज दिए।”
पूरे गांव की महिलाएं इस प्रथा का पालन करती हैं। यादव कहती हैं – “यह प्रथा तब से चली रही है, जब तक का मुझे याद है।” इससे एक परिवार द्वारा उगाई जाने वाली फसलों की विविधता को बनाए रखने के साथ-साथ, समुदाय की बीज के लिए बाजार पर निर्भरता को कम करने में भी बड़ी मदद मिलती है।
केवल बीजों का आदान-प्रदान ही नहीं होता है, बल्कि उपज का भी होता है। पूना यादव का कहना था – “यदि किसी के खेत में सब्जियों का उत्पादन ज्यादा हो जाता है, तो गांव का कोई भी व्यक्ति उनसे सब्जियां मुफ्त ले सकता है।”
बीजों के इस आदान-प्रदान को आसान बनाने में, ग्रामीण संस्थाएँ भी भूमिका निभाती हैं। बाजार की ताकतों के गांवों में प्रवेश कर जाने के कारण, कृषि पद्धतियों में उन्नत किस्म और संकर बीजों का धीमा लेकिन लगातार प्रवेश हुआ है।
फिर भी ऐसे मामलों में, महिलाओं के नेतृत्व में ग्रामीण संस्थाओं ने पारम्परिक किस्मों के बीजों के आदान-प्रदान और इस्तेमाल को पुनर्जीवित करने के लिए मंच तैयार किए हैं। गुबरी गांव की एक किसान, असवंती उड्डे ने कहा – “हमने पीली लुचाई, ओराईभुटा और नुंगा जैसी धान की विभिन्न पारम्परिक किस्मों के बीज पड़ोसी गांव से लाकर अपने गांव के किसानों में वितरित किए।”
इस तरह का आदान-प्रदान इस शर्त पर होता है कि प्राप्तकर्ता फसल के बाद, गांव के ज्यादा किसानों को बीज देगा। उड्डे कहती हैं – “गांव की महिलाएं भी बैठकों में एक दूसरे के साथ सब्जी के बीज का आदान-प्रदान कर रही हैं। पहले मैं केवल एक या दो महिलाओं के साथ बीजों का लेन देन कर पाती थी; अब अपनी बैठकों में, मैं और ज्यादा महिलाओं के साथ बीजों का आदान-प्रदान कर सकती हूँ।”
कई गांवों ने इस प्रथा को और अधिक प्रोत्साहन देने के लिए, बीज आदान-प्रदान उत्सव मनाना भी शुरू कर दिया है। इस क्षेत्र में रहने वाली महिलाएं, बीज संरक्षण और आदान-प्रदान की इन व्यवस्थाओं के संरक्षण और बचाव के लिए दृढ़ संकल्प हैं।
ध्वनि ललाई और सत्यसोवन दास फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (FES) से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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