ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम ने टनों कार्बन को प्रच्छादित (पृथक्करण) किया

गरीबी उन्मूलन योजना, मनरेगा ने लाखों लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की है, विशेषकर महामारी के दौरान। योजना के माध्यम से बनाई गई प्राकृतिक संपत्ति, कार्बन को नियंत्रित करने में मदद करती है।

सामाजिक सुरक्षा योजना मनरेगा ने खाद्य सुरक्षा, जलवायु सहनशीलता और कार्बन-पृथक्करण सुनिश्चित किया है (छायाकार – यैन फॉरगेट / विकिमीडिया कॉमन्स के सौजन्य से)

दुनिया का सबसे बड़ा गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रम भारत को, जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के अनुरूप, 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्ष आवरण के माध्यम से, 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन-सिंक बनाने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक हो सकता है। .

भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc), बेंगलुरु के शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ने 2017-18 में वृक्षारोपण और मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार के माध्यम से 10.2 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड (MtCO2) अलग करके नियंत्रित की है।

वर्ष 2030 तक योजना की कार्बन डाइऑक्साइड को अलग करने की क्षमता 24.9 करोड़ टन तक बढ़ सकती है। इस निष्कर्ष पर पहुँचाने के लिए, शोधकर्ताओं ने भारत के 18 कृषि-जलवायु क्षेत्रों में फैले 158 गांवों के वृक्षारोपण में जैव-मात्रा (बायोमास) और कार्य स्थलों की मिट्टी में जमा कार्बन का आंकलन करके, कार्बन-पृथक्करण का हिसाब लगाया है।

मनरेगा वर्ष 2006 से भारत में ग्रामीण परिवारों को अकुशल शारीरिक श्रम प्रदान कर रहा है। सूखे जैसे संकट के समय में यह राहत का एक प्रमुख स्रोत रहा है। पिछले साल इसे और अधिक महत्व मिला, जब COVID-19 महामारी के मद्देनजर सरकार द्वारा पूरा लॉकडाउन लागू किए जाने के बाद, लाखों प्रवासी मजदूरों को अपने मूल गांवों में लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा।

कार्बन अवशोषण 

IISC के शोधकर्ताओं ने पाया कि वृक्षारोपण, वन बहाली और घास के मैदान के विकास सहित, सूखा-रोधी गतिविधियों ने सबसे ज्यादा कार्बन का अवशोषण किया है, जिसमें मनरेगा के अंतर्गत, कुल कार्बन प्रच्छादन का 40% से थोड़ा ज्यादा हुआ है।

क्षेत्र के आधार पर, सूखा-रोधी गतिविधियों से प्राप्त कार्बन 0.29 से 4.50 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष (tC/ha/yr) के बीच थी। मिट्टी-बंधाई, पत्थर-बंधाई एवं भूमि को समतल बनाने जैसी भूमि सुधार गतिविधियों में 0.1 से 1.97 टन/हैक्टर/वर्ष कार्बन निकाली गई, जबकि लघु सिंचाई द्वारा 0.08 से 1.93 टन/हैक्टर/वर्ष प्रच्छादित की गई।

अध्ययन की सह-लेखिका, ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी’ की प्रमुख शोध वैज्ञानिक, इंदु के. मूर्ति कहती हैं – “भले ही मनरेगा एक आजीविका सुरक्षा कार्यक्रम है, लेकिन इसके पर्यावरण-संबंधी लाभ हमेशा स्पष्ट थे, क्योंकि इसमें ज्यादातर गतिविधियां पानी, जमीन और पेड़ों जैसे प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित हैं।”

मूर्ति ने कहा – “यह पहली बार हुआ है, जब हम ज्यादातर कृषि क्षेत्रों को तय करते हुए, राष्ट्रीय स्तर पर सकारात्मक प्रभाव की मात्रा निर्धारित कर सके हैं।” कुछ कृषि-जलवायु क्षेत्रों की कुछ गतिविधियों में नकारात्मक कार्बन प्रच्छादन दर्ज किया गया, क्योंकि फसल उत्पादन के तरीकों, मिट्टी की ढलान और दूसरे कारणों से कार्बन मिट्टी से वातावरण में छोड़ी गई थी।

भारत ने इस साल के शुरू में, जलवायु परिवर्तन पर ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ को प्रस्तुत अपनी तीसरी द्विवार्षिक नवीनीकरण रिपोर्ट में कार्बन पृथक्करण में योगदानकर्ता के रूप में मनरेगा पर जोर दिया है।

‘1.5 डिग्री’ पर आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट के लेखन में योगदान करने वाली, बेंगलुरू स्थित ‘इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स’ में शोध सलाहकार, चांदनी सिंह कहती हैं – “अध्ययन मनरेगा से गंभीरता कम करने के सह-लाभों पर प्रकाश डालता है। यह वर्तमान जलवायु अनिवार्यता में मुख्य है, जब वैज्ञानिक जलवायु-सहनशीलता में बढ़ोत्तरी का आह्वान कर रहे हैं।”

भारत, 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से, 2.5 से 3.0 अरब टन कार्बन-डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन-सिंक बनाने की प्रतिज्ञा में पिछड़ रहा है। पिछले दो वर्षों में, भारत के वनों द्वारा कार्बन-सिंक में सिर्फ 0.6% की वृद्धि हुई है। लक्ष्य पूर्ती के लिए, सिंक को अगले 10 साल की अवधि में, कम से कम 15-20% तक बढ़ाना होगा।

सूखा-रोधी गतिविधियाँ, जिसमें मनरेगा के अंतर्गत पेड़ लगाना शामिल है, कार्बन-सिंक लक्ष्य के लिए योग्य होंगी और 2030 तक कुल 56.1 करोड़ टन कार्बन-डाइऑक्साइड सिंक बनाने का अनुमान है। यह कुल लक्ष्य का लगभग 18% होगा।

मूर्ती का कहना था – “वन क्षेत्र अकेले शायद लक्ष्य को पूरा न कर सके। इसलिए, मनरेगा के अंतर्गत ज्यादातर प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन गतिविधियों में वृक्षारोपण, विशेष रूप से फल और चारा देने वाले पेड़ों को शामिल करने की जरूरत है। इससे लोगों के लिए वैकल्पिक आय और आजीविका स्रोत उत्पन्न होंगे, जबकि कार्बन नियंत्रण उसका एक अतिरिक्त लाभ होगा।”

प्राकृतिक संपत्ति सृजन  

कार्बन नियंत्रण का लाभ, मनरेगा का सिर्फ एक पक्ष है। इस योजना के माध्यम से बनी सामाजिक सुरक्षा और प्राकृतिक संपत्ति, कई वर्षों से सबसे कमजोर लोगों की जलवायु संकट के प्रति सहनशीलता का निर्माण कर रही हैं।

वर्ष 2013 में IISc द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि मनरेगा के अंतर्गत किए गए श्रम-कार्यों से, चार राज्यों के 40 गांवों में, जल और जमीन संसाधनों में सुधार, मिट्टी की कार्बन में वृद्धि और सतही जल के बह जाने और मिट्टी के कटाव में कमी के माध्यम से, पर्यावरणीय लाभ और लोगों की कमजोरी में कमी आई है।

गुजरात के राजकोट जिले के ढांक गांव के खेतिहर मजदूर, भरतभाई गुघल उस समय को याद करते हैं, जब गांव में सिर्फ दो तालाब होते थे। वह कहते हैं – “फसल का केवल एक मौसम होता था और उसमें किसान गेहूं, कपास या मूंगफली उगाते थे। सूखे के वर्षों में वह भी संभव नहीं होता था। मेरे पिता हर साल एक निर्माण स्थल पर मजदूरी करने के लिए राजकोट चले जाते थे।”

ढांक गुजरात के सौराष्ट्र प्रायद्वीप में स्थित है, जो बहुत ज्यादा गर्मी, अनियमित बारिश और पानी की ऊंची वाष्पीकरण दर के लिए जाना जाता है। इसकी जलवायु अर्ध-शुष्क है और यहां औसत सालाना वर्षा 709 मिमी होती है। जमीन के नीचे डेक्कन बेसाल्ट चट्टानों का जाल है, जिसकी पानी रोक पाने की क्षमता कम है। गहराई में, पत्थर की दरारें और जोड़ कई जगहों पर भूजल जमा करते हैं।

लगभग 20 साल पहले लंबे सूखे के बाद, ढांक में आठ और तालाबों की खुदाई की गई थी।अब उनका रखरखाव ग्रामीण रोजगार योजना के अंतर्गत किया जाता है। गुघल ने कहा – “सभी 10 तालाबों में अच्छा पानी ठहरता है, जो भूजल रिचार्ज करने में मदद करता है, जिसे ग्रामीण कुओं और बोरवेल के माध्यम से खेती के लिए उपयोग करते हैं।”

किसान अब तीन मौसमों में गेहूं, बाजरा, कपास, सोयाबीन, मूंगफली, प्याज और मिर्च जैसी कई फसलें उगाते हैं। गुघल कहते हैं – “पलायन करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि गाँव में साल भर बहुत काम मिल जाता है। यह संभव नहीं होता, यदि भूजल के पुनर्भरण के लिए तालाब नहीं होते।”

जलवायु सहनशीलता 

यह योजना कमजोर क्षेत्रों को भीषण मौसम की मार से निपटने में मदद करती है। आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले का रुशिकुड्डा गांव नियमित रूप से चक्रवातों का सामना करता हैं। मनरेगा श्रम का उपयोग एक स्थानीय नदी और जल निकास प्रणाली को गहरा और चौड़ा करने के लिए किया गया, ताकि चक्रवातों और तूफानों से आए पाए पानी को वापिस समुद्र में धकेला जा सके।

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट (IIED) के एक अध्ययन में पाया गया, कि इससे बहाव में नीचे इसाकलापलेम गांव के परिवारों को लाभ हुआ, जहां 2014 में आए हुदहुद चक्रवात से इमारतों को कम नुकसान हुआ था, क्योंकि पानी पास के घरों के बजाय, पानी की प्रणालियों से होते हुए समुद्र में चला गया।

सर्वेक्षण में गांव के लगभग 65% परिवारों ने भी सिंचाई एवं कृषि संपत्ति के सृजन के कारण, गारंटीड मजदूरी और कृषि कार्यों की बेहतर उपलब्धता के माध्यम से आमदनी में वृद्धि की जानकारी दी, जिससे उन्हें चक्रवात का सामना करने में मदद मिली।

अपने मिश्रित ट्रैक रिकॉर्ड के बावजूद, मनरेगा ने COVID-19 के कारण लगे प्रतिबंधों के चलते पैदा हुए आर्थिक संकट का सामना करने के लिए, बड़े ग्रामीण कार्यबल को जोड़े रखा। इस योजना में जून 2019 की तुलना में जून 2020 में काम पाने वाले परिवारों की संख्या में 50% की वृद्धि देखि गई।

यह देखते हुए कि जलवायु संकट से गरीबी और खाद्य असुरक्षा की स्थिति बदतर होने की आशंका है, मनरेगा जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाएं, जो सबसे कमजोर लोगों तक पहुंचती हैं, मजबूत और प्रभावी रहनी चाहियें। जैसा कि मूर्ति का कहना था – कार्बन पृथक्करण एक अतिरिक्त लाभ होगा।

मनु मौदगिल चंडीगढ़ में स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

‘Mongabay India’ में पहली बार प्रकाशित इस कहानी का लम्बा संस्करण यहां पढ़ा जा सकता है।