मशरूम की खेती बनी जीवन रेखा
मामूली आमदनी पर वर्षों तक संघर्ष करने के बाद, मशरूम उत्पादन से पश्चिम बंगाल की महिलाओं को प्राप्त हुई बेहतर आजीविका और पोषण, और शहरी भारत को मिली ज्यादा किस्में।
मामूली आमदनी पर वर्षों तक संघर्ष करने के बाद, मशरूम उत्पादन से पश्चिम बंगाल की महिलाओं को प्राप्त हुई बेहतर आजीविका और पोषण, और शहरी भारत को मिली ज्यादा किस्में।
छह साल पहले अपने पति को खो चुकीं नाजिमा बेगम कपड़े सीलकर अपना और अपने किशोर बेटे का जीवन यापन करती थी। यह एक थकाने और कमजोरी लाने वाला काम था, जिससे बंगाली महिला लगभग 3,500 रुपये प्रति माह कमाती थी, जिससे घर चलाना मुश्किल था। तब तक, जब तक उसने मशरूम की खेती के बारे में नहीं जाना था।
बेगम अब अपनी रसोई से ही मशरूम के बीजों का प्रचार करती हैं, जिससे उन्हें बिना कष्ट के अच्छा लाभ हो जाता है। कोलकाता से 160 किलोमीटर दूर पठानपारा गाँव में रहने वाली बेगम कहती हैं – “सिलाई करना बहुत कठिन था और इसमें कई घंटे काम करना पड़ता था, जिससे मेरी पीठ में तेज दर्द और आंखों में खिंचाव होता था। आमदनी भी बहुत कम थी।”
लेकिन 10 किलोग्राम बीज तैयार करने में उन्हें कुछ ही घंटे लगते हैं। लगभग एक महीने तक बीजों में पानी देने और उनकी निगरानी करने के बाद, वह उन्हें पॉलिथीन की थैलियों में पैक करती हैं और प्रत्येक 200 ग्राम की थैली 22 रुपये में बेचती हैं। मुस्कुराते हुए वह कहती हैं – “इससे मुझे अच्छा लाभ मिलता है, क्योंकि बीज बनाने में सिर्फ 5 रुपये खर्च होते हैं। आजकल मेरा पूरा ध्यान बीजों के प्रसार पर है।”
और वह अकेली नहीं हैं। बेगम पश्चिम बंगाल के पूर्व बर्धमान जिले की सात पंचायतों की 300 से ज्यादा महिलाओं में से एक हैं, जिनके पास अब मशरूम की खेती की वैकल्पिक आजीविका है।
ग्रामीण आजीविका प्रशिक्षण
वर्ष 2017 में ‘भारत ग्रामीण आजीविका फाउंडेशन’ की ‘ऊषारमुक्ति परियोजना’ में ग्रामीण महिलाओं के लिए आजीविका प्रशिक्षण प्रदान करने की शुरुआत की, जिनमें से ज्यादातर आदिवासी हैं। परियोजना के अंतर्गत किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि महिलाओं के पास अपनी खेती करने के लिए पर्याप्त जमीन नहीं थी। वे दूसरों के खेतों में काम करती थी और अन्य छोटे-मोटे काम करती थी, जिससे उन्हें अपना घर चलाने के लिए जरूरी आमदनी नहीं होती थी।
परियोजना लागू करने वाली गैर-लाभकारी संस्था, ‘लोक कल्याण परिषद’ के उपाध्यक्ष, अमलेंदु घोष कहते हैं – “ज्यादातर पुरुष बेहतर आजीविका के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करते थे। लेकिन पितृसत्तात्मक मानसिकता के चलते, महिलाओं को काम के लिए अपने घर से बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं थी।”
इसलिए संस्था ने परिवार के कुछ खर्चे उठाने में मदद के उद्देश्य से, महिलाओं को वैकल्पिक आजीविका में प्रशिक्षण देने का फैसला किया। इसके लिए मशरूम की खेती एकदम उपयुक्त थी।
घर पर ही काम और बेहतर पोषण के लिए उपाय
मशरूम उत्पादन में एक बड़ा फायदा यह है कि इस काम के लिए कम जगह की जरूरत होती है। लेकिन बात इतनी सी नहीं है। यह स्वस्थ भोजन का स्रोत भी है।
घोष कहते हैं – “हमने मशरूम की खेती को इसलिए महत्व दिया, क्योंकि इसकी खेती घर के अंदर की जा सकती है और इससे परिवार को स्वस्थ आहार मिलेगा। इसकी फसल के लिए लगभग एक महीने का समय लगता है और अच्छी आय होती है। इसके अलावा, नियमित निगरानी और पानी देने के अलावा, इसमें कड़ी मेहनत नहीं लगती।”
कभी-कभी जंगल से लाए मशरूम खाने के बावजूद, महिलाएं मशरूम की खेती करने से हिचक रही थीं, क्योंकि उन्हें बाजार में मांग को लेकर आशंका थी।
इस बात को समझते हुए, ‘लोक कल्याण परिषद’ ने नि:शुल्क बीज बांटे। घोष कहते हैं – “हमने जागरूकता पैदा करने के लिए बीज प्रदान किए। शुरू में विचार व्यावसाय का नहीं था, बल्कि उनके परिवार, खासकर बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन प्रदान करने का था।”
विचार रंग लाया। मशरूम के बढ़िया स्वाद और पोषण को देखते हुए, महिलाओं ने धीरे-धीरे दिलचस्पी दिखानी शुरू की। बड़े पैमाने पर उसके उत्पादन का फैसला लेते हुए, उन्होंने गैर-लाभकारी संस्था से बीज खरीदना शुरू कर दिया।
बाजार की संभावनाएं और खतरे
मशरूम विशेषज्ञ और पूर्ब बर्धमान में उषारमुक्ति परियोजना के टीम लीडर, सत्यनारायण सरदार ने VillageSquare.in को बताया – “लगभग 200 ग्राम बीज 2 से 2.5 किलोग्राम मशरूम पैदा हो सकता है। उत्पादन खर्च लगभग 30 रुपये प्रति किलोग्राम है, जबकि मांग और इलाके के आधार पर उन्हें 200 रुपये प्रति किलोग्राम तक बेचा जा सकता है।”
अच्छे मुनाफे का आभास पाकर, महिलाओं ने मशरूम उगाना शुरू कर दिया। डेटा एंट्री ऑपरेटर, मौसमी सिंघा, जिन्होंने पिछले साल उत्पादन शुरू किया था, कहती हैं – “पैदा हुए 37 किलोग्राम मशरूम में से, मैंने 27 किलो 200 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचा, जिससे मुझे 5,000 रुपये से ज्यादा का मुनाफ़ा हुआ।”
लेकिन कुछ महिलाओं ने, पर्याप्त ज्ञान के अभाव और बाजार की जरूरत का अंदाजा गलत लगाने के कारण, भारी नुकसान की बात स्वीकार की है। पड़ोसी गांव की निवासी, रीना सुकदर कहती हैं – “हमने हाल ही में 130 किलोग्राम का उत्पादन किया, लेकिन बहुत ज्यादा पैदावार करने के कारण, हम उसे बेच नहीं पाए। आधे मशरूम सड़ गए। लेकिन यदि सावधानी से किया जाए, तो यह लाभदायक है।”
सरकार मशरूम शेड बनाती है
मशरूम की खेती की अपार संभावनाओं को देखते हुए, राज्य सरकार आगे आई और जनवरी में 17 शेडों का निर्माण किया। उत्पादन में सहायता के लिए प्लास्टिक से ढकी दीवारों, पक्के फर्श और पुआल की छतों वाले शेड 115 महिलाओं की मदद कर रहे हैं। राज्य सरकार ने प्रत्येक महिला को काम शुरू करने के लिए, बीजों के बीस पैकेट भी दिए।
स्थानीय संयुक्त ब्लॉक विकास अधिकारी, अर्जुन दासगुप्ता ने VillageSquare.in को बताया – “यदि और महिलाएं आगे आती हैं, तो सरकार और शेड बनाने को तैयार है। हम उन लोगों को प्राथमिकता देंगे, जो व्यवसाय में गंभीर रुचि दिखाएंगे, क्योंकि कुछ लोग जोश के साथ खेती शुरू तो करते हैं, लेकिन दिलचस्पी ख़त्म होने पर बीच में ही छोड़ देते हैं।”
तेजी से बढ़ता बाजार
पूरे भारत में मशरूम की मांग भी बढ़ रही है। भोजन-पसंद शहरी लोगों के लिए वैरायटी महत्वपूर्ण है, जिनका स्वाद, अक्सर सलाद और पिज़्ज़ा में इस्तेमाल होने वाले साधारण सफेद बटन मशरूम से लेकर, चीनी और जापानी व्यंजनों के लिए जरूरी ऑयस्टर मशरूम जैसी स्वादिष्ट किस्मों तक फैला है।
सत्यनारायण सरदार कहते हैं – “हमने ऑयस्टर मशरूम पर जोर दिया, क्योंकि यह स्थानीय जलवायु में अक्टूबर से फरवरी तक अच्छी तरह से बढ़ता है, ज्यादा पौष्टिक होता है और दूसरी किस्मों के मुकाबले कम जगह लेता है।”
मांग और आपूर्ति, दोनों में बढ़ोत्तरी से बाजार के और व्यापक होने की उम्मीद है।
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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