टिकाऊ तरीके से इकठ्ठा किए शहद से बेहतर लाभ
धुएं से मधुमक्खियाँ भगाने से उन्हें, जैव विविधता और शहद के स्वाद को नुकसान पहुंचता है। तो यह हैरानी की बात नहीं है कि एक ज्यादा टिकाऊ बेहतर आय देने वाला तरीका अपनाया जा रहा है।
धुएं से मधुमक्खियाँ भगाने से उन्हें, जैव विविधता और शहद के स्वाद को नुकसान पहुंचता है। तो यह हैरानी की बात नहीं है कि एक ज्यादा टिकाऊ बेहतर आय देने वाला तरीका अपनाया जा रहा है।
दशकों से पूर्वोत्तर महाराष्ट्र में रहने वाले आदिवासी परिवार, अपने चारों ओर के घने जंगल से, धुंए से मधुमक्खियों को भगा कर उनके छत्ते से शहद इकठ्ठा करते रहे हैं। लेकिन इन छोटी-छोटी आग से अक्सर मधुमक्खियां मर जाती हैं, उन हरे-भरे पौधों को नष्ट करने की बात तो छोड़िये, जिन से उन्हें भोजन मिलता है।
इसका न केवल स्थानीय जैव विविधता पर बुरा असर पड़ा, बल्कि इससे शहद की गुणवत्ता में भी कमी आई, जिसका मतलब था, कि परिवारों को उनके प्रयास के लिए अच्छी आय प्राप्त नहीं होगी। जब तक कि गोपाल पालीवाल ने गढ़चिरौली जिले के आदिवासी परिवारों को शहद निकालने की तकनीक प्रदान नहीं की, जो इस दुष्चक्र को समाप्त करने में मदद कर रही है।
पालीवाल कहते हैं – “द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से, कीटनाशकों के उपयोग के अलावा, पर्यावरण के बदलाव, शहरीकरण, मानव हस्तक्षेप जैसे विभिन्न कारणों से, शहद के छत्तों की संख्या में लगभग 45% की कमी आई है। हमारी तकनीक से हम छत्ते, मधुमक्खियों या लार्वा को छेड़े बिना शहद निकाल सकते हैं।”
शहद निकालने की उनकी किट, साधारण वस्तुओं और उपकरणों का मिश्रण है, जिसमें शहद इकठ्ठा करने के लिए सुरक्षात्मक सूट, एक बाल्टी, छलनी, प्लास्टिक के बक्से, चाकू और रस्सी शामिल हैं। एक व्यक्ति ये खास सूट पहन कर पेड़ पर चढ़ता है और सावधानी से शहद से भरे छत्ते का लगभग 20% काट लेता है।
बाकी को वैसे ही छोड़ दिया जाता है। अगले 15 से 20 दिनों में मधुमक्खियां फिर से उस हिस्से को भर देती हैं, जिससे एक बार फिर शहद निकालने का मौका मिलता है। कच्चे शहद में से नमी को दूर करने के लिए, थोड़ा गर्म किया जाता है, और फिर बोतल में भर कर बेचा जाता है।
पालीवाल कहते हैं – “हम अपने शहद को ‘अहिंसक’ शहद के रूप में बेचते हैं। टिकाऊ तरीके से निकाला गया शहद, पर्यावरण की रक्षा करने में मदद करता है और ग्रामीण क्षेत्रों में नियमित आय का एक स्रोत सुनिश्चित करता है। ग्रामवासियों को नई तकनीक में फायदा दिखाई देता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें सही पारिश्रमिक मिल रहा है। हमें उम्मीद है कि आदिवासी क्षेत्रों के और लोग इसमें शामिल होंगे।”
चन्दरसाई काटेंगे उस समूह का हिस्सा हैं, जिसे शहद निकालने की किट मिली थी। समूह ने इस साल, 15 दिनों में 50,000 रुपये कमाए। काटेंगे कहते हैं – “पहले हम मधुमक्खियों को भगाने के लिए आग का इस्तेमाल करते थे और पूरे छत्ते को नीचे खींचते थे। इस नई तकनीक से हम इसका एक हिस्सा ही लेते हैं। विशेष सूट हमें मधुमक्खियों के डंक से बचाता है। केवल 15 दिनों में 50,000 रुपये कमाना बुरा नहीं है।”
बेहतर शहद से बेहतर कमाई
काटेंगे अकेले नहीं हैं। कई गैर सरकारी संगठनों और सामुदायिक समूहों ने इस नई पद्धति को अपनाया है, जिससे ग्रामवासियों को संगठित होने और अपने शहद के लिए सबसे अच्छा बाजार खोजने में मदद मिली है। कई ग्रामीणों का कहना था कि वे अक्सर स्थानीय व्यापारियों की दया के मोहताज थे, जो उन्हें बरगलाते और उचित आय से इनकार करते थे।
गढ़चिरौली जिले की सीमा से लगते, छत्तीसगढ़ के साल्हे गांव के निवासी, चमरू होदी कहते हैं – “कभी-कभी व्यापारी हमें एक किलोग्राम के लिए सिर्फ 80-90 रुपये देते थे। अब यह देखकर काफी संतोष होता है कि हमारे अपने लोग हमारा शहद और अन्य वनोपज खरीद रहे हैं। आय अच्छी है, कभी-कभी आम बाजार दर से भी ज्यादा।”
गढ़चिरौली के एक स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यकर्ता, सतीश गोगुलवार बाजार को बढ़ते हुए देखते हैं। उनका कहना है – “शहद इकठ्ठा करने वालों को 200 रुपये प्रति किलो देने के बाद भी, टिकाऊ तरीके से निकाले गए शहद के लिए, मामूली शुद्धिकरण और पैकेजिंग के बाद, खुदरा कीमत 400 रुपये या उससे ज्यादा मिल सकती है। वन के शुद्ध शहद की मांग बढ़ रही है। हमारे अनुमान के अनुसार, अकेले गढ़चिरौली जिले में सालाना 1,000 क्विंटल शहद की क्षमता है।”
आमतौर पर शहद से होने वाले लाभ का उपयोग, गांवों के बुनियादी ढांचे में सुधार और रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा करने के लिए किया जा रहा है। इसलिए इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है कि पड़ोसी इलाकों के लोग शहद निकालने की नई तकनीक और किट कहां मिल सकती है, के बारे में जानना चाहते हैं।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के साथ, वन प्रशासन और स्थायी आजीविका परियोजना पर काम कर रहे, रवि चुनारकर कहते हैं – “यह एक शानदार पहल है, क्योंकि इससे ग्रामीणों का सशक्तिकरण होता है और पहले से संख्या में घट रहे छत्तों को नष्ट होने से बचाव होता है।”
जंगल के फल
शहद अकेला ऐसा ‘जंगल का फल’ नहीं है, जिस पर ध्यान दिया जा रहा है। यह क्षेत्र मुख्य फसल से लेकर लघु वनोपज (MFP) तक जंगली फलों और सब्जियों से भरपूर है, जिनकी शहरी लोगों में लोकप्रियता बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, महुआ (Madhuka longifolia) के फलों से निकाले गए तेल को प्रोसेस करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इस तेल का उपयोग भोजन, दवाईयों और यहां तक कि टॉयलेट साबुन बनाने के लिए भी किया जा सकता है।
ये लघु वनोपज ग्रामीणों को, स्थानीय रोजगार के अवसर पैदा करने के साथ-साथ, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत, प्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुंच, जिसका उन्हें अधिकार है, के माध्यम से स्व-शासन में मदद करके, आय का एक और टिकाऊ स्रोत पैदा कर सकते हैं।
बहुत से कार्यकर्ता, गैर-लाभकारी संगठन और शोधकर्ता, लघु वनोपज की टिकाऊ फसल के माध्यम से, स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की योजना पर काम कर रहे हैं, ताकि स्थानीय लोग बेहतर आजीविका की तलाश में बाहर न जाएं और उद्योगों के लिए रास्ता बनाने के लिए जंगलों को नष्ट न किया जा सके।
गोगुलवार कहते हैं – “शहद की तरह, आसपास के जंगल में बहुत से उत्पाद हैं। लेकिन प्रोसेसिंग इकाइयों की स्थापना और बाजारों से जुड़ाव एक चुनौती है। हालांकि हमारे शहद निकालने के प्रयोग ने दिखाया है कि वनोपज के टिकाऊ उपयोग के माध्यम से ग्राम सभा (ग्रामवासी) आत्मनिर्भर बन सकते हैं।”
सौरभ कटकुरवार नागपुर स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
यह लेख पहली बार Mongabay India में प्रकाशित हुआ था। मूल कहानी यहां पढ़ी जा सकती है।
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