एक दूसरे को पढ़ाने के लिए लड़कियों ने मजदूरी का काम छोड़ दिया
लॉकडाउन के समय, लड़कियाँ ईंट भट्टों और खेतों में काम करने के लिए मजबूर हो गईं। शिक्षित युवाओं ने उन्हें इससे बाहर आने में मदद की, ताकि वे पढ़ सकें और छोटों को पढ़ा सकें।
लॉकडाउन के समय, लड़कियाँ ईंट भट्टों और खेतों में काम करने के लिए मजबूर हो गईं। शिक्षित युवाओं ने उन्हें इससे बाहर आने में मदद की, ताकि वे पढ़ सकें और छोटों को पढ़ा सकें।
लॉकडाउन के कारण जब 10 वर्षीय निशु वर्मा का स्कूल बंद हो गया, तो उसके परिवार ने उसे ईंट भट्टे पर काम करने के लिए भेज दिया। वह कहती है – “घर में पैसे और खाने की कमी थी।” छठी कक्षा की छात्रा, खुशबू के पिता की नौकरी छूटने के कारण सूरत से लौटने के बाद, उसे खेत में उनकी मदद करनी पड़ी।
निशु और खुशबू झारखंड के गिरिडीह जिले के बीघा गांव के साधारण बच्चे हैं। बीघा की आबादी लगभग 1500 है। करीब 50 परिवारों के ज्यादातर बच्चे लॉकडाउन के कारण स्कूल नहीं जा पा रहे थे। COVID-19 द्वारा उनकी पढ़ाई रुकने से पहले भी बच्चों को हाई स्कूल तक पहुंचने के लिए 20 किमी की यात्रा करनी पड़ती थी।
एक गैर-लाभकारी संगठन, ‘एजुकेट गर्ल्स’ की संस्थापक और कार्यकारी निदेशक, सफीना हुसैन का कहना है – “प्रवासी और गरीब परिवारों के बहुत से बच्चों के लिए, COVID-19 ने शिक्षा प्राप्त करने की चुनौतियों को बढ़ा दिया, जिससे बच्चों को बाल श्रम, शोषण और घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ रहा है।”
गाँव के एक युवक सुबोध कुशवाहा कहते हैं – “स्कूल बंद होने का लड़कियों पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा। कुछ को तुरंत घर और खेतों के काम धकेल दिया गया। बीघा में, लगभग 95% स्थानीय लोग खेती करते हैं। लॉकडाउन में उन्हें पर्याप्त भोजन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था।”
कुशवाहा और पांच और लोगों ने पिछले साल बीघा में ‘प्रयास’ की शुरुआत की, जो बड़े बच्चों द्वारा छोटे बच्चों को मुफ्त पढ़ाने वाली एक शिक्षण श्रृंखला है। जमशेदपुर में छह साल काम कर चुका यह ऑटोमोबाइल इंजीनियर, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अपने गाँव वापस आया था। संस्थापक टीम में एक इंजीनियर विकास कृष्ण मंडल और एक शिक्षक तेजलाल वर्मा शामिल हैं।
पढ़ाई के लिए मजदूरी छोड़ना
मई 2020 में, ‘प्रयास’ ने बीघा में माता-पिता को अपने बच्चों को एक सामुदायिक मैदान में पढ़ने के लिए भेजने के लिए कहा। करीब 20 छात्र पहुंचे। एक साल बाद, प्रयास में 100 स्वयंसेवक हैं, जो इस पहल में अलग-अलग तरीकों से पढ़ाते या सहयोग करते हैं। छात्रों की संख्या 300 है, जिनमें 45% लड़कियां हैं।
इस अवसर को देखते हुए, खुशबु, निशु और उनके जैसे दर्जनों बच्चों ने पढ़ाई के लिए अपनी मजदूरी का काम छोड़ दिया है। निशु का कहना है – “मैं अब संख्याओं को जोड़ और घटा कर सकती हूँ और अंग्रेजी में अपना परिचय दे सकती हूँ। पहले तो मैं अपना नाम भी नहीं लिख पाती थी।” खुशबु कहती है – “मैं अब दर्शकों के सामने बोल सकती हूँ। मैं दो छोटे बच्चों को पढ़ाती भी हूं और यह मुझे पसंद है।”
छात्र अपने पाठ के लिए, गाँव के शिवाजी मैदान में इकट्ठा होते हैं। पेड़ों के बीच घिरे मैदान में कक्षाओं के लिए पर्याप्त छाया होती है और सही मात्रा में सूरज की रोशनी छनकर आती है। कक्षा एक से पाँच तक पढ़ने वालों को सुबह 6 से 8 बजे तक और बाकी को सुबह 9 से दोपहर तक पढ़ाया जाता है।
किताबों से आगे
नियमित कक्षाओं के अलावा, बच्चों को योग करते या विभिन्न खेल खेलते हुए भी देखा जा सकता है। प्रयास के संस्थापक सदस्यों में से एक, विकास कृष्ण मंडल कहते हैं – “स्कूल का माहौल बनाने के लिए ये गतिविधियां जरूरी थीं।”
कुशवाहा ने चुटकी लेते हुए कहा – “लड़कियां ज्यादा सक्रिय और बुद्धिमान हैं।” जब कुशवाहा ने अपने घर में एक पुस्तकालय खोला, तो वे बहुत खुश हुई। इसमें पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के अलावा 500 पुस्तकें हैं। उनकी रुचि को देखते हुए, उन्होंने पुस्तकालय का कामकाज लड़कियों को सौंप दिया। उन्होंने कहा – “वे जिम्मेदार हैं, इसलिए उन्हें प्रभार दिया गया। वे किताबें इशू करती हैं और पूरा संचालन संभालती हैं।”
कुशवाहा के अनुसार, बीघा में भोजन के अभाव वाले परिवारों के लिए कंप्यूटर, सिखाने का एक सही उपकरण बन गया, जहां परिवार मोबाइल फोन और इंटरनेट के बारे में सोच भी नहीं सकते। प्रयास के माध्यम से पढ़ने वाली आठवीं कक्षा की छात्रा मनीषा वर्मा ने कहा कि टेक्नोलॉजी तक उनकी पहुंच नहीं थी। जिस स्कूल में उसका दाखिला हुआ था, लॉकडाउन में उसकी ऑनलाइन कक्षाएं नहीं चल रही थी।
मनीषा कहती है – “प्रयास में कंप्यूटर थे। मैं सीखना चाहती थी, इसलिए मैंने इसमें शामिल होने का फैसला किया। यहां की पढ़ाई ने मुझे आत्म-विश्वास प्रदान किया है। आज मैं अपने मन की बात कह सकती हूं। यदि प्रयास ने समय पर हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो मैं घर के कामों में फंसी रह जाती।”
अपनी बेटी को आत्मविश्वास से छोटे बच्चों को पढ़ाते देख, मनीषा के पिता, रमेश वर्मा गर्व से भर उठे। उन्होंने कहा – “पहले उसकी पढ़ने की योग्यता औसत थी। आज वह टेस्टों में अच्छे अंक लाती है और अंग्रेजी बोलती है। मैं कड़ी मेहनत करूंगा और पैसा कमाऊंगा, ताकि मेरी बेटी अपनी पढ़ाई जारी रख सके।”
सामुदायिक सहयोग
प्रयास की कोशिशों को ग्रामवासियों से प्रशंसा प्राप्त हुई है, जो कभी-कभी कामों में मदद करते हैं। मणिकाबाद ग्राम पंचायत के सदस्य, क्षत्रपति मंडल कहते हैं – “प्रयास ने गांव का माहौल ही बदल दिया है। इन युवाओं ने, जो 2020 से पढ़ा रहे हैं, बच्चों में, खासतौर पर उन लड़कियों के लिए आशा जगाई है, जो अपनी कक्षाओं से चूक गए थे।”
प्रोत्साहन से उनकी महत्वाकांक्षा को बढ़ावा मिला है। प्रयास के संस्थापक सदस्य, जिनमें आदित्य कुमार वर्मा और देवनंदन वर्मा शामिल हैं, चाहते हैं कि यह शिक्षा से कुछ ज्यादा हो। वे चाहते हैं कि हर बच्चा समाज के प्रति जिम्मेदार हो और अपने से कमजोर लोगों की मदद करे। कुशवाहा कहते हैं – “प्रयास इस तरह एक ऐसी सेना बना रहा है, जो बच्चों को पढ़ाएगी और उन्हें शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ना भी सिखाएगी।”
‘एजुकेट गर्ल्स’ की सफीना हुसैन कहती हैं – “महामारी में एक साल से ज्यादा समय से शिक्षा प्रभावित होने के कारण, प्रयास जैसी अभिनव पहल उन लोगों के लिए आशा की एक किरण है, जिनके पास इंटरनेट और स्मार्ट फोन नहीं हैं। बहुत से गरीब बच्चों को पहली बार शिक्षा प्राप्त हो रही है, क्योंकि यह अब उनके इलाकों में उपलब्ध है।”
टीम की आसपास के गांवों में इस अवधारणा का विस्तार करने की योजना है। वे बच्चों और माता-पिता से मिल रहे हैं। कार्यक्रम को मजबूत बनाने के लिए, तालमेल के लिए कुछ स्कूलों और शिक्षकों के संपर्क में भी हैं।
एस शर्मा पटना स्थित एक पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
यह लेख पहली बार ‘101 Reporters’ में प्रकाशित हुआ था। मूल कहानी यहां पढ़ी जा सकती है।
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