पर्यावरण के प्रति जागरूक बिश्नोई, भूजल का अच्छा स्तर सुनिश्चित करते हैं
वृक्ष-आलिंगन के अपने पर्यावरणवाद के लिए प्रसिद्ध बिश्नोई, भूजल के संरक्षण के लिए, कृषि संबंधी पारम्परिक ज्ञान और समकालीन तरीकों को जोड़ते हैं।
वृक्ष-आलिंगन के अपने पर्यावरणवाद के लिए प्रसिद्ध बिश्नोई, भूजल के संरक्षण के लिए, कृषि संबंधी पारम्परिक ज्ञान और समकालीन तरीकों को जोड़ते हैं।
भारत के पर्यावरण कानूनों के बनने से बहुत पहले, 15वीं शताब्दी के अंत में, वर्तमान राजस्थान के नागौर के 34-वर्षीय गुरु जम्भेश्वर ने बिश्नोईवाद नाम के एक नए संप्रदाय की स्थापना की, जिसके लिए उन्होंने 29 सिद्धांत रखे। उनमें से आठ सिद्धांत क्षेत्र के वन्यजीवों और इसके घने हरे आवरण की रक्षा करने पर केंद्रित हैं। तब से बिश्नोई समुदाय जोरदार तरीके से पर्यावरण का संरक्षण कर रहा है।
बिश्नोई पारम्परिक रूप से पर्यावरणविद हैं। पेड़ों की अनावश्यक कटाई को रोकने के लिए, वे अपने मृतकों का दाह संस्कार करने की बजाय, उन्हें दफनाते हैं। वे केवल सूखे पेड़ों का जलाऊ लकड़ी के तौर पर और फर्नीचर बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। लगभग 10 लाख की आबादी वाला यह शाकाहारी संप्रदाय, पश्चिमी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश में केंद्रित है।
राजस्थान की सीमा से सटे, पंजाब के फाजिल्का जिले के एक गांव बाजीदपुर भोमा में, बिश्नोई समुदाय अपनी टिकाऊ स्थानीय संस्कृतियों से मजबूती से जुड़ा हुआ है। यहां उनकी पर्यावरण के अनुकूल सामाजिक रीति-रिवाज कई पीढ़ियों से चले आ रहे हैं। पहले जो सूखी बंजर जमीन अब अब लगभग 3,500 लोगों का घर है, जिन्होंने अपनी भूमि को हरा-भरा और भरपूर बना दिया है।
ज्यादातर बिश्नोई किसान हैं। जहां हरित क्रांति से शुरू हुई पंजाब के अधिक पानी उपयोग वाले तरीकों ने राज्य भर में भूजल संकट खड़ा कर दिया है, वहीं बाजीदपुर के बिश्नोई लोगों ने स्वेच्छा से खेती के अपने टिकाऊ तरीकों को बनाए रखा है। इसके परिणामस्वरूप, संतुलित भूजल स्तर, लाभदायक कृषि, स्वस्थ जीवन स्तर और समृद्ध घास के मैदान वाला पर्यावरण बना है।
खेजड़ी वृक्ष
भूजल स्तर के संरक्षण के लिए समुदाय ने जो प्रयास किए हैं, उन सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक है, अपने पवित्र ‘खेजड़ी’ के पेड़ (Prosopis cineraria) की रक्षा करना, जो कम समय में बढ़ता है और शुष्क इलाकों के पर्यावरण तंत्र को बनाए रखने में महत्वपूर्ण है।
बाजीदपुर भोमा के एक प्रसिद्ध शंख बजाने वाले व्यवसायी, अजय पाल बिश्नोई का कहना है – “खेजड़ी के पेड़ मिट्टी में बेहद पोषक तत्व छोड़ते हैं और अच्छी पैदावार सुनिश्चित करते हैं। इन पेड़ों के आसपास उगी फसलें भी सूक्ष्मजीवों के संक्रमण और बीमारियों से सुरक्षित रहती हैं। भोजन पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी के रूप में जलने पर, इसकी सूखी छाल में बड़े जीवाणुरोधी गुण होते हैं।”
वह कहते हैं – “हरी पत्तियां हवा में बहुत ऑक्सीजन छोड़ती हैं और लैक्टिक एसिड में समृद्ध होती हैं। पेड़ से हमारे पशुओं को बहुत ही पौष्टिक चारा मिलता है। इस पेड़ के हर अंग में कोई न कोई औषधीय गुण है। इसके अलावा, खास अवसरों पर हम इसके फल से सांगरी नाम का एक स्थानीय व्यंजन बनाते हैं।”
खेजड़ी को बचाने के समुदाय के प्रयास युगों से जारी हैं। सितम्बर 1730 में, मारवाड़ के महाराजा अभय सिंह के आदमी जोधपुर के पास खेजड़ली गांव पहुंचे, ताकि अपना नया महल बनाने के लिए खेजड़ी के पेड़ काट सकें। इसके विरोध में, इन पेड़ों को बचाने के लिए इनसे लिपट कर 363 बिश्नोइयों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। 1970 के दशक का प्रसिद्ध चिपको आंदोलन इसी से प्रेरित है।
अब खेजड़ी के पेड़ एक बार फिर खतरे में नजर आ रहे हैं। सेंट्रल एरिड ज़ोन रिसर्च इंस्टीट्यूट (CAZRI) की 2015 की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ों की संख्या में तेजी से गिरावट का कारण भूजल का अंधाधुंध उपयोग है।
भूजल स्तर
पंजाब में जल स्तर नीचे जाने का श्रेय हरित क्रांति के अंतर्गत धान की साल में तीन या चार फसलें लेने को जाता है। इस पारम्परिक तरीके में ट्यूबवेलों के द्वारा लगातार लगभग तीन महीनों तक खेतों में पानी भरने की जरूरत होती है।
इस पर नियंत्रण के लिए, 2009 में राज्य सरकार ने ‘पंजाब भूजल संरक्षण अधिनियम’ पारित किया, जिसमें किसानों को घोषित तारीख से पहले धान लगाने पर रोक है। कानून का उल्लंघन करने वाले किसानों को 10,000 रुपये प्रतिहेक्टेयर प्रति माह जुर्माना देना होगा।
एक पूर्व फोटोग्राफर और अब बाजीदपुर के अपने पैतृक खेतों में पूर्णकालिक खेती करने वाले, 27-वर्षीय नवीन पूनिया का कहना है – “लेकिन सरकार बिजली और पानी के बिलों पर अक्सर 100% सब्सिडी देकर भूजल के बेतहाशा दोहन को बढ़ावा देना जारी रखती है।”
इस बात से अच्छी तरह वाकिफ, कि राज्य के बाकी हिस्सों में हरित क्रांति किस तरह से पर्यावरण-तंत्र को प्रभावित कर रही है, अपने समुदाय के अन्य लोगों की तरह नवीन पूनिया ने, पंजाब भर में पाई जाने वाली पानी की ज्यादा खपत वाली संकर किस्मों की बजाय, जोन्ना नामक चावल की अपनी मूल किस्म उगाने का फैसला किया। वह भी साल में केवल एक बार, मानसून के करीब लगाई जाती है, जिससे भूजल पर उनकी निर्भरता कम हो जाती है।
वह कहते हैं – “यदि हमें कभी भूजल का उपयोग करने की जरूरत होती भी है, तो बाकी राज्य में जहां 140 फीट गहराई तक जाना पड़ता है, हमें केवल 30-40 फीट नीचे तक खुदाई करनी पड़ती है। इसके अलावा, उन्हें पानी निकालने के लिए डीजल या पन-बिजली जैसे बहुत से ईंधन की जरूरत पड़ती है।”
जलवायु परिवर्तन और अनियमित वर्षा के रुझान के चलते, इतनी गहराई पर भूजल की भरपाई होना असंभव हो सकता है। इसके अलावा, गहराई से निकाला गया पानी लवण से भरपूर होता है, जिससे मिट्टी की उर्वरता बुरी तरह प्रभावित होती है और पुराने पेड़ों को नुकसान पहुंचता है।
स्थानीय फसलें
बिश्नोइयों के लिए कपास एक महत्वपूर्ण फसल है। वे रासायनिक कीटनाशक इस्तेमाल किए बिना स्थानीय किस्म उगाना जारी रखते हैं। यह समुदाय घरों के छप्पर निर्माण में और खाना पकाने के लिए कपास के पौधे की सूखी लकड़ी का इस्तेमाल करता है। गांव में पराली जलाना सख्त मना है। हालांकि पैदावार कम होती है, फिर भी इसके लिए 50% ज्यादा कीमत मिलती है और संकर किस्मों में व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाला रासायनिक कीटनाशकों का इसमें बिलकुल उपयोग नहीं होता है।
किन्नू, सरसों, तिल, चना, मक्का और बाजरे जैसी फसलें, जिनमें पानी की जरूरत कम होती है, के साथ अंतर्फसल की पद्धति, बिश्नोइयों में नियमित रूप से जारी है। वे एक साथ कई फसलों की खेती से ज्यादा लाभ कमाते हैं और साथ ही इस प्रक्रिया में अपनी मिट्टी को समृद्ध बनाते हैं।
बहुत लाभदायक न होने के बावजूद, गाँव की स्थानीय अर्थव्यवस्था में सहयोग के उद्देश्य से समुदाय, नकदी फसलों की बजाय पारम्परिक फसलों को उगाना जारी रखे है। बाजीदपुर की एक बिश्नोई महिला, कलावती देवी (58) कहती हैं – “अगर हम धान जैसी गैर-स्थानीय फसलें उगाएं, तो इसका हमारे प्राकृतिक पर्यावरण-तंत्र पर खतरनाक प्रभाव पड़ेगा।”
देवी, जो अपने साथ के दूसरे जमींदार किसानों की तरह कपास की खेती के लिए स्थानीय महिलाओं को काम पर रखती हैं, कहती हैं – “हमें भी बिहार जैसे अन्य राज्यों के मजदूरों को भी काम पर रखना होगा, जो धान की खेती कर सकते हैं। तब हमारे समुदाय के वंचित लोग, विशेष रूप से महिलाएं, जो आजीविका के लिए खेत मजदूरी पर निर्भर हैं, पलायन के लिए मजबूर हो जाएंगे। हमारी सामाजिक व्यवस्था इसी तरह काम करती है।”
परम्परागत ज्ञान
ये टिकाऊ सामाजिक व्यवस्थाएं उन युवाओं द्वारा आगे बढ़ाई जा रही हैं, जो महामारी के दौरान घर से काम करने के लिए बाजिदपुर लौटे हैं। ये युवा पेशेवर, पारम्परिक ज्ञान को आजकल के हस्तक्षेपों के साथ जोड़ रहे हैं, जिससे पानी और प्रयास की बचत होती है।
वे वैसी अंतर-फसल पद्धतियां विकसित कर रहे हैं, जिनसे मिट्टी का बेहतर उपयोग होगा और ज्यादा मुनाफा प्राप्त होगा। मार्च 2020 से बाजिदपुर से दूर से काम कर रहे सॉफ्टवेयर इंजीनियर, 36-वर्षीय पुनीत पूनिया अंतर्फसल के माध्यम से ब्रोकली, चुकंदर और आलू बुखारे की खेती में प्रयोग करने में सफल रहे हैं।
पुनीत पूनिया कहते हैं – “हम सरकार से खेती के लिए मिले पानी को जमा करने की कोशिश करते हैं और अपनी फसलों को इस तरह से घुमाते हैं कि अतिरिक्त भूजल का इस्तेमाल ही न हो। पानी को संरक्षित करने के लिए, जहां भी जरूरी हुआ, हमने ड्रिप सिंचाई अपनाई।
लौट कर आए दूसरे युवाओं की तरह, पुनीत पूनिया अभिनव तरीकों के माध्यम से, बिश्नोई समुदाय के टिकाऊ पद्धतियों को जारी रखने के इच्छुक हैं। वह कहते हैं – “भूजल में गिरावट के साथ-साथ, इसकी गुणवत्ता में भी गिरावट आई है। इसलिए हमने पीने के लिए वर्षा के पानी को संरक्षित करने के लिए, भूमिगत टैंक बनाने शुरू कर दिए हैं। इनमें से कुछ टिकाऊ पद्धतियों के लिए, सरकार सब्सिडी प्रदान कर रही है।”
कटी हुई फसलों को लंबे समय तक रखने के लिए, गाँव के ज्यादातर घरों में तापमान को प्राकृतिक रूप से बनाए रखने और कीट नियंत्रण प्रणाली वाली पारम्परिक भंडारण सुविधाएं हैं। इस प्रकार समुदाय को बिचौलियों द्वारा निर्धारित मांग की कीमतों पर बेचने की बजाय, अपनी फसलों को लम्बे समय तक रखने की क्षमता भी प्राप्त होती है।
जैसे-जैसे समुदाय संसाधन संरक्षण पर केंद्रित पद्धतियों के साथ आगे बढ़ता है, उन पारम्परिक फसलों के लिए बाजार से जुड़ाव की कमी एक चुनौती बनी रहती है, जिन्हें सरकार द्वारा नकदी फसलों के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया जाता है।
मणि महेश अरोड़ा उत्तराखंड में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
यह लेख पहली बार ‘101 Reporters’ में प्रकाशित हुआ था। मूल कहानी यहां पढ़ी जा सकती है।
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