बाजार और सरकार द्वारा की गई गृह बीमा की अनदेखी

प्राकृतिक आपदाएं भारत को महंगी पड़ी हैं। इसका जवाब गृह बीमा हो सकता है, फिर भी यह बेहद कम संख्या में लिए जा रहे हैं। तरकीब को कौन नहीं देख पा रहा है - घर के मालिक, बीमा उद्योग या सरकार?

केरल और उत्तराखंड दो अलग-अलग राज्य हैं, जो एक ही दुश्मन से जूझ रहे हैं – भारी बारिश और घातक भूस्खलन। जैसे-जैसे मरने वालों की संख्या बढ़ती है, पानी के बहाव में घर भी बह जाते हैं।

भारत में जलवायु परिवर्तन की बदौलत, बेहद खराब मौसम की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, भारत का लगभग 60% भूभाग भूकंप-संवेदी है, 10% से ज्यादा के बाढ़ से ग्रस्त होने की संभावना है और समुद्र तट के 76% के चक्रवात और सूनामी की चपेट में आने की संभावना है।

नागरिक अशांति और दंगों से भी घर और आजीविकाएं नष्ट हुए हैं। प्रभावित परिवारों और सम्बंधित राज्यों, दोनों को इस तरह की त्रासदियों के बाद खंडित घरों और समुदायों के पुनर्निर्माण के लिए भारी प्रयास और धन खर्च करने की जरूरत होती है।

तो सरकारें तो छोड़िये, क्यों केवल चंद लोग गृह बीमा लेते हैं? आकर्षक मूल्य वाले, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वालों आवश्यकताओं को खास तौर पर पूरा करने के लिए तैयार बीमे, किसी आपदा के बाद परिवारों को आर्थिक बर्बादी से बचा सकते हैं।

फिर भी, भारत में बीमा की संख्या बेहद कम है और ग्रामीण क्षेत्रों में तो लगभग न के बराबर है। भारत के 1.3 अरब लोगों में से मुश्किल से 4% लोगों के पास जीवन बीमा पॉलिसी है, जबकि स्वास्थ्य या गृह बीमा जैसे दूसरी प्रकार के कवर की सदस्यता लेने वाले लोग 1% से भी कम हैं।

गृहस्वामी की हिचक

सबसे बड़े कारणों में से एक है सामर्थ्य, जिसके कारण ग्रामीण भारत में लोग बीमा कम लेते हैं, जिनका एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करता है। संसाधन सीमित होने के कारण, ग्रामीण गरीब बीमा प्रीमियम के भुगतान की बजाय, बुनियादी जरूरतों की पूर्ती पर खर्च को प्राथमिकता देते हैं।

प्राकृतिक आपदाओं के बाद ग्रामीण गरीब, पूरी तरह से सरकारी सहायता पर निर्भर रहते हैं (फोटो – पारिज फोटोग्राफी, पेक्सल्स के सौजन्य से)

भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (IRDAI) के पूर्व सदस्य, नीलेश साठे कहते हैं – “आमतौर पर, कम प्रति-व्यक्ति आय वाले देशों में, बीमा पैठ कम है। सरकार को सकल घरेलू उत्पाद और समग्र समृद्धि के स्तर को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, ताकि ग्रामीण लोगों के पास बीमा आपदाओं के समय सुरक्षा प्रदान करने वाले उत्पादों को खरीदने लायक अतिरिक्त आय हो।”

यहां तक ​​जो लोग बीमा लेने में समर्थ हैं, उनके लिए भी विभिन्न बीमा पॉलिसियों और प्रक्रियाओं के बारे में रुचि, जागरूकता और जानकारी की आमतौर पर कमी, एक स्थायी समस्या है।

हाल के वर्षों में, ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों के गृह-ऋण में बीमा कवर शामिल होने के बावजूद, ज्यादातर लोग ऋण चुकाने के बाद बीमे का नवीनीकरण नहीं करते।

विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक, संजीव फणसळकर ने ‘विलेज स्क्वायर’ के एक संपादकीय में लिखते हैं – “यह व्यवहार भारत के लिए अनोखा नहीं है। कुछ मायनों में, सरकार के आपदा-राहत पैकेज बीमा के विकल्प के रूप में काम करते हैं।”

समस्या में सरकार का हिस्सा  

लेकिन गृह-बीमा की मांग और आपूर्ति, दोनों में यह एक बड़ी बाधा है। अपने धन का उपयोग अपने मतदाता आधार को संतुष्ट करने के लिए मुआवजे के रूप में कर सकती है, इसलिए सरकार को बीमा कंपनियों को प्रीमियम का बड़ा भुगतान करने में कोई आर्थिक या राजनीतिक लाभ नहीं दिखता।

भूस्खलन और बाढ़, जैसी केरल में के.पी. जेबी के दो मंजिला घर को बहा ले गई, आम होती  जा रही हैं। 

साठे का कहना है – “यह एक दुष्चक्र है। भारतीय बाहरी सहायता के आदी हैं। ऐसा करने में सरकार भी खुश होती है, क्योंकि इस तरह की घटना मतदाताओं के प्रति अपनी उदारता दिखाने का एक मौका होता है। ग्रामीण बाजारों में बीमा क्षेत्र के विकास के लिए, इसे बंद होना चाहिए।”

मई 2020 में, बीमा सुरक्षा के माध्यम से आपदा जोखिम वित्तपोषण का विकल्प चुनने वाला नागालैंड पहला राज्य बना। नागालैंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NSDMA) ने मानसून बीमा सुरक्षा के लिए, ‘स्विस रे’ और ‘टाटा एआईजी जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड’ के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। किसी दूसरे राज्य ने इसका अनुसरण नहीं किया है।

‘श्रीराम जनरल इंश्योरेंस लिमिटेड’ के अध्यक्ष, आफताब अल्वी जोर देकर कहते हैं – “भारत जैसे विकासशील देश में, जहां गरीब सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं, सरकार को इसमें शामिल होने और योगदान करने की जरूरत है। लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि बीमा उनके लिए भी फायदेमंद क्यों है। यह सरकार और बीमा कंपनियों का एक संयुक्त, दीर्घकालिक प्रयास होना चाहिए।”

अनिच्छुक बीमा विक्रेता

जनता और सरकार के कम उत्साह के कारण, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ग्रामीण भारत में बीमा कंपनियों की उपस्थिति और वितरण नेटवर्क सीमित है और इसकी बजाय वे बढ़ते शहरी मध्यम वर्ग के उपभोक्ता आधार पर ध्यान केंद्रित करती हैं।

बाढ़ जैसी चरम मौसम की घटनाओं की बढ़ती संख्या ग्रामीण गृह बीमा की जरूरत को दर्शाती है (फोटो – हंस, पिक्साबे के सौजन्य से)

ऑनलाइन संसाधन भी हिंदी या अंग्रेजी में हैं, जिससे भाषा संबंधी बाधा पैदा होती है। ग्रामीण बाजार में विश्वास का अभाव भी बना रहता है, जो ऐसे संविदा लेन देन के लिए, शहरी उपभोक्ता से काफी अलग, आपसी संबंधों पर पनपती है।

महत्वपूर्ण रूप से, घरों को नुकसान पहुंचा सकने वाली आपदाएं, ऐसे जोखिम पैदा करती हैं, जिनके बीमे की विविधता शामिल नहीं की जा सकती। गृह बीमा उत्पाद तभी लाभदायक होगा, जब कुछ लोगों को मुआवजा देने के बदले, निश्चित संख्या में लोग बीमे का प्रीमियम देते रहें और उन्हें भुगतान की जरूरत न पड़े। उदाहरण के लिए, 100 गृह मालिकों को आपदा की स्थिति में मुआवजा देने के लिए, ऐसे 1,000 गृह मालिक हों, जो प्रीमियम तो भरें, लेकिन उन्हें मुआवजा न लेना पड़े। इस प्रकार, एक कम्पनी के लिए उत्तराखंड के पहाड़ों पर किसी कस्बे के घरों का बीमा करना अच्छा व्यवसाय नहीं होगा, यदि बिना भूस्खलन के खतरे वाले इंदौर जैसे स्थान के लोग भी घरों का बीमा न करवाएं।

ग्रामीण जनता की खास जरूरतों को पूरा करने वाले खास समाधानों के लिए, अलग सोच की जरूरत होती है, जो वर्तमान में एक ऐसे उद्योग में दिखती नहीं, जो जोखिम के प्रति आमतौर पर अनिच्छुक है। सीधी बात यह है कि कम लागत वाले बीमा उत्पाद इसका उत्तर हो सकते हैं।

 फणसळकर का सवाल है – “प्रश्न यह है कि क्या हम शुतुरमुर्ग हैं, जो खतरे को नजरअंदाज करके अपने सिर रेत में डाल लेते हैं या एक आपदा में अपने घर नष्ट हो जाने पर, माई-बाप सरकार के सामने जाकर हाथ फैलाएंगे?”

आफरीन किदवई एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।