छोटी सरसों में बड़ा पैसा
असम के बाढ़ और कटाव से ग्रस्त नदी-द्वीप, माजुली में लगभग 3,000 किसान और वापिस लौटे प्रवासी, जलवायु के प्रति सहनशील सरसों उगाकर लाभ उठा रहे हैं।
असम के बाढ़ और कटाव से ग्रस्त नदी-द्वीप, माजुली में लगभग 3,000 किसान और वापिस लौटे प्रवासी, जलवायु के प्रति सहनशील सरसों उगाकर लाभ उठा रहे हैं।
असम के भीतरी इलाकों में, ब्रह्मपुत्र नदी के बीच माजुली द्वीप की यात्रा करने वालों का स्वागत पीले रंग का सागर करता है। सैकड़ों एकड़ में सरसों की फसल लहलहा रही है।
चमकते पीले खेत सिर्फ सुंदर ही नहीं हैं, बल्कि लाभदायक भी हैं। यह उन बहुत से लोगों के लिए एक उज्ज्वल जीवन रेखा है, जिन्हें नौकरी की तलाश में द्वीप से कहीं और पलायन करना पड़ता था।
28 वर्षीय देबजीत कुटुम ने केरल में एक ऑक्सीजन प्लांट में काम करने के लिए असम छोड़ दिया था। वह माजुली के उन कई युवाओं में से एक हैं, जो नौकरी के लिए दूसरे राज्यों में गए थे, लेकिन लॉकडाउन के दौरान उन्हें लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा।
कुटुम कहते हैं – “महामारी हमारे लिए भेष बदल कर आए एक आशीर्वाद की तरह थी, क्योंकि हमने वर्षों से सरसों की उपेक्षा की थी और माजुली के बाहर बेहतर खुशियां ढूंढ रहे थे। लेकिन जब यह फसल हमें अच्छी आमदनी दे सकती है, तो अपने परिवारों को छोड़कर दूर देश में कमाने जाने का क्या फायदा?”
आशा के बीज
एक सरकारी योजना की बदौलत, सैकड़ों किसानों को जलवायु-अनुकूल सरसों के बीज दिए जाते हैं।
माजुली के उप-मंडल कृषि अधिकारी, इरशाद अली कहते हैं – “साल में 5 से 6 महीने, द्वीप बाढ़ग्रस्त रहता है, जिसमें सब्जियों की फसलें बह जाती हैं। किसानों द्वारा उगाए जाने वाले बाढ़-प्रतिरोधी धान की तरह, हमने बदलते मौसम के लिए उपयुक्त सरसों के बीज प्रदान किए हैं।”
सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए उपयुक्त बीजों से सरसों उगाने वाले किसानों का मुनाफा बढ़ा है।
जिला कृषि विभाग के अनुसार, माजुली में अब सरसों की खेती में 1,200 महिलाओं सहित लगभग 3,400 किसान लगे हैं। किसानों को द्वीप पर प्रकट हो गई बहुत सी तेल मिलों से अच्छी कीमत मिलती है।
लगभग 9,000 हेक्टेयर भूमि में सरसों की खेती हो रही है और इसमें प्रति हेक्टेयर उत्पादन लगभग 30 क्विंटल है।
इस फसल ने बढ़ते हुए बाढ़ के प्रकोप और भूमि कटाव से ग्रस्त द्वीप को आशा की एक किरण दी है।
सिकुड़ता द्वीप
माजुली दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है, जिसका क्षेत्रफल लगभग 553 वर्ग किलोमीटर है और आबादी लगभग 400,000 है। यह द्वीप अपनी प्राकृतिक सुंदरता और 500 साल पुराने वैष्णव मठों के कारण, दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित करता है।
लेकिन ब्रह्मपुत्र नदी, जिसे “असम का शोक” भी कहा जाता है, ने पिछले पांच दशकों में माजुली का आधा हिस्सा निगल लिया है, जिससे हजारों लोग बेघर हो गए हैं और उन्हें आजीविका के लिए दूर स्थानों पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
कुटुम उन 50 युवाओं में से एक है, जो माजुली लौट आए हैं और बेकार पड़ी अपनी लगभग 100 एकड़ पैतृक जमीन को सरसों के खेतों में बदल चुके हैं।
प्रत्येक ने अपनी बचत से एक छोटी राशि का योगदान दिया और बंजर भूमि को सरसों के खेत में बदलने के लिए कृषि मशीनरी खरीदी। वे फरवरी में फसल काटेंगे और उन्हें अच्छे लाभ की उम्मीद है।
कुटुम कहते हैं – “हम उपज को बेचकर सामूहिक रूप से 40-45 लाख रुपये कमाने की उम्मीद करते हैं और हमें पहले ही तेल मिलों से ऑर्डर मिल चुके हैं। यहां 25 सरसों के तेल की मिलें हैं।”
अधिकांश युवाओं ने अब स्थायी रूप से माजुली में रहने और खेती से जीवन यापन करने का फैसला किया है।
कुटुम ने कहा – “हम साल के बाकी दिनों में घरेलू खपत के लिए, धान और सब्जियों जैसी दूसरी फसलें भी उगा सकते हैं।”
जानकारी का प्रसार
हेमंत शर्मा लंबे समय से सरसों उगाने के फायदों के बारे में जानते हैं और उन्होंने कभी भी आजीविका की तलाश में द्वीप से पलायन करने पर विचार नहीं किया।
40-वर्षीय शर्मा कहते हैं – “मेरी लगभग 8 बीघा जमीन है, जिसमें मैं सरसों उगाता हूँ और आमदनी मेरे परिवार को चलाने के लिए काफी है। फसल को श्रम और पानी की कम जरूरत होती है।”
अली कहते हैं – “सरसों की खेती के लिए सर्दी एकदम सही है। हम किसानों को बेहतर गुणवत्ता वाली फसलें उगाने और पानी और मजदूरी बचाने के लिए प्रशिक्षण भी देते हैं। लागत कम होने से उन्हें लाभ ज्यादा मिलता है। इसलिए अब स्थानीय लोग सरसों उगाने में रुचि रखते हैं।”
यह बात जीत मणि देवी अच्छी तरह से जानती हैं।
39-वर्षीय देवी के पति का पिछले साल महामारी के कारण हुए लॉकडाउन में देहांत हो गया था। उनकी बीमारी का पता चलने के कुछ महीनों के भीतर ही उनका निधन हो गया और उन्होंने अपने दुःख के बीच, किसी तरह उनका अंतिम संस्कार किया।
माजुली जिले के सुदूर मोहकिना गांव में रहने वाली विधवा ने पति की मौत के बाद खुद को दोराहे पर पाया।
सरसों की खेती ने उसे अपने जीवन के कठिन दौर से गुजरने में मदद की।
उन्होंने रुंधे हुए गले से कहा – “मैं घर के काम खत्म करने के बाद खेत में अपने पति की मदद करती थी। उनकी अचानक मृत्यु से घर के गुजारे और अपने दो नाबालिग बच्चों, एक बेटे और एक बेटी की परवरिश की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई।”
लेकिन देवी खुद को भाग्यशाली मानती हैं, क्योंकि वह नदी के प्रकोप से दूर द्वीप के भीतरी इलाकों में रहती हैं।
देवी कहती हैं – “मैंने सरसों उगाने का फैसला किया, क्योंकि यह एक नकदी फसल है और इससे अच्छा फायदा होता है। मुझे चार बीघे से 16 क्विंटल सरसों प्राप्त हुई और जो मैंने 4,000 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से द्वीप की तेल मिलों को बेच दी।”
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।
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