एक युवा महिला द्वारा अपने कढ़ाई के कौशल को अच्छे उपयोग में लाने के विचार ने, एक फैशन ब्रांड बना दिया, जिसने 22000 ग्रामीण कारीगरों को रोजगार दिया और यहाँ तक कि झटपट ऑनलाइन स्टोर स्थापित करके महामारी का सामना भी किया।
रंगीन कपड़ों, वस्त्र, घरेलू साज-सामान और सामग्री पर बेहतरीन कढ़ाई और टंकाई, रेगिस्तानी राज्य, राजस्थान की विशिष्ट शैली का रूप दे देती है।
ऑनलाइन प्रदर्शित की जाने वाली प्रत्येक रचना में बनाने वाले के बारे में जानकारी भी होती है। ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर, धूल भरी बस्ती की डिजाइनर, रूमा देवी का नाम है।
उनका सिर उनकी ओढ़नी से ढका रहता है। यह एक ऐसा रिवाज है, जिसे वह छोड़ने को तैयार नहीं है। बाड़मेर जिले की पहली फैशन डिजाइनर होने के बावजूद, लोकप्रिय हो चुकी 32-वर्षीय रूमा देवी अपनी पारम्परिक पोशाक, लहंगा और चोली को कभी नहीं छोड़ सकती हैं।
रेगिस्तान के बंजर, भूरे रंग के विस्तार के रेत के टीलों से प्रेरणा प्रेरणा लेने के बावजूद, वह अपनी रचनाओं में खुशियों के रंग भर देती हैं और इस प्रक्रिया में हजारों महिलाओं को आजीविका कमाने में मदद करती हैं।
कशीदाकारी का शौक
चार साल की उम्र में अपनी मां को खोने के बाद, रूमा देवी अपनी दादी को चादर, रजाई और कपड़ों पर अनूठी ‘बाड़मेरी कढ़ाई’ करते देखते हुए बड़ी हुईं। उसने देखा कि कैसे साधारण, रंगीन धागे के काम से मामूली कपड़े का टुकड़ा चमक सकता है।
सिर्फ उनकी दादी ही नहीं, बल्कि ‘थार रेगिस्तान’ के बाड़मेर जिले के उनके गांव की लगभग हर महिला के पास ऐसा ही कौशल था।
स्वाभाविक रूप से, सिलाई और कढ़ाई रूमा का शौक बन गया। फिर अपनी किशोरावस्था के आखिर में, उसने अपने पहले बच्चे को खोने के दर्द को कम करने के लिए सिलाई करना शुरू कर दिया।
जब वह सिलाई से आगे बढ़कर डिजाइनिंग तक पहुंची, तो रूमा देवी ने महसूस किया कि वह अपने कौशल का लाभप्रद उपयोग कर सकती हैं।
लगन का फल मिला
धीरे-धीरे उनके द्वारा डिजाइन किए गए सामान को बेचने का विचार आकार लेने लगा। वह जानती थी कि अपनी योजना को पूरा करने के लिए, उन्हें और महिलाओं को शामिल करना होगा और एक समूह बनाना होगा। उन्होंने पैसे जमा किए और एक सेकेंड हैंड मशीन खरीदी।
उनका परिवार इस बात पर दंग था कि वह छोटे बैग जैसे घरेलू इस्तेमाल के लिए पारम्परिक रूप से सिली वस्तुओं को बेचना चाहती थी। लेकिन उन्हें मनाने के बाद, रूमा देवी ने 2006 में बैग बेचने से शुरुआत की।
वह बाड़मेर शहर गई और ग्रामीण कारीगरों के साथ काम करने वाली संस्था, ‘ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान (जीवीसीएस)’ के सचिव, विक्रम सिंह से संपर्क किया।
वह याद करती हैं – “शुरू में उन्होंने मुझे कोई ऑर्डर नहीं दिया। लेकिन मेरी दृढ़ता रंग लाई। उनसे मिले पहले ऑर्डर के बाद से मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।”
रूमा देवी के साथ अभी भी काम करने वाले, सिंह कहते हैं – “वह एक छोटी सी ढाणी (बस्ती) से थीं, जहां महिलाएं पर्दे में रहती हैं और अपनी राय देने से हिचकिचाती हैं। फिर भी उन्हें अपने और अपने उत्पादों पर पूरा भरोसा था।”
उन्होंने कुछ ही समय में 500 नग का अपना पहला ऑर्डर पूरा कर लिया और फिर से ऑर्डर के लिए वापिस आ गई।
सिंह कहते हैं – “2006 के समय में, इन ऑर्डर से उन्होंने महिलाओं को कम से कम 600 रुपये महीना कमाने में मदद की।”
महिलाओं की सूई-शक्ति
बाद में रूमा देवी जीवीसीएस में शामिल हो गईं और चिलचिलाती गर्मी या कड़ाके की ठण्ड की परवाह किए बिना गांवों में जा कर महिला कारीगरों के समूह बनाए। उन्होंने महिलाओं से अपने कौशल को इस्तेमाल करने और पैसा कमाने का आग्रह किया, हालाँकि उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया और गांव की महिलाओं को बिगाड़ने का आरोप लगाया गया।
उन्होंने परवाह नहीं की और धीरे-धीरे उन्होंने महिलाओं को एकजुट कर लिया।
रेगिस्तान में कृषि या निर्माण कार्य में मजदूरी की कोई गुंजाइश नहीं होने के कारण, एक प्रवासी विधवा, सुगती देवी (46) को अपने तीन बच्चों को पालने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था। उनका कहना था कि कम घनी आबादी के कारण, वह घरेलू नौकरानी का काम भी नहीं कर सकती थी।
सुगती देवी कहती हैं – “मैं सिर्फ सिलाई करना जानती थी, क्योंकि यह हमारी परम्परा का हिस्सा है। जब रूमा ने मुझसे संपर्क किया और घर पर ही मुझे काम दिया, तो यह स्वर्ग से आए आशीर्वाद जैसा था।”
वह 7,000 से 12,000 रुपये महीना कमाती हैं।
“मैं अपने बच्चों को पढ़ा सकती हूँ। मेरा बड़ा बेटा अब नौकरी लग चुका है और छोटे बच्चे स्कूल में हैं।”
सुगती देवी की तरह, बाड़मेर के छोटे गांवों की 22,000 महिलाएं, रूमा देवी के लिए काम करती हैं, पैसा, सम्मान और स्वतंत्रता पाने के लिए उत्सुक, जो अभी भी रेगिस्तान के इन हिस्सों में अकल्पनीय है।
‘रैंप वॉक’ करती ग्रामीण कारीगर
महिलाओं के काम को पूरे भारत में होने वाली प्रदर्शनियों में पहचान मिली।
लेकिन जब रूमा देवी दिल्ली में हुए एक रैंप शो से मुग्ध हो गईं और उन्होंने उसमें भाग लेने की इच्छा जताई, तो आयोजकों ने उन्हें असल में ही दूर भगा दिया। उन्होंने एक दिन रैंप पर अपने उत्पादों का प्रदर्शन करने की कसम खाई।
2016 में उन्होंने जयपुर के ‘राजस्थान हेरिटेज वीक फेस्टिवल’ में अधिकारियों को उन्हें एक शो देने के लिए राजी किया। अगले साल जयपुर के ही ‘राजस्थान दिवस समारोह’ में, उनके संग्रह ‘हैंडमेड इन राजस्थान – ए ट्रिब्यूट तो बाड़मेर’ (राजस्थान में हाथ से बने – बाड़मेर को श्रद्धांजलि) के नाम से महिला कारीगरों ने रैंप वॉक किया।
रूमा देवी याद करती हैं – “शो बहुत कामयाब रहा।”
वह कहती हैं – “महिलाओं के असाधारण उत्साह ने मुझे काम जारी रखने और इसका विस्तार करने का विश्वास दिलाया। फैशन डिजाइनर मेरे दरवाजे पर आते हैं और मेरे पास अपनी साथी महिलाओं को देने के लिए काफी काम है।”
महिला कारीगरों ने डिजिटल दुनिया में तहलका मचाया
महिलाओं द्वारा कई उत्पादों की सिलाई और कढ़ाई के साथ, रूमा देवी ने जयपुर में अपना बुटीक खोल लिया। लेकिन जल्द ही महामारी ने उनका काम रोक दिया।
ऑनलाइन स्टोर खोलना ही एकमात्र रास्ता बचा था।
उन्होंने एडेलगिव (EdelGive) फाउंडेशन से संपर्क किया, जिन्होंने महिलाओं को ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म बनाने में मदद की। स्मार्ट फोन और डिजिटल साक्षरता कार्यशालाएं महिलाओं को डिजिटल दुनिया में विचरण (नेविगेट) करने में मदद करती हैं।
भंडार और सामान का ऑनलाइन प्रबंधन, पूरी टीम के लिए हर एक चीज़ नई थी। लेकिन कारीगर इसे कामयाब करने के लिए दृढ़संकल्प थी, क्योंकि उनके लिए यह एक प्रकार का सशक्तिकरण था।
ऑनलाइन स्टोर प्रत्येक उत्पाद को कारीगर से जोड़ता है, जिससे डिजाइनर उत्पाद को एक चेहरा प्राप्त होता है। महिलाओं ने सोशल मीडिया पर अपने उत्पादों की मार्केटिंग करना सीखा।
अब टीम हर हफ्ते नए उत्पाद जोड़ती है। वे रुझानों का विश्लेषण करने और उसके अनुसार उत्पाद बनाने में भी सक्षम हैं।
लेकिन फैशनेबल उत्पाद बनाते हुए भी, रूमा देवी और उनकी कारीगर हमेशा अपनी पारम्परिक पोशाक पहनते हैं। उनके लिए लहंगा और चोली ही उनकी पहचान है।
रूमा देवी कहती हैं – “हालांकि यह मुझे दूसरे फैशन डिजाइनरों में अलग स्थान देती है, लेकिन यह मुझे जमीन से जुड़े रहने में मदद करता है।”
राखी रॉयतालुकदार जयपुर, राजस्थान में स्थित एक पत्रकार हैं।
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