खेती करने वाले युवाओं का हुआ उत्साहवर्द्धन

सरकार द्वारा तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को रद्द करने के बाद, किसानों का साल भर से चल रहा आंदोलन समाप्त होने के साथ, किसान समुदायों के युवा, विशेष रूप से हरियाणा और पंजाब के युवा, आंदोलन की सफलता से उत्साहित महसूस करते हैं।

किसानों ने जब दिल्ली के बाहर बनाए अपने विरोध-स्थलों से अपने गांवों की ओर वापस जाते समय, ढोल की थाप पर नाचते हुए कूच किया तो वातावरण में उत्सव जैसा महसूस हो रहा था। वे तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरोध में एक साल से वहां डेरा डाले हुए थे। (पढ़ें: प्रदर्शनकारी किसान पीछे नहीं हटेंगे)

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर को तीन कानूनों को रद्द करने की घोषणा की थी, जिसके बाद सरकार ने 9 दिसंबर को किसानों की लगभग सभी दूसरी मांगे भी मान ली थी। इसके कारण आंदोलन के आयोजकों ने 378 दिनों तक चले आंदोलन को स्थगित कर दिया था।

आंदोलन में भाग लेने वाले युवाओं ने दावा किया कि सबसे ज्यादा फायदा उन्हें हुआ है।

आंदोलन में शामिल होने के लिए पटियाला में प्रोफेसर की अपनी नौकरी छोड़ने वाले 26-वर्षीय, हरजिंदर सिंह कहते हैं – “इसने हजारों युवाओं में संकल्प और दृढ़ता के बीज बोए हैं और उन्हें कभी हार न मानने की भावना से भर दिया है।”

उन्होंने कहा – “खुले आसमान के नीचे रहने वाले और कड़कड़ाती ठण्ड में सोने वाले हमारे बुजुर्गों के दृढ़ संकल्प ने हमें सबसे कठिन परिस्थितियों को झेलना सिखाया और वे पाठ सिखाए, जो किसी भी प्रबंधन स्कूल में पढ़ाए नहीं जा सकते।”

सिंह अकेले नहीं हैं। किसानों के संघर्ष में भाग लेने वाले, देश के विभिन्न हिस्सों के युवा भी ऐसा ही महसूस करते हैं।

आंदोलन में युवाओं की भूमिका

अपनी नौकरी छोड़ने वाले पटियाला के एक और प्रोफेसर, अमरिंदर सिंह कहते हैं – “हमने अपनी नौकरी छोड़ दी, क्योंकि हमें लगा कि हम पर वह चीज़ थोपी जा रही है, जिसकी हमें जरूरत नहीं है। हमारी रगों में किसान का खून है। हमारे लिए ऊंचा ओहदा शायद ही कोई मायने रखता है, क्योंकि मातृभूमि को बचाना हमारी पहली प्राथमिकता है। इस आंदोलन ने हमें एक नई ऊर्जा से भर दिया है और हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया है।”

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हरजिंदर सिंह और उनके युवा दोस्तों के लिए नौकरी छोड़ना आसान था, क्योंकि उनकी प्राथमिकता किसानों के अधिकार थी।

हरजिंदर सिंह और उनके युवा दोस्तों के लिए नौकरी छोड़ना आसान था, क्योंकि उनकी प्राथमिकता किसानों के अधिकार थी। 

विशेषज्ञों का कहना है कि यह अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी, कि क्या आंदोलन ने युवाओं की मानसिकता को बदल दिया है।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर, रमेश चंद्र मिश्रा कहते हैं – “किसानों का करो या मरो का साहस अनुकरणीय था, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि सुविधापूर्ण जीवन जीने वाले युवा ऐसी कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार हैं या नहीं। संघर्ष ने उनमें आग भर दी है, लेकिन समय बीतने के साथ यह बुझ सकती है। हमें इंतजार करना और देखना होगा।”

फिर भी, युवाओं की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता, क्योंकि अनपढ़ किसानों में कृषि कानूनों के बारे में जागरूकता पैदा करने का श्रेय उन्हें जाता है।

पंजाब के एक 33-वर्षीय किसान, प्रभजोत सिंह कहते हैं – “जब आंदोलन शुरू हुआ, कुछ निहित स्वार्थी तत्त्वों ने विवादास्पद कृषि कानूनों से अनजान, बुजुर्ग किसानों को निशाना बनाया और उन्हें आंदोलन को बदनाम करने वाले बयान देने के लिए उकसाया। हमने उन्हें कानूनों की बारीकियों के बारे में समझाया और आगे और नुकसान रोकने में कामयाब रहे।”

वे आंदोलन क्यों कर रहे थे?

किसान और युवा केंद्र सरकार द्वारा सितम्बर, 2020 में संसद में पारित, किसान उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम और मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अधिनियम पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौते का विरोध कर रहे थे।

सरकार के अनुसार, ये कानून मुक्त बाजार सुधारों के लिए थे। लेकिन किसानों का दावा था कि कानून बड़े उद्योगपतियों के पक्ष में थे। उन्हें डर था कि उन्हें सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी नहीं मिलेगी और इसका मतलब था कि उन्हें जो पहले से ही कम लाभ मिल रहा है, उसमें और कमी आएगी।

आंदोलनकारियों में ज्यादातर उत्तरी राज्यों, खासकर पंजाब और हरियाणा के किसान थे, क्योंकि वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सरकार को भारी मात्रा में चावल और गेहूं की आपूर्ति करते हैं, और इसलिए वे न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त करने को लेकर आश्वस्त हैं।

वर्ष 2021-22 के खरीफ मार्केटिंग सीजन (केएमएस) में, पंजाब ने 53% चावल की आपूर्ति की, जिसके बाद हरियाणा ने 16% और उत्तर प्रदेश ने 7% आपूर्ति की। केएमएस 2021-22 में, पंजाब ने लगभग 31% गेहूं की आपूर्ति की, मध्य प्रदेश ने 30% और हरियाणा ने 20%, जो इन राज्यों के किसानों द्वारा विरोध करने का कारण बनता है। हालांकि ये किसान भारत के कुल किसानों का केवल 6 प्रतिशत हैं।

काम की उपेक्षा नहीं हुई

अतिरिक्त रूप से किसानी करने वाले युवाओं ने, आंदोलन में भाग लेने के समय किसानों द्वारा अपने जिम्मेदारियों की अनदेखी करने की खबरों को गलत बताया।

किसानों ने समूह बनाए और बारी-बारी से खेती के काम करने और आंदोलन में भाग लेने का काम किया (फोटो – होपर्स स्टूडियो, अनस्प्लैश के सौजन्य से)

हरियाणा के सोनीपत से एक 28-वर्षीय किसान, धर्मपाल कहते हैं – “इस तरह के निराधार आरोपों के बारे में सुनकर हमें दुख हुआ। यह सच है कि शुरु में हमारे दिमाग में सिर्फ आंदोलन था। जब हमें अहसास हुआ कि आंदोलन लंबे समय तक चलेगा, तो हमने बारी बारी से आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया।”

किसानों ने सिंघू बॉर्डर के आंदोलन स्थल पर जाने के लिए छोटे-छोटे जत्थों का गठन किया, जबकि बाकी गांवों में रुके रहे और उन्होंने आंदोलन में भाग लेने वालों के खेतों की देखभाल की। “यह सब एक व्यवस्थित तरीके से हुआ, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि फसल का कोई नुकसान न हो और लाखों लोग भूखे न रहें।”

महिलाओं ने घर का मोर्चा संभाला

जब पुरुष एक साल से ज्यादा समय से दूर थे, तो यह महिलाओं पर निर्भर था कि वे न केवल घर को संभालें, बल्कि आमतौर पर खेतों की भी देखभाल करें।

पंजाब के पटियाला से, एक बच्ची की मां रमनदीप कौर (32) कहती हैं – “हम न सिर्फ फसलों को पानी देने के लिए खेतों में गए, बल्कि अपने घर के रोजमर्रा के कार्यों को भी संभाला, जैसे कि बुजुर्गों को डॉक्टरों के पास ले जाना और दूसरी समस्याओं को हल करना। जब हमारे पुरुष मुद्दों की लड़ाई के लिए बाहर थे, तो हम अपने पड़ोसियों के साथ परिवारों की तरह रहे और एक-दूसरे का ख्याल रखते थे।”

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किसान आंदोलन में बहुत कम महिला शामिल हुईं। ज्यादातर घर पर रहीं और यह सुनिश्चित किया कि उनकी खेती और घरेलू दिनचर्या हमेशा की तरह जारी रहे।

कुछ लोगों ने किसान आंदोलन को पितृसत्तात्मक रूप में देखा, क्योंकि आंदोलन में महिलाएँ बहुत कम दिखाई पड़ती थी, जबकि पुरुष अगुआई कर रहे थे। लेकिन बहुत सी पत्नियों को लगता है कि उनकी एक मूक लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका थी।

कौर कहती हैं – “हमारे बच्चे बीमार पड़ गए और उन्हें ईलाज की जरूरत थी, लेकिन हमने पुरुषों को कभी इसकी जानकारी नहीं दी, क्योंकि इससे उनपर आंदोलन को बीच में ही छोड़ने का दबाव पड़ सकता था।”

खेती की राजनीति

सरकार को उम्मीद है कि विवादास्पद कानूनों को रद्द करने से उन्हें राजनीतिक लाभ होगा।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता, उमेश राय कहते हैं – “देश का युवा जानता है कि उनके हित में कौन सबसे अच्छा काम करता है और किस कारण से सरकार ने कानूनों को निरस्त किया है। योजनाएं लोगों के कल्याण के लिए हैं, लेकिन कुछ निहित उद्देश्यों वाले लोग किसानों की स्थिति सुधारने के लिए लाए गए कानूनों को बदनाम करने में सफल रहे हैं।”

इस बीच, किसान संघों ने कहा कि वे किसान सम्बंधित कानून की निगरानी करना जारी रखेंगे।

भारतीय किसान यूनियन, हरियाणा के राज्य अध्यक्ष, रतन मान कहते हैं – “हमें नहीं लगता कि सरकार नाराज है, क्योंकि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपने अधिकार के लिए लड़ने का अधिकार है। यह सुनिश्चित करते हुए कि सरकार अपने वायदों को पूरा करे, हम सरकार के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखेंगे।”

हरजिंदर सिंह को लगता है कि यह आंदोलन पिछले आंदोलनों से बहुत अलग था, यह देखते हुए कि यह बहुत प्रभावशाली था।

अमरिंदर सिंह इसमें जोड़ते हुए कहते हैं – “हमने जीवन भर के लिए कई सबक सीखे हैं। हमारे बुजुर्ग हमारे लिए एक समृद्ध विरासत छोड़ रहे हैं, जिस पर आने वाली पीढ़ी को गर्व होगा। हम इस आंदोलन के प्रत्यक्ष गवाह बनकर खुश हैं, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा।

गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।