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“मैं जिंदगी के संघर्ष में हार नहीं मानना चाहती थी”

दूसरी बार लड़की को जन्म देने के कारण, 20 साल की उम्र में रामबाई दास को उनकी ससुराल के घर से निकाल दिया गया था। व्यक्तिगत नुकसान से दुखी होते हुए, वह दूसरों के तानों के बावजूद किसान बन गई। सफलता प्राप्त करके, अब वह अपनी बेटी के नर्स बनने का सपना देखती है।

मेरे पति और उनका पूरा परिवार मेरे खिलाफ गया थे

मैं 16 साल की थी, जब मेरे माता-पिता ने मेरी शादी कर दी। जब मैंने एक लड़की को जन्म दिया, तो जैसे कहर टूट पड़ा। मेरे पति और उनका पूरा परिवार मेरे खिलाफ हो गया।

जब उनके दुर्व्यवहार ने सारी हदें पार कर दी और मैं इसे सहन नहीं कर पाई, तो मैं अपने पति का घर छोड़ दिया।

हालांकि मामला अदालत तक चला गया था, लेकिन हमने सुलह कर ली। मैं अपने पति के घर इस उम्मीद के साथ लौट आई कि सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन नियति में कुछ ओर था।

जब 1999 में मैंने अपनी दूसरी बेटी को जन्म दिया, तो चीजें नियंत्रण से बाहर हो गईं और मुझे घर से निकाल दिया गया।

अपने माता-पिता के घर लौटना ही मेरा एकमात्र विकल्प था।

खेती

दुर्भाग्य ने फिर दस्तक दी, जब मेरी 9 साल की बड़ी बेटी दिमागी मलेरिया से बीमार पड़ गई। पैसे न होने के कारण, मैं उसे अच्छे अस्पताल में नहीं ले जा सकी। और मैंने उसे खो दिया।

जल्द ही मेरे पति का देहांत हो गया और किसी सुलह की मेरी उम्मीदें खत्म हो गईं।

मैं बेहद दुखी थी, पूरी तरह से बिखरी।

लेकिन मैं अपने दुःखों के आगे घुटने टेकना या भाग्य के आगे हथियार डालकर जिंदगी से हार मानना नहीं चाहती थी। मैंने अपनी दूसरी बेटी के लिए जीवन का सामना करने का फैसला किया, जो उस समय एक बच्ची थी।

मेरे दुःख और बढ़ गए, जब मेरे सौतेले पिता ने हमें छोड़ दिया और मेरे परिवार की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई। मैं दो वक्त का भोजन भी नहीं जुटा पा रही थी।

मैंने किसान बन जाने का फैसला कर लिया, क्योंकि मैं अपने माता-पिता के साथ खेत में काम किया करती थी।

खेती

मैंने खेती शुरू करने के लिए, 10,000 रुपये सालाना पट्टे पर 2.5 एकड़ जमीन ली। दयालु जमींदार ने मुझे साल के अंत में भुगतान करने की छूट दे दी।

अकेले खेती करना बहुत मुश्किल था, लेकिन मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था।

कई बार मुझे जमीन जोतने के लिए मजदूर नहीं मिलते थे। इसलिए मैंने अपने गहने बेच दिए और खेती जारी रखने के लिए एक मोटर से चलने वाला जुताई यंत्र खरीद लिया। यह मुश्किल था, लेकिन मैंने इसे चलाना सीख लिया।

अब मैं खेती से कमाई करती हूँ और दूसरों पर निर्भर नहीं हूँ।

मैं जुताई करती हूँ, कीटनाशकों का छिड़काव करती हूँ, बुआई करती हूँ और कटाई करती हूँ। मैं कटी हुई सब्जियों को अपनी साइकिल से बाजार ले जाती हूँ।

जिन पुरुष किसानों ने मुझ पर शुरू में ताने कसे थे, अब मेरा सम्मान करते हैं। मुझे खुशी है कि खेती की बदौलत मेरे लिए हालात बदल गए हैं।

मुझे कोई पछतावा नहीं है। जहां नियति ने मुझसे बहुत कुछ छीन लिया, वहीं उसने मुझे बहुत कुछ दिया भी, खासतौर पर साहस और आत्मविश्वास।

अब लोग मुझे खेती के मेरे अनुभव को साझा करने के लिए आमंत्रित करते हैं

अब लोग मुझे खेती के मेरे अनुभव को साझा करने के लिए आमंत्रित करते हैं। मुझे कई पुरस्कार मिले हैं, यहां तक कि हमारे मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री से भी।

लेकिन दुर्भाग्य से, मुझे अभी तक वह जमीन नहीं मिली है, जिसका उन्होंने वादा किया था।

एक सफल किसान के तौर पर हर कोई मेरी तारीफ करता है। लेकिन मुझे किसानों को मिलने वाला कोई सरकारी लाभ नहीं मिला है। मैं फसल बीमा भी नहीं करवा सकी, क्योंकि जमीन मेरी नहीं है।

मैं सब्जियां उगाती हूँ और खेती से लगभग 15,000 रुपये महीना कमाती हूँ।

मैं अपनी विधवा मां का भी ख्याल रखती हूँ।

मुझे खुशी है कि मैं अपनी बेटी को एक अच्छा जीवन दे सकी। यहां तक कि वह एक नर्सिंग कोर्स भी कर रही है।

मेरा एक ही सपना है कि मैं उसे लोगों की सेवा करते हुए देखूं। और तब मैं संतुष्ट हो सकूंगी कि मैं एक सफल मां भी हूं।

विकास, संघर्ष, लिंग, स्वास्थ्य और शिक्षा पर लिखने वाली, भुवनेश्वर स्थित पत्रकार शारदा लहंगीर द्वारा रिपोर्ट। छायाकार – आदित्य रोमांसा (अनस्प्लैश), महेंद्र साहू और शारदा लहंगीर।