बंजर भूमि को हरी भरी बनाते – बिहार के ‘अमरूद-गुरू’

भारत के 'पहाड़-पुरुष (माउंटेन मैन)’' की प्रेरणादायक सलाह की बदौलत, कभी ‘गुरूजी’ पुकारे जाने वाले एक शिक्षक, सत्येंद्र मांझी अब बंजर भूमि को अमरूद के बागों में बदल रहे हैं।

कभी दक्षिणी बिहार की ज्यादातर सूखी रहने वाली ‘फाल्गु’ नदी के बीच पड़ा एक बंजर द्वीप अब सुखद रूप से ठंडा है और इसकी हवा में अमरूद की विशिष्ट सुगंध लिए हरा-भरा बाग है।

यह परिवर्तन बिहार के अमरूद गुरू, सत्येंद्र गौतम मांझी की कड़ी मेहनत और दृढ़ता की बदौलत है, जो अब बिहार में बंजर भूमि के और ज्यादा क्षेत्रों को सुधारने के मिशन पर हैं।

अमरूद गुरू के प्रेरणा श्रोत: भारत का ‘पहाड़-पुरुष’

लेकिन भारत का प्रसिद्ध ‘पहाड़ पुरुष’, एक और मांझी, इनकी मूल प्रेरणा थी।

दशरथ मांझी ने 1959 में अपनी पत्नी को खो दिया था, जब वह बीमार थी और वे समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सके, क्योंकि बीच में पहाड़ होने के कारण उन्हें घूम कर जाना पड़ता था। उसे एक प्रेमपूर्ण श्रद्धांजलि के रूप में, मजदूर दशरथ मांझी ने अकेले ही 22 साल हथोड़े और छेनी से पहाड़ को काटकर उसमें से सड़क बनाने में लगाए।

पड़ोस ही में रहने वाले सत्येंद्र गौतम मांझी ने एक दिन इन बुजुर्ग से मुलाकात की।

बंजर भूमि सुधार की पहाड़-पुरुष की सलाह

उन्हें वह दिन आज भी याद है, जब पहाड़-पुरुष ने सलाह दी थी कि वह नदी के बंजर द्वीप को हरे-भरे क्षेत्र में बदल दे। सूखा प्रभावित गया जिले में एक यह काम मुश्किल है।

सत्येंद्र मांझी याद करते हैं – “जब मैंने कहा कि यहां पौध नहीं बचेगी, तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा कि मुझे समर्पण के साथ प्रयास करना चाहिए।”

बंजर भूमि में रेत के अलावा कुछ नहीं था। फिर मांझी को खेती का कोई वास्तविक अनुभव भी नहीं था।

उस जगह मौजूद अमरूद का बाग, जो कभी बंजर भूमि थी
उस जगह मौजूद अमरूद का बाग, जो कभी बंजर भूमि थी (छायाकार – कैनवा के सौजन्य से)

फिर भी उन्होंने पहाड़-पुरुष की बात पर अमल किया।

2005 में मांझी ने अमरूद का पौधरोपण शुरू कर दिया, क्योंकि यह तेजी से बढ़ता है, इसे पानी और रखरखाव की जरूरत कम होती है, और इस पर फल जल्दी आता है।

लेकिन उन्होंने इस काम को चुनौतीपूर्ण पाया, खासकर गर्मियों के लम्बे और गर्म मौसम में, जब पानी की कमी होती थी।

वह याद करते हैं – “कठोर गर्मी में, पानी की कमी के कारण पौधे सूखने और मरने लगे। सिंचाई एक चुनौती थी, जिसका कोई नजदीकी स्रोत नहीं था। जमीन के पास से जाने वाला नाला सूखा था।

अनुभवहीन व्यक्ति ने कैसे बंजर भूमि को सुधार दिया

गांव वालों ने उन पर ताने कसे, उसे पागल कहा।

लेकिन मांझी ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया।

रेतीली जमीन से खोद कर पानी निकालने के कई प्रयास असफल होने के बाद, मांझी ने एक किलोमीटर दूर अपने गांव इमलियाचक से पानी लाना शुरू कर दिया।

वह याद करते हैं – “भोर के समय, जब ज्यादातर लोग सो रहे होते थे, हम बार-बार पानी लेने के लिए आ जा रहे थे।”

रोज बिना रुके दो से तीन घंटे, मांझी प्लास्टिक के दो बड़े बर्तनों में अपने कंधे पर पानी ले जाते और उनकी पत्नी पानी से भरे बर्तन अपने सिर पर ढोती थी।

उनकी पत्नी चट्टिया देवी याद करते हुए बताती हैं – “सिर पर पानी के बर्तन के साथ चलने से मुझे, मेरी गर्दन और सिर में दर्द हो गया।”

लेकिन मांझी का समर्पण देखकर, उन्होंने भी जोर लगाया।

एक गुरु, जो बंजर भूमि से अमरूद उगाकर रोजी-रोटी कमाता है

मांझी मुसहर समुदाय से हैं, जो दलितों में सबसे ज्यादा हाशिए पर हैं। उनके गांव के ज्यादातर मुसहर और दूसरे दलित भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं।

अपनी किशोरावस्था में, 10वीं कक्षा पास करने से पहले, मांझी अपने गरीब परिवार को सहयोग करने के लिए एक मजदूर के रूप में काम भी करते थे।

वह एक ‘टोला सेवक’ (ग्राम स्वयंसेवक) थे और फिर दलित समुदायों के कार्यक्रमों की निगरानी के लिए सरकार द्वारा एक विकास सहायक के रूप में नियुक्त कर दिए गए।

लेकिन स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने अपने और आसपास के गांवों के गरीब छात्रों को पढ़ाकर आजीविका कमानी शुरू की, जिससे ‘गुरुजी’ कहा जाने लगा।

लेकिन अब 40 एकड़ में फैल चुका अमरूद का वह बाग ही है, जिससे उन्हें आर्थिक सफलता मिली।

हाल के वर्षों में मानसून के दौरान नदी द्वारा मिट्टी जमा करने से, भूमि उपजाऊ हो गई है।

उन्होंने एक ट्यूबवेल भी लगा लिया है।

मांझी अब अपने परिवार के लिए गेहूं, आलू, प्याज और सब्जियां भी उगा पा रहे हैं।

हालांकि अमरूद की खेती उनकी आजीविका है, लेकिन मांझी अपने परिवार के उपयोग के लिए दूसरी फसलें उगाते हैं
हालांकि अमरूद की खेती उनकी आजीविका है, लेकिन मांझी अपने परिवार के उपयोग के लिए दूसरी फसलें उगाते हैं (छायाकार – मोहम्मद इमरान खान)

उनका कहना है – “यदि अमरूद की अच्छी फसल होती है, तो मुझे सालाना 2.5 से 3 लाख रुपये की कमाई होती है। इसकी अच्छी गुणवत्ता, आकार और सुगंध के कारण इसकी मांग ज्यादा है।”

मांझी के संकल्प ने जो किया है, उस पर बहुत से लोग गर्व महसूस करते हैं।

एक ग्रामीण, नागेंद्र यादव कहते हैं – “वह पुरानी कहावत, कि ‘कड़ी मेहनत का फल कभी बेकार नहीं जाता’ सत्येंद्र के मामले में सच साबित होती है।”

हालांकि बाग उनके समर्पण का एक सबूत है, लेकिन मांझी को बुरा लगता है कि दशरथ मांझी, जिन्हें वे प्यार से बाबा (दादा) कहते थे, उनकी प्रेरणा से मिली सफलता को देखने के लिए जीवित नहीं रहे।

पहाड़-पुरुष के गांव में ‘अमरूद-गुरु’ का “हरित मिशन”

पहाड़-पुरुष  को श्रद्धांजलि के रूप में, मांझी ने अपनी हरित पट्टी का रुख गहलौर घाटी की ओर मोड़ने का फैसला किया, जो दशरथ मांझी के गांव के पास बंजर, चट्टानी पहाड़ियां हैं।

भारत के 'माउंटेन मैन' के सम्मान में सत्येंद्र मांझी, दशरथ मांझी के गांव में फलों और इमारती लकड़ी के पेड़ों की एक हरित पट्टी विकसित करने की कोशिश कर रहे  हैं
भारत के ‘माउंटेन मैन’ के सम्मान में सत्येंद्र मांझी, दशरथ मांझी के गांव में फलों और इमारती लकड़ी के पेड़ों की एक हरित पट्टी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं (छायाकार – मोहम्मद इमरान खान)

रेतीली मिट्टी और पानी का अभाव इस क्षेत्र को खेती करने के लिए एक चुनौती बना देते हैं। लेकिन मांझी ने आम और अमरूद समेत पीपल, नीम, बरगद और फलों के 500 पौधे लगाए हैं। 

उन्होंने कहा – “इस साल मेरा 5,000 पौधे लगाने का लक्ष्य है, ताकि यह जगह कुछ सालों में हरी-भरी हो जाए और उम्मीद है कि इससे यहां पर्यटक आएंगे।”

लेकिन बात बस इतनी ही नहीं थी। बाकरौर गांव के पास से बहती फाल्गु के साथ-साथ बंजर भूमि को देखते हुए, मांझी ने वहां भी अमरूद, बांस, पीपल, शीशम और नीम के पौधे लगाकर हरियाली के प्रयास शुरू कर दिए।

बाकरौर के पास फाल्गु नदी का रेतीला तट मांझी के हरित मिशन का भी हिस्सा है
बाकरौर के पास फाल्गु नदी का रेतीला तट मांझी के हरित मिशन का भी हिस्सा है (छायाकार – मोहम्मद इमरान खान)

बाकरौर के ग्रामवासी, चरित्तर मांझी कहते हैं – “इस रेतीले हिस्से को हरा-भरा करने के बारे में किसी ने नहीं सोचा था, लेकिन सत्येंद्र कर रहे हैं।”

अमरूद-गुरु कैसे फैला रहे हैं पर्यावरणवाद के बीज

सत्येंद्र मांझी के बाग में अब लगभग 11,000 पेड़ हैं, जिनमें से 10,000 अमरूद हैं, जिससे उन्हें एक नियमित आय प्राप्त होती है। लेकिन उनसे अत्यधिक पर्यावरणीय लाभ भी मिलते हैं।

उनके काम से प्रेरित होकर, कई ग्रामीणों ने उनके नक्शेकदम पर चलना शुरू कर दिया है।

इससे खुश होकर, मांझी कई लोगों को मुफ्त में पौध मुफ्त बांटते हैं।

उसकी एकमात्र शर्त यह है कि वे पौधों का पालन-पोषण करें| उनकी देखभाल करें, जो उनके श्रम का फल होगा।

 (यह भी पढ़ें: अनाज बैंक ने बिहार के दलितों को भूख के डर से मुक्त किया)

मोहम्मद इमरान खान पटना स्थित पत्रकार हैं।